कृष्णा सोबती हमारे समय की बेहद महत्वपूर्ण लेखिका हैं. मित्रों मरजानी, डार से बिछुड़ी, ऐ लड़की, जिंदगीनामा और दिलो-दानिश जैसी कई अहम कृतियां उन्होंने लिखी हैं. 1925 में जन्मी कृष्णा सोबती की आजादी के पहले और बाद की तमाम यादें हैं. उन्होंने हिंदुस्तान की आजादी की पहली सुबह को देखा है. हाल ही में उनका एक उपन्यास गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान तक प्रकाशित हुआ है, जो कृष्णा सोबती की जिंदगी का जिया हुआ एक हिस्सा है.
अपने देश की खूबियों और कमजोरियों को एक साथ देखें
अपने बचपन के दिनों को याद करते हुए कृष्णा सोबती कहती हैं- 'मुझे अब भी याद है कि गुजरात में सोबती स्टेट हुआ करता था. वहां चेनाब और झेलम नदियां हैं. वो इलाका इसलिए मशहूर था क्योंकि अंग्रेज भारत में हर जगह आ गए थे लेकिन पूरे सौ साल के बाद वो पंजाब को जीत पाए थे. हम लोगों को बचपन में जलियांवाला मैदान दिखाया जाता था. जब भी हम उस तरफ गए हमारे घर के बड़े लोगों ने हमें बताया कि देखो ये वो मैदान है जहां पर हमारी सेनाओं ने पहली दो लड़ाइयां जीती थीं. हम तीसरी लड़ाई हार गए थे. बचपन से ही हमारे घरवालों ने सिखाया कि हम अपने देश की खूबियों और कमजोरियों को एक साथ देखें. वही नजर अब भी कायम है.'
1947 की आजादी और उसके बाद की घटनाओं को वो याद करती हैं- '1947 में आजादी अपने साथ-साथ विभाजन का दर्द लेकर आई थी. हम लोगों के घर और जमीनें उस तरफ थीं. वो इतनी बड़ी घटना थी कि उसके बारे में सोच कर अब भी मन घबरा जाता है. मुझे रोते चेहरे याद हैं. कई लोग अपना पूरा का पूरा परिवार खोकर इधर आए थे.'
कृष्णा जी बताती हैं, 'हम लोगों के घर के बाहर एक चौकीदार रहते थे. एक दिन वो घबराए हुए आए और कहने लगे कि आप लोग कहीं बाहर मत निकलना. सुना है गांधी जी को गोली मार दी गई है. उस वक्त तक किसी को भी ये नहीं पता था कि आखिर गांधी जी को गोली मारी किसने? उन्हें रिफ्यूजी ने मारा, किसी मुसलमान से मारा या किसने मारा? उन्हीं दिनों रेडियो नया-नया आया था. अचानक रेडियो पर एनाउंसमेंट हुई कि एक बहुत बड़ी खबर के लिए तैयार रहिए. उसके बाद कुछ ही सेकेंड में ये बताया गया कि महात्मा गांधी को एक हिंदू ने गोली मार दी है.'
जो आजादी हमें मिली है, उसको कोई छीन नहीं सकता
उन दिनों को याद करते हुए कृष्णा सोबती आगे कहती हैं, 'इस घटना से अलग एक सच यह भी है कि उस समय जो लोग कैंप में रह रहे थे, इधर-उधर रह रहे थे, उन्हें भी इस बात का अंदाजा था कि जो आजादी हमें मिली है, वो बहुत बड़ी चीज है. उसको उनसे कोई छीन नहीं सकता है. मुझे याद है कि आजादी के बाद हम लाल किले को देखने भी गए थे.'
अपने बचपन को याद कर के कृष्णा सोबती कहती हैं- 'हमारे सामने देश में इतना कुछ हुआ जिसे समझने की सही तालीम दी गई थी. मैं उन दिनों लाहौर में पढ़ रही थी. लाहौर के मुकाबले उस वक्त दिल्ली को गांव माना जाता था. लाहौर की बात ही अलग थी. हां, लेकिन दिल्ली उस वक्त बहुत साफ थी. बहुत खूबसूरत. उस समय दिल्ली की सड़कों की सुबह-शाम बाकायदा धुलाई हुआ करती थी. पुरानी दिल्ली को उस वक्त शहर माना जाता था. मेरी किताब ‘दिलो-दानिश’ दिल्ली शहर की ही कहानी है.'
दिल्ली के बारे में बात करते हुए वह कहती हैं, 'मेरे खयाल से नई दिल्ली और पुरानी दिल्ली का ‘टेक्सचर’ बिल्कुल अलग है. इसे समझने के लिए भी बहुत समझ होनी चाहिए. इसी तरह ‘डार से बिछुड़ी’ का किस्सा मुझे याद है. मेरे एक दाऊ साहब थे. विभाजन के वक्त की ही बात है. वो किसी कैंप से हमारे घर आए थे. दाऊ साहब लंबे-चौड़े, हट्टे कट्टे. जब वो घर आए तो उनके कपड़े कीचड़ में सने हुए थे. मां ने देखा और कहा कि जब तक मैं चाय बनाती हूं आप नहा लीजिए.
मुश्किल वक्त में भी बाप-बेटी के रिश्ते को सोचकर चेहरे पर मुस्कान आई
वो आगे बताती हैं, 'दाऊ साहब ने कहा कि मेरे पास कपड़े नहीं हैं. मां बोली कि आप बिल्कुल फिक्र मत कीजिए मैं आपको दीवान साहब के कपड़े दूंगी, आप पहले नहा लीजिए. दाऊ साहब नहाकर आए. मां ने इतनी देर में उनके कपड़े अच्छी तरह साफ भी कराए. थोड़ी देर में चाय लग गई. दाऊ साहब के कपड़े सुखाए गए उसको इस्त्री (आयरन) किया गया. शाम को जब वो जाने लगे तो कहने लगे कि मैं अपनी बेटी से मिलने जाना चाहता हूं. मेरे कपड़े साफ नहीं थे इसलिए मैं बहुत संकोच कर रहा था. उनके दामाद चीफ ऑफ स्टाफ नागेश जी थे. जो दक्षिण भारतीय थे. दाऊ साहब ने कहा कि अब तो कपड़े साफ हो गए हैं मैं अपनी बेटी से मिल आता हूं. फिर उन्होंने जेब में हाथ डाला. जेब खाली थी. मां समझ गई कि उन्हें बेटी के यहां खाली हाथ जाने में शर्म आ रही है. मां ने कुछ पैसे लाकर उन्हें दिए और कहा कि बेटी को हम लोगों की तरफ से प्यार दीजिएगा. उस मुश्किल वक्त में भी बाप-बेटी के इस रिश्ते को सोचकर लोगों के चेहरे पर थोड़ी मुस्कान आई.'
(शिवेंद्र कुमार सिंह से बातचीत पर आधारित)