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सच में संगीत के 'भीम' थे पंडित भीमसेन जोशी

पंडित जी का संगीत अमर है. चाहे शास्त्रीय संगीत हो, चाहे भजन..

Shailesh Chaturvedi

कहानी धारवाड़ जिले के रोन की है. कर्नाटक में एक छोटी सी जगह. एक बच्चा रोज स्कूल से आने में देर करता था. पिता गुरुराज को फिक्र होती थी. उन्होंने कई बार पूछा. बच्चे ने टाल दिया.

पिता चिंतित थे कि कहीं बेटा गलत संगत में तो नहीं पड़ गया. एक दिन वो बाजार गए. कुछ सामान खरीदने. बाजार में एक दुकान थी. ग्रामोफोन की. गुरुराज जी सामने से निकले, तो दुकानदार ने उन्हें बुलाया और कहा कि मास्टर, आपका बेटा बहुत अच्छा गाता है. गुरुराज जी चौंके. दुकानदार ने उनसे कहा कि अरे आपको नहीं पता कि आपका बेटा गाता है?


गुरुराज जी को समझ नहीं आया कि दुकानदार क्या कह रहा है. उन्होंने पूछा कि तुमने मेरे बेटे को गाते हुए कब सुना? दुकानदार ने बताया कि स्कूल बंद होते ही वो दुकान पर आकर बैठ जाता है. मैं उसके लिए एक रिकॉर्ड बजा देता हूं. वो एक रिकॉर्ड कई बार सुन चुका है. उसे सब रट गया है. वो अब ठीक वैसे ही गाता है, जैसे रिकॉर्ड में गाया गया है.

यह पहला मौका था जब गुरुराज जोशी को पता चला कि उनका बेटा भीमसेन गाता है. भीमसेन यानी भीमसेन जोशी, जिनके सुर का चढ़ाव आकाश छूता था.

जहां सुर लगे, वहीं कदम थम जाते थे

भीमसेन गुरुराज जोशी.... जब तक दुनिया रहेगी, संगीत रहेगा... और जब तक संगीत रहेगा, यह नाम लोगों को याद रहेगा. पिता गुरुराज जोशी शिक्षक और भाषा के ज्ञानी थे. उन्होंने कन्नड़-इंग्लिश डिक्शनरी तैयार की थी. मां गोदावरी बाई गृहिणी थीं. भीमसेन 16 भाई बहनों में एक थे. मां की मौत काफी जल्दी हो गई थी. पिता ने दूसरी शादी की, तो पालने वाली मां जन्म देने वाली से अलग थीं.

बचपन से ही संगीत का ऐसा शौक था कि जहां सुर लगे, वहीं बालक भीमसेन के कदम थम जाते थे. वैसे भी अगर कोई धारवाड़ के आसपास का है, तो संगीत से जुड़े बगैर कहां रह सकता है. इस जगह से सिर्फ भीमसेन जोशी ही नहीं हैं.

अगर आप एक छोटे से इलाके को देखें, तो पाएंगे कि तमाम महान संगीतकार यहां से निकले हैं. चाहे वो सवाई गंधर्व हों, पंचाक्षरी गवाई, मल्लिकार्जुन मंसूर, गंगूबाई हंगल, बसवराज राजगुरू... धारवाड़ से थोड़ा बाहर निकलें, तो लिस्ट में कुमार गंधर्व को इसमें शामिल कर सकते हैं.

भीमसेन जी बच्चे ही थे, जब उन्होंने अब्दुल करीम खां की ठुमरी पिया बिन नहीं आवत चैन सुनी और फिर गाई थी. इसी दौरान उन्होंने पंडित सवाई गंधर्व को सुना, जिन्होंने कुंडगोल में परफॉर्म किया. 11 साल की उम्र में भीमसेन धारवाड़ से निकलकर बीजापुर आ गए. वो अपने लिए गुरू तलाश रहे थे. एक और कहानी के अनुसार वो झगड़ा करके घर छोड़ आए थे. वजह यह थी कि उन्होंने खाने में एक और चम्मच घी डालने को कहा, जिसके लिए मां ने मना कर दिया.

खैर, वो पुणे पहुंचे... उसके बाद ग्वालियर गए. वहां माधव संगीत स्कूल पहुंच गए, जो ग्वालियर के महाराज चलाते थे. प्रसिद्ध सरोद वादक हाफिज अली खां की मदद से.

भीमसेनजी तीन साल उत्तर भारत में घूमे, जिसमें दिल्ली, ग्वालियर, लखनऊ, रामपुर और साथ में कलकत्ता भी. यात्रा में कई बार उन्हें जेल भी जाना पड़ा, क्योंकि वो बिना टिकट होते थे. वो जोर-जोर से गाना गाते थे. कई टिकट कलेक्टर तो उनका गाना सुनकर छोड़ देते थे. लेकिन बाकी लोगों को शायद गाने का शौक नहीं था, तो भीमसेन को जेल में वक्त गुजारना पड़ता था.

सवाई गंधर्व से मिली शिक्षा

साल 1936 आ गया था. धारवाड़ के सवाई गंधर्व ने भीमसेन जोशी को अपना शिष्य बनाने की रजामंदी दे दी. गुरू-शिष्य परंपरा के तहत भीमसेन अपने गुरू के घर में रहे. इसी दौरान एक वाकया हुआ, जो भीमसेन जोशी की लगन दिखाता है. पिता कुंडगोल पहुंचे, जहां सवाई गंधर्व रहा करते थे. वो बस देखने आए थे कि बेटे की शिक्षा कैसी चल रही है.

पिता पहुंचे, तो देखा कि बेटा एक बड़ा बर्तन उठा रहा है, जिसमें पानी भरा है. उसकी आंखें सुर्ख लाल हैं... माथे पर नसें चमक रही हैं. सांस लेने में दिक्कत हो रही है, तो मुंह से सांस ले रहा है. पिता घबरा गए. बेटे के पास गए- अरे क्या हुआ? भीमसेन ने जवाब दिया- मुझे बुखार है.

पिता सीधे गुरु यानी सवाई गंधर्व के पास पहुंचे. उनसे नाराजगी में कहा कि उसे बुखार है और आप उससे पानी भरवा रहे हैं? गुरू थोड़ी देर शांत रहे, फिर कहा- अगर आपको मेरे सिखाने का तरीका पसंद नहीं, तो अपने बेटे को घर ले जा सकते हैं. तब तक भीमसेन वहां पहुंच गए थे. वो पिता को खींचते हुए कोने में ले गए. उनसे कहा- मैं यहां बहुत खुश हूं. आप चिंता न करें और ऐसे सवाल न उठाएं.

भीमसेनजी ने करीब चार साल वहां संगीत सीखा. वो लोगों को अपनी पीठ दिखाते थे, जिस पर निशान पड़े हुए थे. वो कहते थे कि मेरा संगीत सिर्फ रियाज की वजह से नहीं है, वो गुरू के लिए तालाब से पानी भरने की वजह से भी है. पानी भर के लाने की वजह से उनकी पीठ पर निशान पड़े थे.

हम उन लोगों का परिचय पंडित भीमसेन जोशी से कराना चाहते हैं, जो इस दौर के हैं. जिनका शास्त्रीय संगीत से उस किस्म का जुड़ाव नहीं है. जो पंडित जी को मिले सुर मेरा तुम्हारा की वजह से जानते हैं. इसीलिए भारत रत्न को संगीत के बजाय उनके जीवन से जुड़े किस्सों से समझने और समझाने की कोशिश है.

उन्हें 1972 में पद्म श्री, 1985 में पद्म भूषण, 1998 में संगीत नाटक अकादेमी फेलोशिप दिया गया. 1999 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया. फिर 2008 में भारत रत्न यानी देश के सबसे बड़े नागरिक सम्मान से नवाजा गया.

19 साल की उम्र से पंडित जी ने पब्लिक परफॉर्मेंस देने का सिलसिला शुरू किया. वो चलता रहा. भले ही अब वो इस दुनिया में न हों, लेकिन हम कहते ही हैं कि संगीत कभी मरता नहीं. 88 साल की उम्र में 24 जनवरी 2011 को लंबी बीमारी के बाद पंडित भीमसेन जोशी का निधन हो गया. लेकिन पंडित जी का संगीत अमर है. चाहे शास्त्रीय संगीत हो, चाहे भजन.. चाहे बसंत बहार जैसी फिल्मों का फिल्म संगीत.

(ये लेख हमने 6 फरवरी, 2017 को पहली बार प्रकाशित किया था. इसे भीमसेन जोशीजी  की पुण्यतिथि पर हम दोबारा प्रकाशित कर रहे हैं.)