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यूपी बीजेपी के सिलेबस में कभी नहीं रहा विकास का चैप्टर

मोदी की मुश्किल ये है कि बीजेपी के एजेंडे में विकास कभी मुद्दा नहीं रहा

Vivek Anand

विकास के नाम पर प्रधानमंत्री मोदी का ‘विस्तारवादी’ सिद्धांत यूपी चुनावों में काम करेगा, इस पर शक करने की वाज़िब वज़हें हैं. पहली बात- इस सूबे में बीजेपी का विकास के मुद्दों से अलग दूसरे ‘संवेदनशील’ मसलों को हवा देकर राजनीति चमकाने का लंबा इतिहास रहा है. दूसरी बात- यूपी बीजेपी टीम में ऐसे विश्वसनीय चेहरों की भारी कमी है. जो प्रधानमंत्री मोदी के प्रगतिशील एजेंडे को आगे बढ़ाकर राजनीति करने के जुनून में उनके थोड़ा करीब भी दिखते हों.

गौर करने वाली बात है कि ये विधानसभा चुनाव है- लोकसभा का चुनाव नहीं. चुनावों में मोदी की भूमिका सिर्फ एक “पोस्टर ब्वॉय” के तौर पर देखी जानी चाहिए. वर्ना यूपी में बीजेपी ‘चेहराविहीन’ है. किसी को गफ़लत में नहीं रहना चाहिए.


बात पसंद नापसंद की नहीं है. यूपी के पिछले 25 साल के विकास का ज़िक्र करें तो सिर्फ तीन ही चेहरे ज़ेहन में उभरते हैं- एनडी तिवारी, मायावती और अखिलेश यादव. इनमें से कोई भी बीजेपी का नहीं है.

बीजेपी को ये सच स्वीकार करना होगा. यूपी का राजनीतिक इतिहास उठा कर देख लीजिए. जब भी बीजेपी को राजकाज चलाने का मौका मिला. वो विकास से अलग दूसरे मुद्दों में उलझी रही.

कुल मिलाकर बीजेपी ने राज्य को चार बार मुख्यमंत्री दिए- दो बार कल्याण सिंह ( 24 जून 1991 से 6 दिसंबर 1992 तक, फिर 21 सितंबर 1997 से 12 नवंबर 1999 तक ), रामप्रकाश गुप्ता ( 12 नवंबर 1999 से 28 अक्टूबर 2000 तक ) और राजनाथ सिंह ( 28 अक्टूबर 2000 से 8 मार्च 2002 तक ).

बीजेपी सरकारों का एजेंडा

इन तीनों मुख्यमंत्रियों के रहते हुए राम मंदिर आंदोलन, बाबरी मस्ज़िद विध्वंस, कई जगहों पर सांप्रदायिक तनाव और सरकारी स्कूलों में वैदिक गणित पढ़ाने का मुद्दा ही फोकस में रहा. राजकाज चलाने वाले इन्हीं मुद्दों में उलझे रहे.

कल्याण सिंह के पहले कार्यकाल में राज्य की कानून व्यवस्था में सुधार हुआ था. लेकिन पहले कार्यकाल को छोड़कर उनकी छवि हिंदुत्ववादी नेता की ही रही. 6 दिसंबर 1992 को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के तुरंत बाद उन्होंने कहा था - “ मैं बाबरी मस्ज़िद विध्वंस की पूरी जिम्मेदारी लेता हूं  ”. अपने इस बयान के बाद उन्होंने कभी भी इसके लिए अफ़सोस जाहिर नहीं किया.

कल्याण सिंह का दूसरा कार्यकाल मुस्लिम समुदाय के भीतर पैदा हुए अविश्वास को और बढ़ाने वाला था. इसके लिए जिम्मेदार थे, उनके दो विवादास्पद सुझाव. पहला- राज्य के हर प्राइमरी स्कूल में रोज पढ़ाई शुरु करने से पहले भारत माता की प्रार्थना करवाई जाए. दूसरा- क्लास में रोल कॉल के दौरान बच्चे यस सर और यस मैम की जगह वंदे मातरम कहें.

कल्याण सिंह के बाद रामप्रकाश गुप्ता ने यूपी की कमान संभाली. लेकिन मुख्यमंत्री बदलने से सूबे के हालात नहीं बदले. यूपी में ‘गुप्ता काल’ को लोग याद तक नहीं करना चाहते. रामप्रकाश गुप्ता की छवि एक ऐसे भुलक्कड़ राजनेता की थी. जिसने कभी अपने काम को गंभीरता से नहीं लिया. अंदाजा लगाइए कि वो कैसे मुख्यमंत्री रहे होंगे कि जब आज़मगढ़ दंगों की आग में झुलस रहा था. जनाब अपने परिवार के साथ लखनऊ के बाहरी इलाके में पिकनिक मना रहे थे.

बीजेपी ने एक ऐसे शख़्स को यूपी का ताज दे दिया था. जिसे गलत वक्त पर गलत बयान देने की बीमारी थी. 14 फरवरी 2000 की इंडिया टुडे मैग्जिन की एक रिपोर्ट के मुताबिक रामप्रकाश गुप्ता का बयान था- “ हम लोगों को जातिवादी होना चाहिए, इससे देश और समाज मजबूत होता है.”

राजनाथ भी नहीं कर पाए कमाल

यूपी में बीजेपी की बुझती लौ को राजनाथ सिंह भी नहीं लहरा पाए. उनकी सरकार नए मसले को हवा देने की वजह से चर्चा में रही. उन्होंने सरकारी नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था को तर्कसंगत बनाने पर जोर दिया था.

राजनाथ सिंह यूपी में पहली बार एससी और ओबीसी कैटेगरी से भिन्न अत्यंत पिछड़ा वर्ग की एक अलग कैटेगरी लेकर आए. कास्ट पॉलिटिक्स के इतिहास में अहम ये है कि नीतीश कुमार के बिहार में महादलित की अलग कैटेगरी बनाने से पहले ऐसा ही प्रयोग राजनाथ सिंह अपने कार्यकाल में कर चुके थे.

1991-92 में जब कल्याण सिंह सरकार में राजनाथ सिंह शिक्षामंत्री हुआ करते थे. उन्होंने परीक्षाओं में नकल को गैरजमानती अपराध घोषित करवा दिया. शिक्षा के शुद्धिकरण के तहत उन्होंने स्कूली पाठ्यक्रम में वैदिक गणित को शामिल किए जाने की मांग रखी थी.

बीजेपी के ऐसे इतिहास से आप समझ सकते हैं कि क्यों पीएम मोदी का विकास मंत्र यूपी में फुस्स हो सकता है. यूपी बीजेपी का चरित्र विकास की छवि से बिल्कुल मेल नहीं खाता। इसमें यूपी के लोगों का दोष नहीं है अगर वो विकास के नाम पर मायावती और अखिलेश राज को याद करें.

सपा-बसपा ने किया यूपी का विकास

राजनीतिक हलचलों के गढ़ में विकास की रफ्तार 2007 के बाद दिखनी शुरु हुई. लखनऊ में बने दर्जनों व्यवस्थित बाग-बगीचे और झिलमिलाते पार्क अब इतना फल-फूल चुके हैं कि शहर देश के खूबसूरत शहरों में से एक बन गया है. नोएडा और ग्रेटर नोएडा के साथ राज्य की राजधानी में मेट्रो ट्रेनों का जाल बिछ रहा है. आगरा और लखनऊ को जोड़ने वाला छह लेन का सुपर एक्सप्रेसवे बनकर तैयार है. इसके साथ ही राज्य के 44 जिला मुख्यालयों को लखनऊ से जोड़ने वाला 4 लेन हाइवे जल्दी ही हक़ीकत बनने वाला है.

यूपी में विकास के इन नज़ारों के बीच एक हकीकत ये भी है कि मायावाती और अखिलेश दोनों के ही मुख्यमंत्री रहते राज्य के राजस्व में बढ़ोत्तरी हुई. अपने दौर के विकास कार्यों पर बोलने के लिए दोनों के पास बहुत सारी बातें हैं. लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि इनके लिए चुनावी गणित आसान है. अखिलेश के सामने खराब लॉ एंड ऑर्डर का सवाल बड़ा है तो मायावती के दलित वोट बैंक में बीजेपी की सेंध ने भारी मुश्किल खड़ी कर दी है.

यूपी के सियासी उलझनों को समग्रता में समझना आसान नहीं है. क्या होगा ? इस सवाल का कोई तय जवाब नहीं हो सकता. वैसे भी हम ज्योतिषी नहीं हैं और न ही ऐसे सैफोलॉजिस्ट हैं. जिनके हवा हवाई दावों की लखनऊ से लेकर वाशिंगटन तक फजीहत उड़ती है, लेकिन इसमें भी वो मज़े लेने का मौका नहीं छोड़ते.