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परवीन शाकिर: जिसने ग़ज़ल के रंगों को अपनी शायरी से जगमगा दिया

परवीन शाकिर, यानी एक लड़की, जो शिद्दत से प्यार करती है और उतनी ही तीव्रता से ठुकराई जाती है.

Nazim Naqvi

मैं वो लड़की हूं

जिसको पहली रात


कोई घूंघट उठा के ये कह दे –

मेरा सब कुछ है तेरा, दिल के सिवा !

आज ये लड़की 65 बरस की हो गई. दुनिया इसे परवीन शाकिर के नाम से जानती है. एक शायरा. ये लेखक जब कभी परवीन शाकिर के बारे कुछ भी लिखने के लिए कलम उठाता है उसे हर बार लखनऊ की एक शायरा दाराब बानो ‘वफ़ा’ का ये शेर अनायास याद आ जाता है –

मैंने इस खौफ़ से बोये नहीं ख़्वाबों के चिराग

कौन इस दश्त में इन पेड़ों को पानी देगा

ये साहित्य की अदब की बातें हैं, और शायद ‘वफ़ा’ भी इस अदब में, खासतौर से शायरी में  महिलाओं के प्रतिनिधित्व पर अपने उक्त शेर के बहाने सवाल उठा रही थीं. शायरी की दुनिया पर मर्दाना हुकूमत हमेशा रही. हमारी गुफ्तुगू में जब कभी कोई बात हुई तो मीर, ग़ालिब, इकबाल, फैज़, मजाज़, जोश, साहिर जैसे नामों का ही बोलबाला रहा. औरत की बात मर्द ही करते रहे. मजाज का एक मशहूर शेर जो उन्होंने औरत को संबोधित करते हुए लिखा- तुम्हारे तन पे ये आंचल बहुत ही ख़ूब है, लेकिन/तुम इस आंचल से एक परचम बना लेतीं तो अच्छा था.

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मजाज की दुआ कुबूल हुई. एक लड़की ने जनम लिया और 70 और 80 की दहाई में महिलाओं के एहसासात को, उनकी अनुभूति को, एक परचम बनाकर पेश किया.

काश मेरे पर होते

काश मैं हवा होती

मैं नहीं मगर कुछ भी

संग-दिल रिवाजों के

आहिनी हिसारों में (लोहे की चारदीवारी में)

उम्र-कैद की मुल्ज़िम

सिर्फ़ एक लड़की हूं

धीमी-धीमी आंच में लिपटी उसकी आप-बीती और जग-बीती ने एक छलांग में सदियों का फासला तय किया और ग़ज़ल के रंगों को अपने हसीन शेरों से जगमगा दिया. साहित्यकारों और अदीबों का चौंकना लाजिम था क्योंकि परवीन शाकिर वो पहली महिला-शायरा थी जिसने ‘लड़की’ शब्द को साहित्य का एक हिस्सा बना दिया.

लड़कियों के सुख अजब होते हैं और दुःख भी अजीब

हंस रही हैं और काजल भीगता है साथ-साथ

कभी-कभी महसूस होता है कि ये पूरी कायनात, पूरी सृष्टि पुरुष-प्रधान है, यहां इश्वर, अल्लाह, गॉड, सभी पुलिंग हैं. इसलिए कुदरत ने परवीन शाकिर को जल्दी बुला लिया, महज 42 साल की उम्र में, हो सकता है उसे खतरा पैदा हो गया हो कि जिस तरह वह आधी-दुनिया की हकीकत से पूरी दुनिया को वाकिफ करा रही थी. कहीं वो सारे राज न खोल दे.

शोर मचाती मौजे-आब

साहिल से टकरा के जब वापिस लौटी तो

पांव के नीचे जमी हुई चमकीली सुनहरी रेत

अचानक सरक गई!

कुछ कुछ गहरे पानी में

खड़ी हुई लड़की ने सोचा

ये लम्हा कितना जाना-पहचाना लगता है !

परवीन शाकिर, यानी एक लड़की, जो शिद्दत से प्यार करती है और उतनी ही तीव्रता से ठुकराई जाती है. . इसी आधुनिक संवेदनशीलता के साथ प्राचीन परंपरा के अद्भुत संयोजन का एक नाम है वो. उससे पूछो कौन? तो कहती है, एक लड़की.

परवीन का जन्म 24 नवंबर 1952 में हुआ, पहला संग्रह ‘खुशबू’ 1976 में प्रकाशित हुआ और 1994 में वो एक सड़क हादसे में खामोश हो गई. कितना छोटा सा सफर है ये, और इसमें अगर उसकी शायरी पर बात की जाए तो उसकी उम्र 20-25 साल से ज्यादा नहीं लगती. लेकिन ये 20-25 साल सैकड़ों सालों से भी बड़े लगते हैं.

परवीन पढ़ी लिखी महिला थीं, उन्होंने अंग्रेजी साहित्य में M.A किया था, बैंकिंग में P.H.D थीं और पाकिस्तान इनकम-टैक्स विभाग में उच्च-अधिकारी थीं.

तुम्हारा कहना है

तुम मुझे बेपनाह, शिद्दत से चाहते हो

तुम्हारी हयात

विसाल की आखिरी हदों तक

मेरी फ़क़त मेरी नाम होगी

मुझे यकीन है, मुझे यकीन है

मगर क़सम खाने वाले लड़के

तुम्हारी आंखों में एक तिल है !

परवीन की एक करीबी सहेली और खुद एक शायरा, शाहिदा हसन ने कभी किसी बातचीत में कहा था – ‘परवीन स्वाभाविक रूप से ज्ञान-प्रेमी थीं. उन्होंने जिस शिद्दत और सच्चाई के साथ शायरी में अपनी शख्सियत और जज़्बात का इज़हार किया वो आप-बीती से जग-बीती बन गया. शालीनता का दमन थामकर बेबाकी से अपनी बात कहने का उनका ढंग, निराला था जिसने नौजवान लड़कियों को बहुत अन्दर तक प्रभावित किया’.

कमाल-ए-ज़ब्त (धैर्य की सीमा) को खुद भी तो आजमाऊंगी

मैंने अपने हाथ से उसकी दुल्हन सजाऊंगी

परवीन की शायरी का खुले दिल के साथ स्वागत हुआ. उसकी असमय मृत्यु के बाद आज उन्हें उर्दू की सबसे बेहतरीन और सबसे प्रमुख शायरा माना जाता है. वह स्वाभाविक रूप से संवेदनशील और रचनात्मक कल्पना की प्रतिभाशाली थी. परवीन ने बहुत ही कम उम्र में लिखना शुरू कर दिया था और महान शायर अहमद नदीम कासमी ने उनकी कविताओं में कविता का भविष्य देखा और उस युवा लड़की के पिता-तुल्य गुरु बन गए.

चलते-चलते उनकी एक नज़्म और उनका एक वीडियो, फर्स्टपोस्ट के पाठकों के लिए. इस एक शेर के साथ-

टपक पड़ते हैं आंसू जब तुम्हारी याद आती है

ये वो बरसात है जिसका कोई मौसम नहीं होता

उसके कंवल हाथों की खुशबू

कितनी सब्ज़-आँखों ने पीने की ख्वाहिश की थी

कितने चमकते बालों ने

छुए जाने की आस में कैसा कैसा खुदको बिखराया था

कितने फूल उगाने वाले पांव

उसकी राह में अपनी आखें बिछाए फिरते थे

लेकिन वो हर ख्वाब के हाथ झटकती हुई

जंगल की मगरूर हवाओं की सूरत

अपनी धुन में उड़ती फिरती

आज – मगर

सूरज ने खिड़की से झांका तो

उसकी आँखें पलकें झपकना भूल गयीं

वो मगरूर सी, तीखी लड़की

आम सी आंखों, आम से बालों वाले

एक अक्खड़ परदेसी के आगे

घुटनों पर बैठी

उसके बूट के तस्मे बांध रही थी !