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राजेश खन्ना: एक फिल्म ने काका का स्टारडम अमिताभ को दे दिया

अगर सत्तर के दशक से सिर्फ एक फिल्म चुननी हो तो वो शोले नहीं, आनंद होगी

Animesh Mukharjee

राजेश खन्ना के बारे में लिखना शुरू करते समय सबसे मुश्किल सवाल है कि ‘क्या लिखा जाए?’ एक जमाने में राजेश खन्ना को रोज खून से लिखे गए खत मिलने के किस्से. उनके बंगले ‘आशीर्वाद’ के राष्ट्रीय टूरिस्ट स्पॉट बन जाने की कहानियां. डिंपल से उनकी चमक-दमक भरी शादी और चर्चित तलाक, अंजू महेंद्रू से लेकर अनीता आडवाणी तक सबकुछ तो कहा सुना जा चुका है.

ऐसे में खयाल आता है कि फिल्मी टैलेंट हंट जीतने वाले जतिन खन्ना की जिन फिल्मों और अदाओं ने उन्हें ‘द राजेश खन्ना’ बनाया कहीं हम उन्हें ही तो नहीं भूलते जा रहे हैं.


कुछ समय पहले नसीरुद्दीन शाह ने राजेश खन्ना की अभिनय क्षमताओं पर कुछ सवाल उठाए थे. जाहिर तौर पर नसीर साहब अदाकारी में उस मुकाम पर हैं, जहां उनकी बात को ऐवें ही हवा में नहीं उड़ाया जा सकता हैं. और सिनेमाई प्रवृत्तियों के मामले में हम अस्सी और नब्बे के रास्ते अलग फिल्मी आयाम में पहुंच चुके हैं.

ऐसी जगह जहां खुद हीरो के नायकत्व में वो मासूमियत नहीं बची कि वो दुखी हीरोइन से अपनी मौज में ‘पुष्पा आइ हेट टियर्स’ कह सके और वो मान जाए.

आज के नायक को काबिल और वॉन्टेड होना पड़ रहा है. जिसमें उसे ‘मेरे नैना सावन भादौ, फिर भी मेरा मन प्यासा’ जैसी स्वीकारोक्ति करने लायक ठहराव लाना मुश्किल जान पड़ता है.

मगर फिर भी उनकी कुछ फिल्मों ने समग्र रूप से हमें इतना कुछ दिया है जिससे काफी कुछ अपनाया जा सकता है. अगर सिनेमा का ऐंटरटेनमेंट से अलग कोई सार्थक प्रभाव हो सकता है तो उसमें काका की कई फिल्मों की जगह बनती है.

कोरा कागज था ये मन मेरा

साल 1969 शक्ति सामंत की फिल्म आराधना रिलीज होती हैं. हीरोइन बांग्ला फिल्मों का चर्चित नाम है. हिंदी के दर्शक बहुत अच्छे से पहचानते हैं लेकिन अभी भी टैगोर के खानदान से होने की हल्की सी छाप लगी है. और हीरो, दमकते हुए चेहरे वाला एक नौजवान जो गर्दन को एक ओर झुका कर बड़ी मासूमियत से डायलॉग बोलता है.

आराधना के बाद जो हुआ वो सबको पता है. मगर इस फिल्म से पहले के राजेश खन्ना की पहचान को अच्छे से समझने के लिए इस फिल्म का पोस्टर देखना चाहिए. राजेश खन्ना के चेहरे में आपको राजेंद्र कुमार की छाप साफ दिखाई देगी.

जिंदादिली से भरा हीरो जो पायलट है. अपनी मर्जी से प्रेम करता है, शादी करता है. शरारत के साथ लड़की से पूछ लेता है कि बागों में बहार है, तुमको मुझसे प्यर है. पर्दे पर मादक अंदाज में पीली साड़ी में लिपटी वंदना (शर्मिला) से अरुण वर्मा (राजेश खन्ना) से कहा, ‘भूल कोई हम से न हो जाए’. फिल्म का सफल होना एक बात थी. काका का सुपरस्टार बनना दूसरा ऐतिहासिक पड़ाव था.

1969 से 1976 तक लगातार 17 सुपरहिट फिल्मों का दौर चला. अपने से पहले के किसी भी स्टार से अलग इस नए सुपरस्टार की दीवानगी हिंदी भाषी ही नहीं बंगाल से लेकर तमिलनाड़ु और कर्नाटक जैसे देश के हर हिस्से में थी. खून से खत लिखना तो रोज का काम था. हिंदी सिनेमा. गुरू कुर्ता और राजेश खन्ना कट के बिना कोई कॉलेज नहीं हो सकता था. सिनेमा बदल गया.

जिंदगी कैसी है पहेली हाय

राजेश खन्ना के सारे किस्सों, कहानियों को छोड़ दीजिए. सब भूल जाइए. अगर निजी रूप से मुझे 70 के दशक के सिनेमा में से कोई एक चीज चुननी हो तो वो ‘शोले’ नहीं ‘आनंद’ होगी. लिंफोसर्कोमा ऑफ द इंटेस्टाइन से जूझते आनंद सहगल की जीवटता और सकारात्मकता की कोई तुलना नहीं है.

फिल्म की शुरुआत से ही दर्शकों को स्पष्ट होता है कि हिंदी सिनेमा के अंतिम क्षणों में देवी के हाथ से फूल गिरने जैसा कोई चमत्कार इस फिल्म में नहीं होगा. आनंद को मरना है वो मरेगा ही. मगर फिर भी इससे ज्यादा सकारात्मकता किसी और फिल्म में देखने को नहीं मिलती.

आनंद के पास अपनी कोई बकेट लिस्ट नहीं है. वो दुनिया में अधूरे छूट गए सपनों को पूरा करने नहीं भाग रहा है. उसे हर पल को बस भरपूर जीना है. अपने आस-पास के लोगों की जिंदगी बेहतर बनानी है ताकि वो उसे अपने-अपने तरीके से याद रखें. अपने बाबू मोशाय का बक-बककर सर खा जाने वाले आनंद की वो टेप रिकॉर्डर वाली आवाज आज भी रोंगटे खड़े कर देती है. एहसास दिलाती है कि ये हम पर निर्भर करता है कि हमारे जाने के बाद दुनिया में हमारे काम के नाम पर क्या याद रह जाएगा.

सिर्फ ‘आनंद’ ही क्यों सबकी समस्या को सुलझाने वाले ‘बावर्ची’ को ही ले लीजिए. नेकी कर और दरिया में डाल जैसे कॉन्सेप्ट के साथ-साथ लोगों को किसी तरह से जज न करते हुए उनकी समस्या समझाने वाले राजेश खन्ना पर्दे पर कुछ ऐसा निभाकर गए हैं जिसे सिर्फ चेहरे के हावभाव और संवादों की अदायगी में नहीं मापा जा सकता. बाद में जितने भी लोगों ने ‘बावर्ची जैसा कुछ’ बनाने की कोशिश की, हिंदी सिनेमा के येन केन प्रकारेण नायिका को पाने वाले खेल से आगे कुछ नहीं कर पाए.

इसी तरह से ‘हाथी मेरे साथी’ में पहले जमींदार फिर एक एम्यूजमेंट पार्क के मालिक इसके बाद स्टंटमैन का पेशा अपनाने वाले राजेश खन्ना एक इंसान के जीवन में तमाम किरदारों को दिखा रहे थे. वो तमाम किरदार जो एक समय के बाद उनके अपने जीवन में आने वाले थे. जिसके चलते अपने अंतिम सालों में अमिताभ बच्चन के हाथों लाइफटाइम अचीवमेंट लेकर उन्होंने उसी अदा में कहा था, ‘अब यहां कोई और है, कल यहां कोई और था, ये भी एक दौर है वो भी एक दौर था’

शोहरत ‘नमक हराम’ होती है

एक ओर जहां सिनेमाई पर्दे पर राजेश खन्ना सकारात्मकता से भरे किरदारों को नई ऊंचाइयां दे रहे थे. सफलता और पैसे के नशे में उनके पैर जमीन से हट रहे थे. ‘अमर प्रेम’ के नायक की प्रेमिका अंजू उसके चारों तरफ खिंची चमचो और चाहने वालों की दीवार के चलते दूर हो गई. अपनी फैन डिंपल से उनकी शादी एक ऐसी घटना थी जिसे शायद नहीं होना चाहिए था. प्रेम पर फैन के चुनाव में मुमकिन है कि ये खयाल न आया हो कि जिंदगी में 3 घंटे के बाद शो खत्म नहीं होता. काका अपनी फिल्मों के सेट और आशीर्वाद के कमरों में ‘खन्ना दरबार’ लगाते रहे. देखते ही देखते डिंपल भी उनसे दूर चली गईं. और वो अकेले रह गए.

दूसरी तरफ एक उनकी फिल्म ‘नमक हराम’ रिलीज हुई. फिल्म रिलीज होने के पहले लोग इसे लेना नहीं चाहते थे क्योंकि सबको लगता था कि फ्लॉप फिल्मों की सीरीज दे चुके अमिताभ इस फिल्म पर भी ग्रहण लगा देंगे. सबकी मांग थी कि काका का रोल बढ़ाकर बच्चन के सीन कम किए जाएं. मगर तक ‘जंजीर’ रिलीज हो गई.

राजेश खन्ना पर लिखी अपनी किताब में यासिर उस्मान लिखते हैं कि ‘नमक हराम’ से पहले डिस्ट्रिब्यूटर अमिताभ के कानों को ढकने वाले बालों का मजाक उड़ाते हुए उन्हें बंदर जैसा बताते थे. मगर इस फिल्म के रिलीज होते होते पाला बदल गया था.

अब बंद गले के कुर्ते और पीछे की तरफ सलीके से कढ़े हुए बालों की जगह 3 खुले बटनों वाली कमीज और बिखरे बालों से मर्दानगी तय हो रही थी. बॉम्बे के हेयर कटिंग सलून में नए बोर्ड लग गए थे. इनपर लिखा था. अमिताभ कट साढ़े तीन रुपए राजेश खन्ना कट दो रुपए. सिनेमा फिर बदल चुका था.