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राज कपूर जन्मदिन विशेष: दिलीप कुमार से रिश्तों की असल सच्चाई ये है

राज कपूर को याद करते हुए दिलीप कुमार एक बड़ा दिलचस्प किस्सा किताब में दर्ज करते हैं

Nazim Naqvi

फिल्म इंडस्ट्री यानी हमारा बॉलीवुड किस्सों की, दास्तानों की, गप-शप की अजीब दुनिया है. आधी हकीकत आधा फसाना कि तर्ज पर यहां की फिजां में न जाने कितनी कहानियां तैरती रहती हैं.

इन्हीं में एक किस्सा ये भी है कि राजकपूर और दिलीप कुमार एक दूसरे के प्रतिद्वंदी, एक दूसरे के विरोधी थे. दोनों ने अपने पूरे फिल्मी करियर में सिर्फ एक फिल्म ‘अंदाज़’ में साथ काम किया. इस फिल्म में नर्गिस इन दोनों के बीच हिरोइन थीं.


फिल्म का कथानक प्यार की तीव्र वेदनाओं के इर्द-गिर्द घूमता है, जहां आखिर में नर्गिस के हाथों दिलीप कुमार का खून होता है. उन दिनों ये फिल्म बहुत पॉपुलर हुई, फिल्म के तीनों किरदार दर्शकों में पहले से ही बहुत मकबूल थे. कहते हैं कि इसके बाद फिर कभी राजकपूर और दिलीप कुमार ने एक दूसरे का चेहरा देखना भी पसंद नहीं किया.

लेकिन इन सारी बातों पर सिर्फ यही कहा जा सकता है कि मिर्च-मसाला लगाकर फिल्मी गप-शप बेचने से ज्यादा इसमें कोई सच्चाई नहीं है. आज 2 जून को राजकपूर साहब कि पुण्यतिथि पर आइए जानते हैं दिलीप कुमार के वो एहसासात जो राजकपूर के बारे में थे.

'द सब्सटेंस एंड द शैडो'

दिलीप कुमार ने अपनी आत्म-कथा ‘दिलीप कुमार – द सब्सटेंस एंड द शैडो’ में इन किस्सों को दर्ज करते हुए लिखा है 'मैं ये किस्से इसलिए इतनी तफसील से बयान कर रहा हूं क्योंकि हमारे चाहनेवालों को ये पता चल सके कि हमारे बीच कैसे रिश्ते थे. क्योंकि अक्सर लोगों को ये लगता रहा कि मेरे और राज के बीच एक किस्म की पेशेवर प्रतिद्वंद्विता थी'.

दिलीप कुमार का जन्म 1922 में हुआ और 1930 में उनका परिवार बम्बई आया. सन् 1936-37 तक कई वजहों से ये लोग पूना और देवलाली में रहे और फिर बम्बई लौट आए. दिलीप कुमार हाई-स्कूल कर चुके थे. अब जब वो बम्बई लौटे तो उनका दाखिला माटुंगा के खालसा कॉलेज में हुआ.

'खालसा कॉलेज में मेरी मुलाकात, बरसों बाद, राज कपूर से हुई. राज के दादा, दीवान बशेश्वरनाथ कपूर हमारे यहां, पेशावर में आया करते थे. दोनों खानदानों के रिश्ते बम्बई में भी बदस्तूर जारी रहे, उसी गर्मजोशी के साथ जिनके लिए पठान मशहूर हैं.'

दिलीप कुमार आगे लिखते हैं, 'खालसा कॉलेज में मेरे बहुत थोड़े दोस्त थे, राज से मेरी जिगरी दोस्ती थी, अक्सर उसके साथ माटुंगा, उसके घर जाता रहता था जहां पृथ्वीराज जी और उनकी शाइस्ता बीवी रहती थीं. घर के दरवाजे हमेशा खुले रखते थे क्योंकि उनके बेटे पृथ्वीराज जी के भाई और मां के भाई वगैरह कभी भी आया-जाया करते थे.'

उदारवादी और दोस्ताना बर्ताव वाला कपूर परिवार

राजकपूर के परिवार की तस्वीर खींचते हुए दिलीप कहते हैं, 'पृथ्वीराज जी कि शानदार शख्सियत और गर्मजोशी, दिलपसंद मिजाज ने उन्हें अपने इलाके में काफी मशहूर बना दिया था. मैं राज के घर में पूरे सुकून के साथ रहता था. उदारवादी और संक्रामकता कि हद तक दोस्ताना बर्ताव वाला कपूर परिवार, बिना झिझक, हरेक को अपनी मिलनसारी कि बाहों में जकड़ने के लिए तैयार रहता था चाहे वो जो भी हो.'

'जैसा कि हमारे भारतीय परिवारों में होता है, घर के मुखिया होने के नाते जो इज्जत पृथ्वीराज जी को मिलनी चाहिए थी, वो इस बात से कभी कम नहीं हुई, कि जो आजादी उन्होंने अपने भाइयों और बेटों को दी हुई थी.'

दिलीप कुमार खालसा कॉलेज के दिनों को याद करते हुए कहते हैं, 'राज के दोनों छोटे भाई शम्मी और शशि उस वक्त स्कूल में पढ़ते थे. (फुटबॉल के लिए मेरी दीवानगी से अलग) राज को फुटबॉल का उतना ही शौक था जितना कॉलेज में दूसरों को था. हमारे कॉलेज के दोस्तों में ज्यादातर क्रिकेट के दीवाने थे और उनमें राज भी था, लेकिन वो फुटबॉल भी खेलता था. हां जब उसे फुटबॉल के लिए मेरी दीवानगी का पता चला तो मेरे लिए उसका बर्ताव हिम्मत बांधने वाला ही रहता था.'

राज का लड़कियों के बीच आकर्षण

'राज का खूबसूरत रूप और चमकती हुई नीली आंखें, न जाने कितनी लड़कियां उसकी दोस्त थीं. उसकी चाल देखने वाली होती थी जब लड़कियां खुश होकर उसकी तारीफ करती थीं. उसके अंदर पैदाइशी आकर्षण और खिंचाव था. मैं राज का बहुत बड़ा शैदाई था कि जिस तरह लड़कियों के बीच उसका बर्ताव होता था.'

राज कपूर को याद करते हुए दिलीप कुमार एक बड़ा दिलचस्प किस्सा किताब में दर्ज करते हैं. हुआ यूं कि 'राज के अंदर एक जिद थी कि वो किस तरह लड़कियों को लेकर मेरे अंदर बसी शर्म को दूर करे.

एक दिन वो मेरे घर आया और कोलाबा तक टहलकर आने का प्रोग्राम बनाया. मैं भी फौरन तैयार हो गया. जब हम ‘गेटवे ऑफ़ इंडिया’ के नजदीक बस से उतरे तो उसने कहा, चलो तांगे की सवारी करते हैं. मैंने कहा ठीक है. हमने एक तांगेवाले को तय कर लिया और बैठ गए. तांगा चलने ही वाला था कि राज ने तांगेवाले को रुकने को कहा. उसकी नजर, पास ही, फुटपाथ पर खड़ी दो पारसी लड़कियों पर थी जिन्होंने ‘शार्ट फ्रॉक’ पहनी हुई थीं और खींसे निकालकर किसी बात पर हंस रही थीं.'

'राज ने अपनी गर्दन लंबी करके गुजराती में उनको संबोधित किया तो लड़कियों ने उसकी तरफ देखा. राज ने पूरी शायिस्तगी से उनसे पूछा, अगर वो उन्हें कहीं ड्रॉप कर सकता है. लड़कियों ने जरूर समझा होगा कि वो कोई पारसी है, उसका गोरा रंग और नैन-नक्श ऐसे ही थे. दोनों ‘रेडियो-क्लब’ तक साथ जाने को राजी हो गईं. राज ने उन्हें तांगे पर आने का इशारा किया. मैं सांस रोके, हैरत से, सब देख रहा था कि न जाने राज क्या करने वाला है.'

'दोनों लड़कियां तांगे पर सवार हो गईं, एक राज के नजदीक बैठ गईं और एक मेरे करीब. मैं जल्दी से एक तरफ सरक गया ताकि उसे बठने के लिए ठीक जगह मिल जाए मगर राज ने ऐसा कुछ नहीं किया. दोनों सट के बैठ गए. और चंद मिनटों में दोनों ऐसे बाते करने लगे जैसे दो बिछड़े हुए दोस्त हों. बातें करते करते राज ने अपनी एक बांह उसके कंधे पर डाल दी, उसने भी कोई एतराज नहीं किया, जबकि मैं शर्म से सिकुड़ा जा रहा था.'

तो ये थी दोस्ती राज कपूर और दिलीप कुमार में. जमाना चाहे कुछ कहता रहे लेकिन दोनों ने इस दोस्ती को हमेशा-हमेशा निभाया.

( ये लेख 2 जून 2017 को प्रकाशित हुआ था. )