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टॉम ऑल्टर: भावनाएं ही जिसकी जिंदगी की सबसे बड़ी पूंजी थी

दरअसल, वो हिंदुस्तान को जीने वाले शख्स थे. जहां खेल भी था, हर धर्म का सम्मान भी, फिल्म थी, तो थिएटर भी था

Shailesh Chaturvedi

मैं बंबई में था. अपने दोस्त के साथ कमेंटरी सुन रहा था. विश्वनाथ ने स्क्वायर कट लगाया- ठक... अब तक बड़े मंद सुर में बात कर रहे टॉम ऑल्टर की आवाज तेज हुई. ठीक विश्वनाथ के स्क्वायर कट की तरह. आंखों में चमक किसी बच्चे जैसी थी, जो अपने हीरो की बात कर रहा था. हुज़ूर, ऐसा लगा, जैसे किसी ने गोली चलाई हो. हम ट्रांजिस्टर पर सुन रहे थे. मैंने कहा कि अब हमें ये मैच जीतने से कोई नहीं रोक सकता.

यह टॉम ऑल्टर का अंदाज था. वह उस यादगार मैच की बात कर रहे थे, जब भारत ने 1976 में वेस्टइंडीज को उसकी सरजमीं पर हराया था. क्रिकेट को लेकर उनका प्यार किसी बच्चे जैसा था. खालिस, जिसमें कोई मिलावट नहीं थी. क्रिकेट पर बातों को लेकर उनका प्यार भी ऐसा ही था. यही बात उनकी हाजिरजवाबी के लिए कही जा सकती है.


उनके हाथ में चाय का प्याला हो, साथ में कोई खेलों का शौकीन, उसके बाद टॉम ऑल्टर को रोकना नामुमकिन है. उन्होंने उसी बातचीत में कहा भी था- मौलाना आज़ाद कहा करते थे कि चाय की चर्चा न छेड़िए... मैं इसमें क्रिकेट भी जोड़ लेता हूं कि क्रिकेट के किस्से न छेड़िए... उसके बाद मुझे चुप नहीं करा सकते.

हिंदुस्तान को जीने वाला शख्स 

टॉम ऑल्टर से पहली मुलाकात एक प्रेस कांफ्रेंस की थी. क्लीन स्पोर्ट्स की मुहिम का वो हिस्सा थे. कई खिलाड़ियों के साथ दिल्ली के एनएससीआई में आए थे. उन्होंने अपनी तकरीर खालिस अंग्रेजी में दी थी. उसके बाद स्टेज से उतरे और चाय हाथ में आई, तो मामला खेलों से होते हुए शेर-ओ शायरी पर पहुंच गया. लेकिन वहां पत्रकारों का हुजूम था.

कहा जाए, तो पहली बार उनसे खेलों पर बात करने का मौका कुछ ही महीने पहले मिला. फ़र्स्टपोस्ट के प्रोग्राम के लिए. पुरानी दिल्ली में प्रोग्राम था. वहां पहुंचते ही उनके भीतर का गांधी और आज़ाद दोनों जाग गए थे. स्टेज पर टॉम इन दोनों का किरदार निभाते थे. उन्होंने छत पर खड़े होकर निगाह घुमाई – हुजूर क्या जगह है... एक तरफ जामा मस्जिद, एक तरफ गौरी शंकर मंदिर, उसके सामने गुरुद्वारा, साथ में चर्च... इसी को हिंदुस्तान कहते हैं. ये दुनिया में और कहीं नहीं हो सकता. इसी पहचान को खत्म करने की कोशिश हो रही है.

उन्होंने बताया कि उनका एक दोस्त चांदनी चौक आया और ये मंजर देखकर उसने सिर पकड़ लिया कि कुछ सौ मीटर के भीतर हर धर्म की पहचान कैसे किसी एक जगह मिल सकती है! उन्होंने जामा मस्जिद की तरफ हाथ उठाया, यही तो वो जगह है, जहां मौलाना आज़ाद ने आज़ादी के ठीक बाद तक़रीर दी थी और मुसलमानों से कहा था कि कहां जाना चाहते हो. इस मुल्क से मत जाओ. ये तुम्हारा मुल्क है.

दरअसल, वो हिंदुस्तान को जीने वाले शख्स थे. जहां खेल भी था, हर धर्म का सम्मान भी, फिल्म थी, तो थिएटर भी था. वाइल्ड लाइफ थी... और शेर-ओ शायरी भी. उनसे मुलाकात कराने का श्रेय फ़र्स्टपोस्ट के साथी आसिफ खान को जाता है. उन्होंने मिलाते हुए चेतावनी भी दी थी- टॉम साहब को शेर सुनाना बहुत पसंद है. देख लीजिए, कहीं आपको ये सब पसंद नहीं हो, तो फंस जाएंगे. हुआ भी ठीक वैसा ही- हुजूर, एक शेर याद आया है. कुछ ही समय में ग़ालिब, मीर, ज़ौक से लेकर हम तमाम लोगों के शेर सुन चुके थे. हां, ‘फंसे’ बिल्कुल नहीं थे. ऐसा हो ही नहीं सकता कि टॉम ऑल्टर साथ हों और आप एक लम्हा भी फंसा हुआ या बोर होने जैसा महसूस करें.

क्रिकेट से था बच्चों सा प्यार

ये उनकी शख्सियत का ही कमाल है. उनके पास बात करने के लिए क्या कुछ नहीं है. आप जिस विषय पर चाहे बात कर सकते थे. गांधी से जिन्ना, आजाद से सुभाष बोस, थिएटर से फिल्म, खाने से गाने.. शेर-ओ शायरी से चुटकुले.. और हां, खेल. क्रिकेट यकीनन उनका पहला प्यार था. लेकिन बाकी खेल भी किसी भी तरह कम नहीं थे.

स्पोर्ट्स वीक के लिए वो नियमित तौर पर खेल पत्रकार की तरह काम करते थे- उस दौरान मुझे बहुत कमाल के लोगों से मिलने का मौका मिला. प्रकाश पादुकोण, सैयद मोदी, पीटी उषाये बताते हुए वो एमडी वालसम्मा और अमी घिया पर पहुंचे- इनके बारे में तो आप जानते होंगे. जवाब में हां सुनने पर उनकी आंखों में फिर वही चमक आई, जो किसी बच्चे की मानिंद थी – मुझे ऐसे लोग बहुत पसंद हैं, जिन्हें खेल पसंद हैं. मैं आपके साथ घंटों बात कर सकता हूं.

उन्होंने खेल में अपने हीरो का भी जिक्र किया – सुरेश गोयल.. आप जानते होंगे? क्या स्मैश मारते थे. मैंने उन्हें खेलते हुए देखा. उसके बाद मैं उनके पास गया और मैंने कहा कि आपका बहुत बड़ा फैन हूं. उन्होंने मुस्कुराकर मेरे कंधे पर हाथ रखा, मुझे आज भी याद है.

किस्सा सुनाते टॉम ऑल्टर उन भावनाओं में बहते जा रहे थे. भावनाएं ही तो उनकी जिंदगी की सबसे बड़ी पूंजी थी. तभी मैच फिक्सिंग से लेकर खेलों से जुड़ी कोई नेगेटिव बात उस बच्चे को खत्म नहीं कर पाई, जो उनके भीतर था- मैं खेल की नेगेटिव बातों पर सोचता नहीं हूं. मैं खेल को जीता हूं.

एक इंटरव्यू में वो अपने पसंदीदा खिलाड़ी बता रहे थे. ऑल टाइम बेस्ट इंडियन क्रिकेट टीम. उन्होंने 11 खिलाड़ी बता दिए. उसके बाद शूट खत्म हो गया. वो बात करते रहे. अचानक माथे पर हाथ मारकर कहा – अरे, एक नाम तो मैं भूल गया. एकनाथ सोलकर... उफ, मैं बूढ़ा हो गया हूं लगता है. उनको कैसे भूल सकता हूं. आप अगली बार फिर शूट कीजिएगा. मेरे पास सोलकर के तो क्या किस्से हैं. मैं बताना चाहता हूं.

ऑफ कैमरा भी उन्होंने सोलकर के एक कैच को बाकायदा एक्टिंग के साथ दिखाया. उसके बाद अगले शूट में और किस्सों का वादा किया. लेकिन वो वादा पूरा नहीं हो पाया. चंद रोज बाद ही खबर आई कि टॉम ऑल्टर को कैंसर है. वो भी चौथे स्टेज का. महानवमी की रात और दशहरे की सुबह उन्होंने दुनिया छोड़ दी.

कमेंटेटर हर्ष भोगले ने उन्हें याद करते हुए उनकी बात लिखी है. टॉम कहते थे – फनकार की तो यही असलियत है. एक पर्दा गिरा और निकल पड़े किसी और पर्दे के उठने की खोज में. एक नया मंच, एक नया किरदार, वही इंसान.

अब नहीं सुनाई देगा टॉम साहब के हुजूर कहने का अंदाज

टॉम साहब एक नए पर्दे की खोज में गए हैं. वहां भी वो मसूरी के किस्से सुनाएंगे, जहां उनका बचपन बीता. वहां भी वो राजेश खन्ना की आराधना के बारे में बताएंगे, जिसने उन्हें फिल्मों में आने पर मजबूर कर दिया. वहां भी वो बिशन सिंह बेदी और सुनील गावस्कर के बारे में बताएंगे कि वो इन दोनों की कप्तानी में खेले हैं. वहां वो मोहम्मद शाहिद के बारे में बताएंगे कि हॉकी के महान खिलाड़ी मैच में गेंद के साथ ‘जलेबी’ बनाते थे.

वहां भी वो जिम कॉर्बेट की बातें करेंगे. वहां भी वो मौलाना आज़ाद और गांधी की बात करेंगे. वहां भी किसी और खालिस हिंदुस्तानी की तरह खाने को लेकर उनका प्यार उफानें मारेगा. वहां भी वो फिक्र करेंगे कि हिंदुस्तान को क्या हो रहा है. क्यों इस मुल्क में सारे लोग बगैर मज़हब के नाम पर लड़े साथ नहीं रह सकते. वहां भी उनके साथ गप्पें लड़ा रहे लोगों के लिए एक लम्हा भी बोरियत भरा नहीं होगा.

अलविदा टॉम साहब. उस दुनिया के लिए आपने इस दुनिया को थोड़ा बेरंग कर दिया. अब वो किस्से, वो कहानियां, वो ठहाके, वो शेर-ओ शायरी... और आपका हुजूर कहने का अंदाज इस दुनिया को लोगों को कभी सुनाई और दिखाई नहीं देगा. अलविदा...