'हर महान वैज्ञानिक खुद में एक कलाकार भी होता है.' बीसवीं सदी के सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिकों में शुमार आइंस्टीन का यह कथन बड़ा मशहूर है. उम्र भर विज्ञान को लोगों के बीच ले जाने के अपने संकल्प से बंधे प्रो. यशपाल को आइंस्टीन की यह पंक्ति बहुत पसंद थी. बातचीत में अक्सर वे सामने वाले को यह पंक्ति किसी ना किसी बहाने से सुनाते थे.
विज्ञान की किवदंति बन चुके आइंस्टीन के बारे में यह भी कहा जाता है कि वे पियानो और वायलिन किसी सधे कलाकार की तरह बजाते थे. प्रो. यशपाल का वायलिन, पियानो या फिर वीणा अथवा संतूर बजाना तो प्रसिद्ध नहीं है लेकिन उनके व्यक्तित्व और काम को समझने के लिए ‘वैज्ञानिक कलाकार’ की यह कसौटी बड़ी कारगर साबित हो सकती है क्योंकि प्रो. यशपाल किसी एक व्यक्ति का नाम ही नहीं बल्कि कई भूमिकाओं को साकार करने वाली एक परिघटना का नाम है.
विज्ञान और कविता
आइंस्टीन मानते थे कि काम कलाकार का हो या वैज्ञानिक का, दोनों के लिए अंतर्दृष्टि का होना जरूरी है. उनका यह भी कहना था कि अंतर्दृष्टि गणित और तर्क की चौहद्दी से बाहर की चीज है, अंतर्दृष्टि हमेशा हृदय से उठने वाली प्रेरणा की देन होती है, इसे अंतर्बोध कहा जा सकता है.
एक दफे उन्होंने अपने दोस्त से कहा कि ‘जब मैं खुद के बारे में और विचार करने की अपनी पद्धति के बारे में सोचता हूं तो मुझे लगता है कि सृष्टि के अगम रहस्य को जानने में प्रतिभा से ज्यादा मेरी मदद कल्पना ने की है. विज्ञान की हर बड़ी उपलब्धि किसी अंतःप्रेरणा से उपजती है. मैं अंतःप्रेरणा और अंतर्बोध में यकीन करता हूं क्योंकि कई दफे मुझे लगता है कि मैं सही हूं जबकि अपने सही होने का मुझे कोई स्पष्ट कारण नहीं दिखता.’
अचरज क्या जो आइंस्टीन का यह कथन भी समान रुप से मशहूर है कि 'कल्पना ज्ञान से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है.'
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प्रो. यशपाल भी यही मानते थे. उनकी मानें तो कविता करते हुए विज्ञान तक पहुंचा जा सकता है और विज्ञान तक पहुंचना वैसा ही है जैसे किसी कविता को रचना. दोनों सबकुछ में सबकुछ को मिलाने की एक कीमियागरी है. उनकी नजर में कल्पना और ज्ञान आपस में विरोधी नहीं बल्कि जिज्ञासा के दो अलग-अलग छोर हैं.
इसी नजरिए से वे कहते थे कि शिक्षा का उद्देश्य अलग से कुछ सिखाना नहीं बल्कि जिज्ञासा को बचाए रखने का होना चाहिए क्योंकि मनुष्य स्वाभाविक रुप से जिज्ञासु होता है, प्रयोग करते हुए सीखता है और प्रयोग करते हुए सीखने के क्रम में जान लेता है कि सूरज, चांद, सितारे या यह पूरी कायनात आपस में अलग-अलग नहीं बल्कि सबकुछ बड़े विचित्र तरीके से एक-दूसरे से गूंथा-बिंधा है.
हरकुछ के हरकुछ से जुड़े होने के इसी भाव को प्रो. यशपाल आध्यात्मिकता कहते थे- यह बोध कि धरती का मनुष्य आकाश के तारों का ही एक हिस्सा है.
एक इंद्रधनुषी शख्सियत
हरकुछ के हरकुछ से जुड़े होने का यही भाव प्रो. यशपाल की शख्सियत में भी दिखाई देता है. वे वैज्ञानिक, नीति-निर्माता, प्रबंधक और प्रबोधक सबकुछ एक ही साथ थे. वे पूरी गंभीरता के साथ योजना आयोग के सदस्यों के बीच उच्च शिक्षा संबंधी अपनी सोच का साझा कर सकते थे और पूरे उत्साह से बच्चों के बीच सूर्यग्रहण का रहस्य बता सकते थे.
देश के लिए नीति-निर्माण की उनकी गंभीरता को सृष्टि के रहस्य समझाने के उनके उत्साह से अलग करके नहीं देखा जा सकता.
1995 के 21 नवंबर को देश में दैवीय चमत्कार का हल्ला मचा. टीवी सेटस् पर हड़कंप मचाने के अंदाज में आ रहे समाचारों के जरिए घर-घर में लोग जान गये कि भगवान गणेश की प्रतिमा दूध पीने का चमत्कार कर रही है.
चमत्कार को नमस्कार करने के अंदाज में दंडवत बैठे देश को मानस को उस वक्त पूरे साहस के साथ प्रो. यशपाल ने बताया कि मामला किसी तरल-पदार्थ पर स्वाभाविक रुप से काम करने वाले एक बल ‘सरफेस टेंशन’ का है. इसी बल के कारण पानी की बूंद बहुधा नलके से सटी रहती है और हाथ से छूते ही नीचे टपक पड़ती है.
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पाखंड की पोल खोलने के प्रो. यशपाल के इस साहस की कहानी तबतक पूरी नहीं होती जबतक आप यह ना याद कर लें कि उम्र के पूरे 35 साल टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च में कॉस्मिक-किरणों और उच्च-ऊर्जा संबंधी भौतिकी पर काम करने वाले इस वैज्ञानिक के भीतर एक हमेशा एक सचेत नागरिक मौजूद रहा, ऐसा नागरिक जो लोक-कल्याण की भावना से आस-पास घट रही घटनाओं की परीक्षा करता है और कोई चीज लोक-कल्याण के लिहाज से घातक हो तो संविधान प्रदत्त तमाम उपायों का सहारा लेकर उसे रोकने की कोशिश करता है.
शिक्षा के निजी दुकानों पर लगाई लगाम
यह प्रो. यशपाल ही थे जिनकी नजर गई कि राज्यों ने तो प्राइवेट यूनिवर्सिटी बिल का माखौल बना रखा है. राज्यों में अजब-गजब नाम के निजी विश्वविद्यालय खुल रहे है, गैराज बनाने-चलाने से लेकर जूतों की मरम्मती और डिजाइनिंग तक विचित्र डिग्रियां थोक के भाव से छात्रों में बांटी जा रही हैं और उच्च शिक्षा की ये निजी दुकानें नियामक संस्था यूजीसी के नियमों की धज्जियां उड़ा रही हैं.
प्रो. यशपाल की ही अर्जी पर सुप्रीम कोर्ट ने 2005 की फरवरी में फैसला सुनाया था कि छत्तीसगढ़ प्राइवेट सेक्टर यूनिवर्सिटी एक्ट (2002) के तहत बने निजी विश्वविद्यालय बंद किए जाएं.
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हर कुछ को सबकुछ से जुड़ा देख पाने की उनकी सलाहियत की एक झलक उनकी अध्यक्षता में बनी उच्च शिक्षा संबंधी समिति की रिपोर्ट में भी मिलती है. इस रिपोर्ट की शुरुआत में ही कहा गया है कि ‘हमने गुजरे सालों में उच्च शिक्षा को अलग-अलग खानों में बांट दिया है जबकि नया ज्ञान हमेशा एक से ज्यादा विषयों के संधि-स्थल पर पैदा होता है. उच्च शिक्षा के ऐसे विधान ने कल्पना की हमारी उड़ान को सीमित किया है और नया रच पाने की हमारी क्षमता में कमी आई है’.
इसी सोच से उच्च शिक्षा के बाबत प्रो. यशपाल की अध्यक्षता में बनी समिति ने सिफारिश की कि तमाम किस्म की शिक्षा को समग्र नजरिए से देखना होगा. पेशेवर शिक्षा को सामान्य शिक्षा से अलग करके देखने की रीत छोड़नी होगी उच्च शिक्षा की तमाम संस्थाओं चाहे वह चिकित्सा की हों या फिर कृषि-विज्ञान की, कानून की हों या फिर प्रबंधन की- सबको एक ही नियामक संस्था के अंतर्गत बनाया और चलाया जाना चाहिए.
यूजीसी के अध्यक्ष के रूप में उनकी भरसक कोशिश रही कि उच्च शिक्षा में व्याप्त विषयों की खेमेबंदी को खत्म किया जाए. इंटर-यूनिवर्सिटी सेंटर्स, एकेडमिक स्टॉफ कॉलेज और मीडिया इन्फॉरमेशन एंड लाइब्रेरी नेटवर्क ऐसी ही कोशिशों का मूर्त रुप है.
एक वाकया जिसने जीवन बदल दिया
देश के बंटवारे की घड़ी में प्रो. यशपाल का परिवार दिल्ली पहुंचा था. पिता लाहौर में सरकारी मुलाजिम थे और यशपाल उस वक्त पंजाब यूनिवर्सिटी लाहौर में बीएससी( भौतिकी) के विद्यार्थी. बंटवारे की दहशत को उन्होंने अपनी आंख से देखा था.
1947 के अगस्त में पाकिस्तान से शरणार्थी झुंड के झुंड दिल्ली चले आ रहे थे. सांप्रदायिक तनाव अपने चरम पर था. दिल्ली के किंग्सवे कैंप के पास लगे एक शरणार्थी शिविर के आस-पास कुछ गड़बड़ी मची. पास के अस्पताल पर सांप्रदायिक तत्वों ने हमला किया, कुछ लोग मारे गये. किसी को पता नहीं था कि हत्या किसने की है. शक किंग्सवे कैंप में लगे शरणार्थी शिविर के बाशिन्दों पर था.
अफरा-तफरी के उसी माहौल में जवाहरलाल नेहरु वहां कार से पहुंचे. कार से उतरते ही कहा- कहां है, कैंप का कमांडेट? क्या इसी दिन को देखने के लिए हमने आजादी की लड़ाई लड़ी थी? क्या हम ऐसा ही देश बनाना चाहते हैं ? देश-निर्माण के अपने लहूलुहान स्वप्न को बचाने की पीड़ा और क्रोध से सने नेहरू के ये बोल नौजवान प्रो. यशपाल ने अपनी कानो से सुने थे.
आगे के जीवन ये लिए नेहरु के यही बोल उनके मार्गदर्शक रहे. देश की आजादी के जंग को करीब से देखने वाले प्रो. यशपाल ने आजाद भारत में अपनी बहुविध भूमिका निभाने से पहले हर बार अपने से यह सवाल पूछा—‘क्या हम ऐसा ही देश बनाना चाहते हैं, क्या हमने इसी के लिए आजादी की लड़ाई लड़ी थी ?
नेहरु के सपने में साइंटिफिक टेंपरामेंट का देश था और प्रो. यशपाल ने मृत्यु के ऐन पहले तक इसी सपने को साकार करने की कोशिश की.