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रामनवमी स्पेशल: आजादी की किताब में रामकथा का राजनीतिक पाठ

रामनवमी का दिन हमारे लिए फिर से एक अवसर है कि फिर से यह पूछने का कि हमारे लिए रामकथा के क्या अर्थ हैं

Chandan Srivastawa

आज से सात साल पहले का वक्त! अक्टूबर की पहली तारीख! चैत्र की रामनवमी अभी पांच महीने दूर थी, पूर्वी यूपी का भोजपुरी अंचल छठ और दीवाली के लिए अपने घर और मन को तैयार कर रहा था.

जाड़े का मौसम घर-आंगन में दस्तक दे रहा था कि अचानक जाड़े की शुरुआत में ही यूपी का सियासी मिजाज मई-जून की तरह तपने लगा. राममंदिर के मुद्दे पर इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला आया.


फैसला आने के चौबीस घंटे पहले से मानो एक अघोषित कर्फ्यू का माहौल बन गया था. सरकार विधि-व्यवस्था बनाए रखने के लिए परेशान थी. कुछ शहर जैसे लखनऊ और फैजाबाद में तो सिपाही इतने थे कि लगे नगर नहीं कोई फौजी छावनी है.

फैसले के तुरंत बाद टेलिविजन के पर्दे से लेकर अखबार के अग्रलेखों तक विचारों का जो घमासान मचा. जितने पुराने सवाल, उतने ही पुराने जवाब.

अयोध्या के राम और पुराने सवाल

 

राम का जन्म कहां हुआ, राम इतिहास के पात्र हैं या पुराण के, क्या बाबरी मस्जिद किसी मंदिर को मिसमार करके बनायी गई? आज से लगभग डेढ़ सौ साल पहले भी ये सवाल उठे थे.

तब यानी 1885 में रामचबूतरा के महंथ रघुबरदास ने फैजाबाद के सब-जज के ऑफिस में सिविल सूट दायर किया कि रामजन्मभूमि पर हमारा हक है और बाबरी मस्जिद के मोतवल्ली (संरक्षक) ने विरोध में दावा पेश करते हुए कहा था कि सारी जमीन बाबरी मस्जिद की है.

2010 के अक्तूबर महीने में अखबारों और टेलीविजन के पर्दे पर बहस फिर इसी टेक पर चली और इस बहस से दूर जो सचमुच रामकथा को अपनी जिंदगी का हिस्सा मानते हैं उन्हें लग रहा था कि इस देश में रामकथा का अर्थ बदल चुका है.

अब वह आध्यात्मिकता के भीतर पनपने वाली नैतिकता की करुण कहानी कम और राजनीति के शक्ति-संतुलन को अल्पसंख्यक या बहुसंख्यक हितों के तरफ झुकाने वाली रस्साकशी ज्यादा है.

इस बार सुप्रीम कोर्ट ने कोई फैसला नहीं बल्कि सुझाव दिया है कि मामला सभी पक्ष आपस में मिल-बैठकर सुलझा लें तो बेहतर. और इस सुझाव के बहाने बहस फिर से पुराने प्रश्नों पर लौट आई है कि राम का मंदिर कैसे बने, कहां बने, मस्जिद के लिए जमीन कहां दी जाय?

खींचतान की जड़ सेक्युलरवाद?

 

तकरीबन डेढ़ सौ साल से चल रही इस इस रस्साकशी की जड़ में है सेक्युलरवाद की हमारी समझ और एक नए राष्ट्र के रुप में उठ खड़े होने की वह मुश्किल लड़ाई जिसके हर पड़ाव पर सवाल उठे कि भारतीयता की परिभाषा क्या हो?

सेक्युलर दिमाग सहम जाता है, अपनी झुंझलाहट में वह अलग-अलग तरीकों से कहता नजर आता है कि आधुनिक लोकतंत्र में धर्म और राजनीति का घालमेल कहीं से ठीक नहीं. और यहीं सेक्युलर दिमाग से चूक होती है.

वह अपने को इस आरोप के लिए खुला छोड़ देता है कि धर्म और राजनीति की उसकी समझ देशी नहीं, विदेशी है. लेकिन रामकथा के राजनीतिकरण की समस्या का यह बस एक पक्ष है.

इसका दूसरा पक्ष खुद उनसे जुड़ता है जो धर्म और राजनीति के बारे में सेक्युलर समझ पर विदेशीपन का आरोप तो लगाते हैं मगर आरोप मढ़ने की हड़बड़ी में खुद उस इतिहास को भूल जाते हैं जिसके भीतर रामकथा का अर्थ राजनीतिक बना.

इतिहास पर पकड़ ढीली हो तो अर्थ का अनर्थ होना तय है. ऐसे में रघुपति राघव राजा राम की करुण कहानी को दो धार्मिक-समुदायों के हितों के बीच रस्साकशी का साधन बनाते देर नहीं लगती.

रामकथा के राजनीतिकरण की कहानी 

इस देश में रामकथा कथा का अर्थ हाल के दशकों में ही राजनीतिक हुआ ऐसा नहीं है. रामकथा के राजनीतिकरण की कहानी बड़ी लंबी है.

सिर्फ मनोविनोद की वजह से नहीं लिखवाया पांचवी सदी के वकाटक राजा प्रवरसेन ने सेतुबंध नाम की रामकथा. जब सातवीं सदी में कन्नौज के राजा यशोवर्मन के दरबार से रामअभ्युदयम लिखा गया तो उसकी एक आकांक्षा रही होगी कि मेरे राज को प्रजा रामराज के नाम से जाने.

यही प्रेरणा रही होगी कि ग्यारहवीं सदी में राजा भोज की धारानगरी से चंपू रामायण निकला और शिवाजी के जमाने यानी 17 वीं सदी में समर्थ गुरु रामदास का रामदयन.

राजत्व को रामराज्य से जोड़कर देखने की इसी परंपरा के भीतर आजादी के आंदोलन के दौर में भी रामकथा के अर्थ राजनीतिक हुए. उन दिनों शायर इकबाल की कलम से एक शेर निकलकर सियासी महफिलों में रंग जमा रहा था- ‘है राम के वजूद में हिन्दोस्तां को नाज, अहले-वतन समझते हैं उसको इमामे-हिंद.'

और इकबाल ने यूं ही नहीं कहा कि हिंदुस्तान के लोग राजा राम को हिंद का इमाम समझते हैं.

गांधी के लिए आजादी का मतलब था रामराज्य

 

इकबाल जब यह कह रहे थे तब तक पोरबंदर के मोहनदास हिंदुस्तान के महात्मा बन चुके थे और ‘यंग इंडिया’ से लेकर ‘हरिजन’ तक देश की आजादी के विचार को रामराज्य के अर्थ में ही गढ़ रहे थे.

इस सिलसिले में हमेशा के लिए याद रख लेने लायक जो मार्के की बात है, वह यही कि खुद गांधी ने परिस्थितियों के हिसाब से रामराज्य के राजनीतिक अर्थ में लगातार बदलाव किया.

सांप्रदायिक तनाव से भरे 1920 के दशक के आखिरी सालों (1929) में गांधी ने 'यंग इंडिया' में रामराज का अर्थ स्पष्ट करते हुए लिखा, 'रामराज से मेरा आशय हिंदूराज का नहीं है. रामराज से मेरा आशय दैविक राज (किंगडम ऑव गॉड) से है.'

और यहीं वे दैविक का राज अपना निजी अर्थ भी साफ कर देते हैं कि- 'चाहे मेरी कल्पना के राम कभी इस धरती पर अवतरित हुए हों या नहीं लेकिन रामराज का प्राचीन आदर्श निस्संदेह सच्चे लोकतंत्र की बानगी है जहां साधारण से साधारण नागरिक को आशा होती है उसे तुरंत इंसाफ मिलेगा और बिना खर्चीले ताम-झाम से गुजरे मिलेगा. कवि ने तो यह तक लिखा है कि रामराज में कुत्ते तक को न्याय मिला.'

रामराज और नैतिक आचरण

 

1930 के दशक के मध्यवर्ती सालों में जब देश में पहली दफा चुनाव हुए और कांग्रेस के नेतृत्व में प्रांतीय सरकारें बनी तो गांधी ने एक बार फिर रामराज का अर्थ बदलते हुए जोर नैतिक आचरण पर दिया.

उन्होंने 'हरिजन' में लिखा, ‘राजनीतिक आजादी का मतलब यह नहीं कि हम ब्रिटेन के हाऊस ऑव कॉमन्स की नकल करें या फिर रूस के सोवियत-शासन, इटली की फासिस्ट हकूमत या जर्मनी के नाजी-शासन की तर्ज पर चलें. उनका शासन उनकी अपनी प्रतिभा के हिसाब से है और हमारा शासन हमारी प्रतिभा के अनुकूल होना चाहिए. मैं इसे रामराज कहता हूं यानी जनता-जनार्दन की ऐसी संप्रभुता जो शुद्ध नैतिक आचरण पर टिकी हो.’

इससे आगे के दशक में देश आजादी के दहाने पर आ पहुंचा था और गांधी एक बार फिर रामराज के एक नये अर्थ का प्रस्ताव करते हैं जिसका जोर भविष्य में बनने वाले भारत पर है.

रामराज की इस कल्पना के केंद्र में है वह आदमी जिसे गांधीवादी मुहावरे में कतार में खड़ा सबसे आखिर का आदमी कहा जाता है और समाजवाद जो आगे चलकर भारतीय संविधान की प्रस्तावना का हिस्सा बना.

राजा-प्रजा की बराबरी चाहते थे गांधी

गांधी ने 1947 के जून की पहली तारीख को हरिजन में लिखा- 'गहरी गैर-बराबरी के मौजूदा दौर में, जब चंद लोग अमीरी की ठाठ में हैं और करोड़ों लोगों को दो जून की रोटी भी ठीक से मय्यसर नहीं है, रामराज्य नहीं आ सकता. मैं जब समाजवादियों और बाकियों का विरोध करता हूं तो बस इसी बात में कि वे समस्या के टिकाऊ समाधान के लिए हिंसा को साधन बनाना चाहते हैं.'

गांधी के लेखन में रामराज की आखिरी चर्चा 26 अक्तूबर 1947 की है, यानी तबकी जब खुद गांधी अपने अंतिम 'हे राम' के क्षण के बहुत करीब आ पहुंचे थे और देश दंगे और बंटवारे के बीच आजाद हो चुका था.

गांधी ने हरिजन में लिखा, 'यदि रामराज के रूप में तुम ईश्वर को देखना चाहते हो पहली जरुरत पड़ेगी अपने भीतर झांककर देखने की. तुम्हें अपने दोषों को करीब से देखना होगा और अपने पड़ोसी के दोषों की तरफ से नजर हटानी होगी. वास्तविक प्रगति का केवल यही एक रास्ता है.'

रामकथा गांधी के लिए सच्चे लोकतंत्र यानी अधिकारों के मामले में राजा-प्रजा की बराबरी से शुरु होती है, व्यक्ति के नैतिक आचरण को उसकी बुनियाद मानती है और जिस समाजवाद पर खत्म होती है उसकी शर्त है- लगातार अपने भीतर झांककर खुद के दोषों को देखना.

'कुजात गांधीवादी' ने बढ़ाई परंपरा 

अचरज की बात नहीं कि आजादी के बाद के दिनों में संसदीय प्रणाली के भीतर गैर-बराबरी की सबसे बड़ी राजनीतिक लड़ाई लड़ने वाले लोहिया ने अव्वल तो खुद को 'कुजात गांधीवादी' कहा और जब राम का अपना अर्थ प्रस्तावित किया तो लिखा कि- ‘गांधी राम के वंशज थे.’

लोहिया के राम बिना हड़पे अपने राज का विस्तार करते हैं, कृष्ण की तरह हर कदम पर चमत्कार नहीं करते मगर अपनी साधारणता के भीतर चक्रवर्ती सम्राट बनते हैं. ऐसा सम्राट जिससे हर फैसले के बारे में प्रश्न पूछा जा सकता है.

कभी बालि ने पूछा था- 'कारण काह नाथ मोहि मारा' और एक अदने से धोबी ने सीता की पवित्रता का प्रमाण मांग लिया था. इस राम से औरतें आज तक पूछती हैं- 'सीता की पहले अग्नि-परीक्षा फिर देश निकाला क्यों?' और दलित पूछते हैं- 'धर्मरक्षक राम के राज में वेदपाठी शंबूक का वध क्यों?'

रामनवमी का दिन हमारे लिए फिर से एक अवसर है कि फिर से यह पूछने का कि हमारे लिए रामकथा के क्या अर्थ हैं?

आजादी की लड़ाई के भीतर रामकथा के जो अर्थ किए गए उसमें राम से प्रश्न किया जा सकता था. मूल प्रश्न यही है कि क्या हम प्रश्नांकित किए जा सकने वाले इस राम राम की अयोध्या-वापसी चाहते हैं या नहीं.

एक ऐसे वक्त में जब नया भारत तकरीबन बन चुका है. राम के स्वरूप और स्वभाव का प्रश्न दरअसल देश की आजादी के आंदोलन से नए भारत के नागरिक के रूप में अपने रिश्ते को फिर से परिभाषित करने का भी प्रश्न है.