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जब जाबांज पुलिस अफसर ने मां के लहंगे में दुबके खूंखार डाकू को दबोच लिया!

सन् 1974 से पहले कोहराम मचाने के बाद भी हाब्बू खान तक पुलिस के हाथ महज इसलिए नहीं पहुंच पाए थे, क्योंकि उसके गैंग में दूसरा कोई डकैत नहीं था और वो अमूमन घोड़े पर अकेला ही चला करता था

Sanjeev Kumar Singh Chauhan

‘तुम डाल-डाल, हम पात-पात’ जैसी लुका-छिपा की कहावत अपराधी और पुलिस के बीच कालांतर से चली आ रही है. जब जिसका दांव लगता है, वही (पुलिस-अपराधी) दुश्मन को पटखनी देकर पहले दबोचने की जुगत में रहता है. नजर दोनों की ही एक-दूसरे से कहीं ज्यादा पैनी होती है. अपराधी वारदात को अंजाम देकर चला जाता है, तब पुलिस-पड़ताल शुरु होती है.

वारदात के बाद अपराधी आगे-आगे और पुलिस पीछे-पीछे होती है. जब अपराधी कानून के शिकंजे में आ जाता है, तो पुलिस की चाल बदल जाती है. कुछ ऐसे ही उतार-चढ़ावों से गुजरी ‘तफ्तीश’ की बानगी पेश की जा रही है देश की राजधानी दिल्ली और देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश से जुड़ी ‘पड़ताल’ की इस कड़ी में. जिसमें मां के जम्फर (लंहगे) में दुबके बैठे खूंखार डाकू को भी दबोच कर ले आई थी पुलिस. अब से पूरे 44 साल यानी करीब चार दशक पहले सन् 1974 में.


‘सुंदर’ डाकू का ‘खूंखार’ चेहरा देखने को तरसती थी पुलिस

जिस जमाने में हुई इस पड़ताल का हम चर्चा कर रहे हैं, उस जमाने (1970 के दशक) में देश के (दिल्ली, उत्तर-प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, मध्य-प्रदेश) तमाम सूबों में डाकू सुंदर सिंह के नाम का डंका बज रहा था. डाकू सुंदर सिंह से सिर पर हजारों रुपए के इनाम का बोझ पुलिस ने लाद रखा था. इसके बाद भी सुंदर सिंह पांच-छह राज्यों के हाथ नहीं आ रहा था. देश के अधिकांश राज्यों की पुलिस सुंदर की तलाश में गुपचुप तरीके से जुटी रहती थी. सूबे की सरहद में उड़ती-उड़ती खबर सुनकर भी पुलिस वालों की बांछें खिल जाती थीं.

उन दिनों पुलिस के पास संसाधन और ‘मुखबिर-नेटवर्क’ आज के मुकाबले ‘जीरो’ थे. ऐसे में कभी-कभार सुंदर को लेकर थोड़ी-बहुत खबर मिल जाती, पुलिस वाले उसी खबर के पीछे साइकिल से और पैदल ही भागते-दौड़ते कई-कई मील का सफर तय कर जाते. उसी भागम-भाग के दौरान एक दिन दिल्ली पुलिस के हाथ पुख्ता जानकारी लग गई. वो जानकारी सुंदर से संबंधित नहीं, बल्कि सुंदर की ही टक्कर के दूसरे खूंखार इनामी डाकू हाब्बू खान के बारे में थी.

‘हाब्बू’ यानी मीलों पैदल और घोड़े पर चलने वाला डाकू

उस जमाने में हाब्बू खान सुंदर के बाद दूसरे नंबर का वांछित डकैत था. हाब्बू खान और सुंदर में एक फर्क बहुत बड़ा था. सुंदर लूटपाट, डाके डालने के अलावा बेरहमी से इंसान को मार डालने का भी घिनौना काम करता था. मारकाट तो हाब्बू खान भी मचाता था. हाब्बू बस सुंदर से इस मायने में अलग था कि, वो तभी किसी की हत्या तब करता था, जब कोई इंसान डकैती-लूटपाट की वारदात के दौरान उसकी जान का खतरा बनता नजर आता. एक जगह से दूसरी जगह आने-जाने के लिए सुंदर सिंह डाकू जैसी जो सवारी मुहैया होती, उसी का इस्तेमाल करके वारदात करने पहुंच जाता.

हाब्बू खान को दबोचने और सुंदर डाकू को संदिग्ध हालातों में पुलिस कस्टडी से भगाने और फिर उसकी संदिग्ध मौत का बोझ अपने सिर उठाने वाले इंस्पेक्टर (दिल्ली पुलिस के रिटायर्ड पुलिस उपायुक्त डीसीपी) सुखदेव सिंह इन तमाम हैरतंगेज तथ्यों की पुष्टि करते हैं. उनके मुताबिक, ‘हाब्बू खान पैदल या फिर घोड़े पर ही चलता था. जबकि सुंदर एकदम इसके विपरीत था.’

इलाके को लेकर पुलिस में नहीं होती थी जूतम-पैजार

उस जमाने में किन्नरों के इलाके की तरह, किसी भी राज्य की पुलिस में सीमा-रेखा (हद) को लेकर आज की पुलिस की सी सिर-फुटव्वल नहीं थी. पड़ोसी राज्य का वांछित बदमाश अगर दूसरे राज्य की पुलिस पकड़ लेती थी, तो कभी-कभार तो बिना लिखा-पढ़ी के भी उसे संबंधित राज्य पुलिस के हवाले कर दिया जाता था. जैसा कि डाकू हाब्बू खान के मामले में हुआ. गुडवर्क का सेहरा खुद के सिर बांधने की कोई गुत्थम-गुत्था तो बिलकुल ही दो राज्य की या फिर थानों की पुलिस के बीच नहीं थी. जैसे मौजूदा वक्त में एक ही राज्य की पुलिस के दो पड़ोसी थानों के बीच मिल गयी लावारिस लाश की जिम्मेदारी को लेकर जूतम-पैजार होती है, बताते हैं सुखदेव सिंह.

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सुंदर डाकू की तलाश में हाथ धोकर उसके पीछे लगे इंस्पेक्टर सुखदेव सिंह को जब, कुख्यात इनामी डाकू हाब्बू खान के बारे में मुखबिरी हुई, उस वक्त वे पूर्वी दिल्ली जिले के शाहदरा थाने के एसएचओ थे. दिल्ली के पुलिस महानिरीक्षक (इंस्पेक्टर जनरल ऑफ पुलिस) थे पी. आर. राजगोपाल.

हाब्बू का नाम सुनते ही धन्नासेठों की घिग्घी बंध जाती

डाकू हाब्बू खान मूलत: आगरा के पास जिला फिरोजाबाद की हद में स्थित शेखूपुरा का रहने वाला था. हाब्बू खान ने कम उम्र में ही अपराध की दुनिया में पांव बढ़ा दिए थे. 18-19 साल की दहलीज पर पहुंचते-पहुंचते हाब्बू खान का खौफ पब्लिक के साथ-साथ दिल्ली-यूपी पुलिस के भी दिल-ओ-जेहन पर सवार हो चुका था.

हाब्बू खान को दबोचने वाले इंस्पेक्टर सुखदेव सिंह के मुताबिक, ‘अब तक हाब्बू खान ने दिल-दहला देने वाले जितने भी क़त्ल किए या डाका डालने की वारदातों को अंजाम दिया, कभी भी वो किसी भी वारदात में पुलिस के हाथ नहीं आया था. उस जमाने में हाब्बू खान के नाम से पुलिस को पसीना आता सो आता. दिल्ली-यूपी के धन्नासेठों (अमीर) की हाब्बू के नाम से घिग्घी बंध जाती थी.’

हाब्बू खान सिर्फ डाकू नहीं, पुलिस से भी तेज दिमाग का इंसान था

सन् 1974 से पहले कोहराम मचाने के बाद भी हाब्बू खान तक पुलिस के हाथ महज इसलिए नहीं पहुंच पाए थे, क्योंकि उसके गैंग में दूसरा कोई डकैत नहीं था. हाब्बू खान अमूमन घोड़े पर अकेला ही चला करता था. पकड़े जाने के बाद दिल्ली पुलिस ने फौरी तौर पर हाब्बू खान से पूछताछ की. हालांकि बाद में आपसी सहमति से दिल्ली पुलिस ने उसे गाजियाबाद यूपी पुलिस की सुपुर्दगी में दे दिया था. इसलिए हाब्बू खान पर दिल्ली में कभी कोई न्यायिक या पुलिसिया लिखा-पढ़ी नहीं हुई थी.

1970 के दशक में एक फिल्म की शूटिंग के सिलसिले में दिल्ली पहुंचे बॉलीवुड अभिनेता विनोद मेहरा और अपने जमाने की मशहूर अभिनेत्री मौसमी चटर्जी के साथ इंस्पेक्टर सुखदेव सिंह

उस जमाने में दिल्ली-हरियाणा-यूपी (पूर्वी दिल्ली, फरीदाबाद, गाजियाबाद) की पुलिस अपराधियों को दबोचने के लिए अधिकांशत: संयुक्त अभियान ही चलाती थी. पुलिस का वो संयुक्त अभियान अपराध-जगत में ‘सैंडविच-सिस्टम’के नाम से बदनाम (कुख्यात) था. करीब 44 साल पहले सुनी हाब्बू खान की मुंहजुबानी के हैरतंगेज किस्से बताते हैं सुखदेव सिंह. उन दिनों गाजियाबाद में एसएचओ (थाना-प्रभारी) थे ब्रह्मचारी जी.

इसलिए मुश्किल था पुलिस का हाब्बू खान के करीब पहुंचना

दिल्ली पुलिस की पूछताछ में हाब्बू खान ने और भी तमाम सनसनीखेज खुलासे किये थे. मसलन वो गैंग में कभी भी किसी और डकैत को नहीं रखता था. उसकी पहली वजह थी कि, कुछ दिन साथ रहकर छोटे-मोटे गली-मोहल्ले के छुटभैय्ये टाइप आवारागर्द भी उसके नाम का दुरुपयोग करके अपना गैंग खड़ा कर लेते. ऐसे में पुलिस से बचने की तो बात बाद में सोची जाती, अपने ही खिलाफ डाकूओं का दूसरा गैंग खड़ा हो जाता.

दूसरी प्रमुख वजह थी, साथी डाकूओं का पुलिस के साथ मिलकर गैंग की मुखबिरी की आशंका. गैंग में किसी और डाकू को शामिल न किये जाने की प्रमुख वजह थी, डाके में हाथ लगे माल का हिस्सा बाकी डाकूओं को भी देना. सुखदेव सिंह के मुताबिक इन्हीं तमाम शातिर-दिमाग युक्तियों के अमल में लाने की वजह से पुलिस कभी भी हाब्बू खान के पास आसानी से नहीं फटक पाई थी.

लोकल थाना पुलिस ने रात में दबिश देने से रोका हम नहीं रुके

‘हाब्बू खान वाकई अपने घर में छिपा हाथ लग जाएगा. इसकी कतई उम्मीद नहीं थी. हालात और मुखबिर से मिली खबर को मगर नजरंदाज करना भी मुनासिब नहीं समझा. सो शाहदरा थाने की सरकारी जीप में चार हवलदार सिपाही लेकर रात को ही फिरोजाबाद के लिए रवाना हो गया. हाब्बू खान का घर जिस मोहल्ले में था, वहां आपराधिक किस्म के ही लोगों के अधिकांश अड्डे थे. लिहाजा हम दिल्ली से चलकर रात के दो बजे सीधे लोकल थाने में गए. थाने वालों ने लाख समझाया कि, रात के वक्त फलां मोहल्ले में जाना मुसीबत से खाली नहीं है. मैं नहीं माना. मुझे आशंका थी कि, दिन का उजाला निकलते तक घर में छिपे हाब्बू खान को कहीं लोकल थाने की पुलिस ही इशारा करके न भगा दे. सो रात के धुप्प अंधेरे में ही लोकल थाने से इलाके के जानकार सिपाही को लेकर हाब्बू खाने के घर पर मेरी टीम ने दबिश दे दी.’ सुनाते हैं सन् 1974 में अब से करीब चार दशक पहले हाब्बू खान की गिरफ्तारी की मुंहजुबानी, उसे दबोचने वाले सुखदेव सिंह.

खूंखार डाकू खान मां के जम्फर (लंहगे) के भीतर दुबका मिला

‘पुलिस टीम ने तड़के करीब 2-3 बजे धुप्प अंधेरे में डाकू हाब्बू खान के घर पर दबिश दे दी. अचानक आई पुलिस को देखकर घर वाले सकते में थे. साथ में मौजूद लोकल थाने के सिपाही से जब घर वालों को पता चला कि, दबिश देने वाली यूपी नहीं दिल्ली पुलिस है तो, घर मे मौजूद लोगों के होश-फाख्ता हो गए. काफी देर तक घर की तलाशी भी ली मगर हैरत की यह थी कि, कहीं भी हमें हाब्बू खान नजर नहीं आया. निराश होकर हम लौटने लगे. अचानक मेरे दिमाग में ख्याल आया कि, घर के आंगन में जो महिला खड़ी है वो पुलिस के घर में घुसते ही बाहर (कमरों में से आंगन में) आती हुई तो पुलिस पार्टी ने देखी थी, लेकिन उसके बाद से वो आंगन में जहां की तहां स्टैचू बनी खड़ी है. मुझे उसके इस तरह इतनी देर तक एक ही जगह पर खड़े रहने पर शक हो गया. मैं पलट कर उसके पास गया. मैंने करीब जाकर जब पुलिसिया अंदाज में उससे कड़क लहजे में बुत बनकर खड़े होने का कारण पूछा तो, उसकी हकलाई/लड़खड़ाई सी आवाज को मैं ताड़ गया कि, कुछ गड़बड़ जरुर है. इसी बीच महिला द्वारा पहने लंबे-चौड़े जम्फर के भीतर कुछ हरकत हुई. मैने कड़क आवाज में नीचे की ओर गर्दन करके कहा, 'जंफर के भीतर छुपा है बाहर निकल वरना...' इतना सुनते ही हाथ जोड़े हुए खूंखार डाकू हाब्बू खान मेरे पांवों में पड़ गया. जिस औरत ने उसे लंहगे में छिपाया था वह, हाब्बू खान की मां थी.’ हमेशा खाकी के खौफ से बेखौफ रहे, किसी जमाने में धन्नासेठों के लिए खौफ का दूसरा नाम रहे, डाकू हाब्बू खान को दबोचने वाली उस खौफनाक रात की वो, सच्ची कहानी सुनाते हुए जोरदार ठहाका लगाते हैं सुखदेव सिंह.

हाब्बू खान की तलाश में पहुंची पुलिस पार्टी के साथ ही मौजूद रहता बाबू

यह हाब्बू खान जैसे खतरनाक जिगर वाले डाकू की हिम्मत थी कि, जिस गांव में वो डाका डालता था, वहां से निकल कर भागता नहीं था. इसके पीछे उसकी सोच थी कि, डाके के बाद गांव में शोर मच जाएगा. गांव वाले पीछा करेंगे सो अलग. रात में गश्त कर रही पुलिस पार्टी से भी मुठभेड़ होने का पूरा अंदेशा रहता था. लिहाजा हाब्बू खान सोची-समझी रणनीति के तहत उसी गांव में शिकार चुनता था, जहां पहले से उसका कोई परिचित रहता हो. इसके दो फायदे थे. पहला तो यह कि, गांव में मौजूद सबसे मोटी आसामी ( अमीर शिकार जिसके यहां डाका डालने पर ज्यादा से ज्यादा माल मिल सके) का आसानी से पहले पता चल जाता था. दूसरे संभावित शिकार के घर में घुसने और वहां से सुरक्षित निकल भागने के सभी रास्ते बिना मशक्कत पता चल जाते थे.

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इससे तीसरा फायदा यह था कि, डाके में हाथ आया माल तुरंत ढोकर ले जाने की मुसीबत नहीं होती थी. लूट का माल गांव में ही उस मकान में छिपा देता, जिसमें छिपने का इंतजाम होता था. चौथा और अंतिम फायदा यह था कि, वारदात के बाद अगले दिन जब पुलिस घटनास्थल पर पहुंचती तो, भीड़ में डाकू हाब्बू खान खुद भी पूरी ‘पड़ताल’ देखने को मौजूद रहता. उसे अंदाजा लग जाता था कि, पुलिस डाके को लेकर कितनी गंभीर है. या लीपा-पोती करके मौका-ए-वारदात पर मातमपुरसी करके खिसक जाने को उतावली है.

पुलिस पूछताछ में तेज-दिमाग हाब्बू खान ने पांचवा और अंतिम फायदा पुलिस को जो बताया. वो था कि, मौका मुआयना के बाद पुलिस के गांव से निकल जाने के बाद वो घोड़े पर लूट के माल सहित बेफिक्र होकर मंजिल की ओर बढ़ जाता यह सोचकर कि, अब रास्ते में उसे पुलिस का या फिर गांव वालों द्वारा पीछा किए जाने का कोई संभावित खतरा नहीं होगा.

खूंखार खान को दबोचने वाला दबंग पड़ताली खुद भी रहा जेल में

पंजाब के लुधियाना जिले के थाना खन्ना क्षेत्रांर्गत दहेरु गांव में 20 फरवरी सन् 1933 को जन्मे सुखदेव सिंह के किसान पिता, पुलिस की नौकरी के सख्त खिलाफ थे. फिर भी ग्रेजुएट होते ही सन् 1957 में सुखदेव सिंह दिल्ली पुलिस में सहायक उप-निरीक्षक (एएसआई) बन गए. 1960 में नई दिल्ली जिले के तुगलक रोड थाने से थानेदारी शुरु की. 8-10 साल सब-इंस्पेक्टरी करने के बाद 1970-71-72 में इंस्पेक्टर बने तो, जंगल में पहाड़ी पर मौजूद एक मकान की आबादी वाले लाजपत नगर थाने का एसएचओ लगा दिए गए.

दंगों को काबू कर पाने में तमाम अफसरों की नाकामी से परेशान हाल, आईजी पी.आर. राजगोपाल ने जीवट के जुझारु इंस्पेक्टर सुखदेव सिंह को 1974 में संवेदनशील थाना शाहदरा का एसएचओ लगा दिया. इसी बीच कुख्यात डाकू सुंदर सिंह को हिरासत से भगाने के आरोप में सन् 1977 में सीबीआई ने गिरफ्तार कर लिए. कई महीने जेल में रहे. उसके बाद हत्या के दो और मामलों का बोझ खुद के सिर लादे हुए महीनों तिहाड़ जेल और अदालतों के चक्कर काटते रहे. बरी हुए तो दिल्ली पुलिस में उस जमाने में बनी पहली एंटी टेररिस्ट सेल (अब स्पेशल सेल) के पहले डिप्टी पुलिस कमिश्नर (डीसीपी) बने.

सन् 1990 में दिल्ली पुलिस से जब रिटायर हुए तो, तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने एक साल का सेवा-विस्तार (एक्टेंशन) बतौर ‘तोहफा’ सौंप दिया. उसके बाद से पत्नी उपदेश कौर और दोनों बेटियों जॉली सिंह और ज्योतिका सिंह से साथ अमन-चैन की जिंदगी बसर कर रहे हैं. अंत में यहां उल्लेखनीय है कि यह, वही चर्चित पुलिस अफसर सुखदेव सिंह हैं, जिन्हें पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के विश्वासपात्र और अपने जमाने के दबंग पूर्व केंद्रीय मंत्री एच.के.एल. भगत (हरिकिशन लाल भगत, भगत की काफी साल पहले मृत्यु हो चुकी है) आला पुलिस अफसरों की भीड़ में भी दिल्ली पुलिस का ‘मुग़ल-ए-आज़म’ कहकर ही बुलाते थे.

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(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)