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यूपी में ‘देवी’ की ‘माया’ के आगे नतमस्तक बीजेपी 

यूपी चुनाव में बीजेपी आजमाई और परखी हुई रणनीति को लेकर लापरवाह है.

Kinshuk Praval

क्रिकेट की तरह राजनीति भी एक खेल है. यहां अपने दम पर बड़ी जिम्मेदारी निभानी होती है. दिमाग और दांव के इस खेल में अपनी कमजोरियों को मजबूती में बदलना होता है .


लेकिन यूपी के चुनावी अखाड़े में बीजेपी का खेल समझ से परे है. बीजेपी की रणनीति में पेंच दिखाई दे रहे हैं, जो बीजेपी नेतृत्व की योग्यता पर सवाल खड़ा करते हैं .

दरअसल बीजेपी जाति की जमीन पर जंग जीतने का सपना देख रही है. जबकि सूबे में जाति की राजनीति पर बीजेपी की पकड़ कमजोर दिख रही है. साफ है कि बीजेपी अपनी असली ताकत का इस्तेमाल नहीं कर रही है.

यूपी को जातिगत समीकरणों के हिसाब से देश का सबसे बड़ा और जटिल राज्य माना जाता है. यहां के जाति समीकरणों में बीजेपी उलझती दिख रही है.

पार्टी जाति के गणित को समझने में अपनी कमजोरी को मान नहीं रही. बीजेपी की चुनावी रणनीतियां खुद को ही धोखा देने जैसी है.

बसपा सुप्रीमो मायावती पर दयाशंकर की अभद्र टिप्पणी ने सियासत में भूचाल ला दिया. हालांकि बीजेपी को लगता है कि बयान से उठे बवाल से कोई असर नहीं पड़ेगा. लेकिन इस सोच से बीजेपी यूपी में पिछले दो दशकों में आए सामाजिक बदलावों की अनदेखी कर रही है.

मायावती को एक साधारण दलित नेता नहीं माना जा सकता. उनकी तुलना दूसरे अंबेडकरवादी या दलबदलू राम विलास पासवान से नहीं की जा सकती.

दलित और अन्य पिछड़ा वर्ग के बीच उनका ऊंचा कद है. ये कद महज एक इत्तेफाक से नहीं बढ़ा. बल्कि इसके पीछे कई दशकों की कड़ी मेहनत छिपी है.

इसी कद की वजह से उनके पीछे समर्थकों की सेना तैयार हुई. मायावती के लिये उनके भक्तों की श्रद्धा को अंधभक्ति नहीं कहा जा सकता है.

मायावती खुद को दलितों की देवी बताती हैं तो इसे केवल डींग हांकना नहीं माना जा सकता है. भले ही यह कुलीन वर्ग की भावनाओं को आहत करता हो लेकिन मायावती के समर्थकों को इसमें कुछ भी गलत नहीं दिखता.

अहंकार या आत्ममुग्धता

‘लोग मुझे सिर्फ बहन की तरह ही नहीं बल्कि देवी भी मानते हैं’

मायावती का ये बयान अहंकार या आत्ममुग्धता नहीं है. ये दर्शाता है कि  समर्थकों ने किस तरह से मायावती की छवि को अपनाया है.

आखिर मायावती ने खुद की इतनी बड़ी शख्सियत कैसे तैयार की? इसके जवाब के लिए एक लंबी दूरी तय करनी होगी.

नवाबों की नगरी लखनऊ के आसपास मौजूद पेरियार, झलकरीबाई और दूसरे स्मारकों की यात्रा कीजिए तो सारे जवाब मिल जाएंगे.

मायावती ने रूढ़ीवाद के धुर विरोधी और दलित नायकों के स्मारकों का निर्माण कराया. इसके पीछे की मंशा एक नई विचारधारा को बुनना था, जो कि बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद हिंदुत्व की लहर के बरक्स हो.

जल्द ही ये नई सोच यूपी में दलित-सम्मान की गूंज बन गई. अपने राजनीतिक गुरु कांशीराम के साथ मायावती ने दलित समाज के नायकों की तलाश की.

इसके जरिये उन्होंने दलितों में सम्मान की भावना भरी. मायावती यूपी की राजनीति में उपेक्षित समाज की नायिका के तौर पर उभरीं.

मायावती के दलित-दांव ने राज्य के सामाजिक संतुलन को हमेशा के लिये बदल कर रख दिया.

एक राजनीतिक वर्ग के लिए मायावती असभ्य और गंवार हो सकती हैं. तो  कुलीन वर्ग के शिष्टाचार से मेल न खाने वाली महिला भी. लेकिन इन सबसे बेपरवाह मायावती ने अपनी अलग ही शैली अपनाई, जिसे निर्वाचन क्षेत्र में लोगों ने हाथों हाथ लिया.

मायावती का वो अंदाज देखिए, जिसमें उन्होंने जन्मदिन के मौके पर होने वाले चंदे का बचाव किया.

राज्यसभा में बहस के दौरान मायावती ने दो टूक कहा – 'हम पैसों के लिये बड़े उद्योगपतियों की तरफ नहीं देखते हैं, इसलिए अपने कार्यकर्ताओं से चंदा लेते हैं.'

मायावाती का ये तार्किक बयान है. जो नैतिकता के आधार पर दूसरे राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियों से ऊपर ले जाता है.

वैकल्पिक लहर

दयाशंकर सिंह की अभद्र टिप्पणी को उन्होंने किसी मंझे हुए राजनेता की तरह झपट लिया. उसे दलित और महिला सम्मान से जोड़कर भुनाने में देर नहीं की.

अपने निर्वाचन क्षेत्र में बीजेपी का डर दिखाया. दलित वोट बैंक को मजबूत करने की नीयत से मुद्दे को बढ़ा-चढ़ा कर उठाया.

दयाशंकर सिंह की विवादित टिप्पणी के घंटे भर के भीतर ही मायावती सियासी दांव चल चुकी थीं. इससे पहले की बीजेपी बयान से होने वाले नुकसान को समझ पाती मायावती उसे पटखनी दे चुकी थीं.

मायावती साल 2014 के लोकसभा चुनाव के नतीजों से परेशान थी. हिंदुत्व के नाम पर दलित जनाधार बीएसपी से टूट रहा था. लेकिन ये मानना गलत होगा कि बीएसपी से दलित वोट बैंक पूरी तरह कट गया था.

दरअसल साल 2014 में ‘मोदी उदय’ के समय देशव्यापी राजनीतिक लहर बनी थी. उस लहर का असर क्षेत्रीय इलाकों में भी महसूस किया गया.

इसलिए साल 2014 में मायावती की हार का मतलब जातीय वोटबैंक का टूटना नहीं माना जा सकता.

बीजेपी नेतृत्व पिछले लोकसभा चुनाव के नतीजों का बारीकी से विश्लेषण नहीं कर पाया. पार्टी यूपी में मतदाताओं के बीच अपनी पैठ बना सकती थी. अगर यहां वैकल्पिक लहर तैयार की होती.

इसके बजाए बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह जाति की चौसर पर राजनीतिक दांव चल रहे हैं. बीजेपी में उस आत्मविश्वास की कमी है, जिसके बूते 2014 का चुनाव जीता गया था.

अमित शाह दलित नेताओं को रिझाने में ज्यादा भरोसा कर रहे हैं. उनको लगता है कि इन नेताओं का अपना वोटबैंक है.

दलितों के घर में समरसता भोज या फिर बौद्ध भिक्षुओं को लामबंद करना – इस तरह की प्रतीकात्मक राजनीति राहुल गांधी के लिए छोड़ देना चाहिए.

यूपी में दलित इस तरह के प्रतीकों से कोसों दूर जा चुके हैं. वो पिछले दो दशकों में एक बार नहीं बल्कि चार बार राजनीतिक सत्ता पर कब्जा जमा चुके हैं.

पहचान/जाति की राजनीति में मायावती की ताकत का मुलायम सिंह यादव और उनकी समाजवादी पार्टी के साथ मिलान हो सकता है.

अनुभवी लोहियावादी मुलायम सिंह यादव यूपी में जातीय समीकरणों को समझने और उसे बनाने में कमाल का हुनर रखते हैं. मुलायम के राजनीतिक दांव किसी अभेद्य किले की तरह होते हैं.

जाति की राजनीति के दो धुरंधर मायावती और मुलायम सिंह से घिरे बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह पार्टी की लय खो रहे हैं, और करीबी विरोधियों की नकल करने की कोशिश कर रहे हैं.

बीजेपी की इसी रणनीति के चलते बिहार विधानसभा चुनाव में उनकी हार हुई थी. बिहार में जाति की राजनीति के दो दिग्गज नीतीश और लालू प्रसाद यादव ने बीजेपी को मात दे दी थी.

राजनीति की पिच पर अपने फेवरेट स्ट्रोक से बाहर जाकर खेलना बीजेपी को भारी पड़ सकता है. बीजेपी का सपना झन्न से टूट भी सकता है.