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जिस 'खुद्दार' खाकी वाले ने रिश्वत के 500 रुपए की 'दान-पर्ची' मंदिर में कटवा दी!

यह आला-पुलिस अफसर अगर कभी किसी को नाकाबिल-ए-बर्दाश्त हुआ तो वे थे, अपराधी और पुलिस महकमे से जुड़े ऐसे कुछ लोग जो, अक्सर खाकी के ऊपर 'तौहीन' की खाक डालने पर आमादा रहते थे

Sanjeev Kumar Singh Chauhan

इसमें कोई शक नहीं है कि, शर्मसार कर देने वाली तमाम ओछी हरकतों के चलते अक्सर, 'खाकी-वर्दी' को जनता कई तरह के लानत-मलामत के बोझ से लादती रहती है. लेकिन तमाम तोहमतों के बावजूद, पुलिस-महकमे में कुछ गिने-चुने, सख्त-मिजाज मगर रहम-दिल. ड्यूटी के प्रति वफादार और सोच के ईमानदार. जाबांज पुलिस अफसर-कर्मचारी बीते कल में और आज भी मौजूद हैं.

'पड़ताल' की इस किश्त में आपको मैं, बेबाक-बेखौफ रिटायर्ड डिप्टी एसपी की कुछ हैरतंगेज पड़तालों की एक बानगी पेश कर रहा हूं. वो पड़तालें जो करीब 60 साल पहले (1960-70 के दशक में) कानूनी दस्तावेजों में, पुलिस की आने वाली पीढ़ियों के लिए 'नजीर' बन गयीं. वे पड़तालें जिनमें अगर गोली चली भी तो खून-खराबा नहीं हुआ. न लाठी-डंडे के इस्तेमाल की जरुरत पड़ी. न ही गाली-गलौज या मारपीट की नौबत आई. वे पड़ताल जो अंजाम तक पहुंचीं थीं. एक अदद इसी 'पड़ताली' की सूझबूझ के बलबूते, बिना किसी पुलिसिया 'झूठ-फरेब' और 'थर्ड-डिग्री' इस्तेमाल के!


पढ़ते-पढ़ते खोजिए इन्हीं 'पड़तालों' के बीच में कहीं. खाकी के इस 'खुद्दार' का नाम भी. वह इंसान जिसकी जिंदगी, पुलिस की आने वाली पीढ़ियों के लिए, किसी अध्याय, किताब या इतिहास से कहीं आगे बढ़कर है. किसी पवित्र 'ग्रंथ' से कमतर नहीं! अगर यह लिखूं तो भी अतिश्योक्ति नहीं होगी.

40 साल खाकी पर नहीं पड़ने दी 'खाक'

जिन रिटायर्ड डिप्टी एसपी द्वारा 40 साल की पुलिसिया जिंदगी में की गयी, अद्भूत पड़तालों का मैं यहां जिक्र करने जा रहा हूं, आज वो 74 साल के हैं. यूपी पुलिस में 1966 डायरेक्ट सब-इंस्पेक्टर बैच के 'टॉपर' रहे हैं. करीब 14 साल इन्हें यूपी पुलिस में डिप्टी एसपी पद से रिटायर हुए बीत चुके हैं. पूरा यूपी पुलिस महकमा, तमाम आईपीएस से लेकर पूर्व और कई मौजूदा पुलिस महानिदेशक इस दबंग को उसके 'नाम-काम' के जरिये बखूबी जानते-पहचानते हैं. बदनाम खाकी में भी 24 कैरेट के ईमानदार पुलिस महकमे के अपने 'गुरु' या फिर बड़े भाई के रुप में.

आईए अब जिक्र करते हैं इसी अजूबा, मनमौजी, मगर अड़ियल पुलिस अफसर की चुनिंदा एतिहासिक तफ्तीशों यानि 'पड़ताल' की.

1980 के दशक में थाना सेहरामऊ दक्षिण

ये दबंग दारोगा सन् 1981-82 में शाहजहांपुर के सेहरामऊ दक्षिण क्षेत्र थाने का थानाध्यक्ष था. उन दिनों उस इलाके में रहने वाले एक दबंग रहीस ठाकुर साहब सुर्खियों में बने हुए थे. ठाकुर साहब के सुर्खियों में रहने की वजह थी, आन-बान-शान की खातिर ठाकुर साहब द्वारा, बेटी को दहेज में 'हाथी' दिया जाना. ठाकुर साहब की तूती तो इलाके में पहले से ही बोलती थी. जब उन्होंने बेटी को 'हाथी' गिफ्ट किया, तो उनकी शोहरत शाहजहांपुर से आसपास के जिले सीतापुर, बरेली, लखनऊ, हरदोई, बदायूं, पीलीभीत तक में हो गयी.

एक दिन इन्हीं फक्कड़ मगर सख्त-मिजाज थानाध्यक्ष को पुलिसिया मुखबिर ने 'चुगली' कर दी. रसूखदार ठाकुर साहब के पास 'नाजायज' बंदूक घर में मौजूद है. खबर खास थी. मुश्किल यह थी कि, आखिर इलाके के रहीस और रुतबेदार ठाकुर साहब के ऊपर हाथ डाला कैसे जाये? बात बिगड़ गयी तो, खाकी वर्दी और कंधों पर मौजूद पीतल के स्टार (बिल्ले) उतरते देर नहीं लगेगी.

'खाकी' से हासिल इज्जत से खुश हुआ रसूखदार

लिहाजा सख्त-मिजाज दारोगा ने भी सब्र और समझदारी से काम लेने में ही खाकी और खुद की भलाई समझी. इसी के चलते ठाकुर साहब की हवेली पर सीधे पुलिस-दबिश (छापा) देने का प्लान रद्द कर दिया. अनुभवी थानाध्यक्ष ने सादा कपड़ों में दो सिपाही समझाकर ठाकुर साहब के घर भेज दिए. इस हिदायत के साथ कि, ठाकुर साहब से सिपाही पहले सभ्यता के साथ उनके घर में रखी अवैध बंदूक मांगें. ठाकुर साहब अगर दायरे से बाहर पांव पसारें. नाजायज बंदूक देने में आनाकानी करें. गांव में वर्दी की इज्जत उछालने की हिमाकत करें. तो फिर पुलिस वाले मय बंदूक ठाकुर साहब को भी थाने पकड़ कर ले आएं.

उसी थानाध्यक्ष के अल्फाजों में, 'मुखबिर की खबर पुख्ता और पुलिस अपनी जगह जायज थी. लिहाजा बिना किसी दबंगई या ओछेपन के, ठाकुर साहब ने चुपचाप बंदूक सिपाहियों के हवाले कर दी. मेरी इस नायाब तरकीब से दो मुश्किलें हल हो गईं. पहली, अवैध बंदूक जब्त करके कानून का पालन हो गया. दूसरे, एक रसूखदार शख्स की समाज में बेइज्जती होने से बच गयी.'

दारोगा की 'रहम-दिली' पर जब रोया रसूखदार!

बंदकू जब्ती के दो-तीन दिन बाद की बात है. मैं थाने में ही बैठा था. उसी वक्त एक रौबीली कठ-काठी वाला अजनबी शख्स दुआ-सलाम के बाद, मेरे सामने वाली कुर्सी पर आकर चुपचाप बैठ गया. मैं सोच रहा था कि, वे साहब पुलिस संबंधी किसी समस्या के समाधान के लिए थाने आए होंगे. काफी देर तक न वो अजनबी कुछ बोला, न ही मैं बोला.

अचानक वह रौबीला इंसान फफक-फफककर रोने लगा. मुझे लगा पता नहीं यह क्या, कौन सी मुसीबत बैठे-बिठाए गले में आ पड़ी. शांत करके जब मैंने उससे पूछा तो, यह वही रसूखदार ठाकुर साहब थे जिन्होंने, शान के साथ बेटी को दहेज में 'हाथी' दिया था. जिनकी हवेली में रखी नाजायज बंदूक मैने चुपचाप सिपाही भेजकर जब्त करवा ली थी.

मैंने उनसे भावुक होने का कारण पूछा तो वे बोले... हवेली पर पुलिसिया दलबल सहित दबिश न देकर आपने हमारी, जिस तरह से इज्जत बचाई, उसका अहसान मैं नहीं भूल पाऊंगा.

गिरफ्तार आरोपी को जब थाने से छोड़ दिया!

उस वक्त इनकी पोस्टिंग थानाध्यक्ष फुगाना (जिला मुजफ्फरनगर, पश्चिमी उत्तर प्रदेश) में थी. बात है अब से करीब 43 साल पहले यानि सन् 1975-76 के आसपास की. नाइट-पेट्रोलिंग (रात्रि गश्त) के दौरान ट्यूबवैल पर एक लड़के को तमंचा के साथ दबोच लिया गया. दिन भर थाने में बंद रखा. पूरे दिन जब परिवार का कोई आदमी लड़के के बारे में पूछताछ के लिए थाने में नहीं पहुंचा तो, उसे थाने से घर भेज दिया. इस नसीहत के साथ कि वो पिता को बुलाकर थाने लाएगा.

पिता थाने आए तो उन्होंने बताया कि गांव का माहौल खराब है. रात को खेत और ट्यूबवैल की रखवाली के लिए लड़के ने नाजायज तमंचा रखा था. बात में सच्चाई थी.

'रिश्वत' के रुपए मंदिर में 'दान' करवा दिए:

लिहाजा किसी पर भी रहम न खाने के लिए यूपी पुलिस में चर्चित इसी थानाध्यक्ष ने, उस दिन लड़के को पिता के साथ, बिना कोई कानूनी एक्शन लिए घर भेज दिया. अब चार दशक बाद उस पड़ताल का किस्सा इस संवाददाता/लेखक को सुनाते हुए बताते हैं, 'मेरे इस कदम से खुश हुए लड़के के पिता ने, थाने में मौजूद पुलिस वालों को मंदी के उस जमाने में, मिठाई के लिए (बतौर रिश्वत) 500 रुपए (मौजूदा समय के पचास हजार से भी ज्यादा) देने चाहे. मैने लड़के के पिता से कहा कि, वह उन 500 रुपयों को मंदिर में दान करके आए. दान की मंदिर से मिली पर्ची मुझे लाकर दिखाए.'

बदमाश की खातिर चलाया कोल्हू, झोंकी भट्टी:

फुगाना थाने के थानाध्यक्ष रहते हुए का ही एक और किस्सा है. यह दबंग आला-पुलिसिया पड़ताली उस रात को भी नहीं भूला है, जब खूंखार बदमाश को दबोचने के लिए भेष बदलना पड़ा. मुखबिर ने बताया था कि, इलाके की जनता के लिए सिरदर्द बना वांछित डकैत रुल्हा कहार, अक्सर रात के वक्त गांव के एक कोल्हू पर आता है. सूचना पुख्ता और साथ में मुखबिर मजबूत था. उस जमाने में रुल्हा कहार पर कोई पुलिस वाला जल्दी हाथ डालने की हिम्मत भी नहीं करता था. बिना किसी गोली, लाठी-डंडे के ही रुल्हा कहार को जिंदा दबोच लेने की रुह कंपा देने वाली कहानी सुनाते हुए बताते हैं.

जिससे खौफजादा खाकी, वो 'मेमने' सा दबोचा:

'मैं दो सिपाहियों के साथ थाने में बिना किसी अन्य पुलिसकर्मी को कुछ बताए रुल्हा कहार के संभावित ठिकाने की ओर निकल गया. रास्ते में सिपाहियों से कहा कि वे मेरे जैसा ही ठेठ देसी किसान के भेष रख लें. गांव में मैंने सिपाहियों के साथ आधी रात तक किसान के भेष में कोल्हू चलाया. साथ ही कोल्हू की भट्टी में आग भी झोंकी. पुलिसिया मौजूदगी से पूरी तरह अनजान डाकू रुल्हा कहार जैसे ही रात के अंधेरे में कोल्हू पर आया, मैंने उसे दबोच लिया. जिस रुल्हा कहार से जनता और पुलिस वाले खौफ खाते थे, मैं दो सिपाहियों के ही बलबूते उसे किसी 'मेमने' की तरह दबोच कर थाने ले गया.'

नंगे पांव भागते हुए ही झोंकता रहा गोलियां

बात है 40 साल पहले सन् 1978 के आसपास की. यह खुद्दार सब-इंस्पेक्टर हैदराबाद पुलिस सेंटर में हुई तीन महीने की ट्रेंनिंग से वापस लौटते ही, थाना खतौली का प्रभारी (थानाध्यक्ष) बना दिया गया. एक दिन सिविल कपड़ों में ही खाना खा रहा था. तभी सिपाही ने इलाके में दिन-दहाड़े, बैंक-डकैती की खबर दी. खाना छोड़ दिया. वर्दी पहनना भूल गया. सादा कपड़ों में चप्पलों पहने हुए ही रिवाल्वर लोड करके घटनास्थल की तरफ भागा.

नहर के पुल पर बैंक लूटने वाले डाकूओं से मुठभेड़ हो गई. करीब 3 किलोमीटर तक बैंक डकैतों और इस बहादुर के बीच गोलियां चलती रही. नंगे पांव ही भागते भागते और गोलियां झोंकते हुए दो बैंक डकैत धर-दबोचे. अफसोस ये कि बैंक लूट की रकम पकड़े गये दो लुटेरों में से किसी के पास नहीं मिली.

निहत्थे दुश्मन को बख्श दी 'जिंदगी'!

गिरफ्त में आए डाकूओं की निशानदेही पर कुछ ही देर में ईख (गन्ने) के खेत में छिपे तीसरे डाकू को भी धर दबोचा. इलाके में अपराधियों के प्रति बेरहम समझे जाने वाले थानेदार के सामने पड़ते ही और उसके हाथों में लोडेड रिवाल्वर देखकर, खेत में छिपे तीसरे डकैत की घिघ्घी बंध गयी. वो पांवों में लोट कर जिंदगी की भीख मांगने लगा. लिहाजा रहम खाकर डाकू के सीने में गोली न मारकर उसकी जिंदगी बख्श दी. जाबांज सब-इंस्पेक्टर द्वारा नंगे पांव दिन-दहाड़े किए गए, उस एनकाउंटर पर 'फिदा' गांव वालों ने कंधे पर बैठाकर इसी दिलेर दारोगा का स्वागत-जुलुस निकाला.

जेब में 'इस्तीफा' और जुबान नीम से कड़वी!

यह आला-पुलिस अफसर अगर कभी किसी को नाकाबिल-ए-बर्दाश्त हुआ तो वे थे, अपराधी और पुलिस महकमे से जुड़े ऐसे कुछ लोग जो, अक्सर खाकी के ऊपर 'तौहीन' की खाक डालने पर आमादा रहते थे. शायद इसीलिए इन्हें समाज की कुछ खोई-पाई जैसी जमात 'अक्खड़' 'अड़ियल' 'रुखा' 'बेरहम' 'जिद्दी' जैसे तकिया-कलामों से नवाजती रही. इन तमाम झंझटों से बरी रहने के लिए, दारोगा से डिप्टी-एसपी बना यह इंसान पूरी पुलिसिया नौकरी के दौरान जेब में 'इस्तीफा' लेकर घूमता रहा.

हालांकि भीड़ में एकदम अलग छवि के चलते कभी भी जेब में रखे इस्तीफे के इस्तेमाल की जरुरत नहीं पड़ी. यह हकीकत का दूसरा पहलू भी है.

उनकी ईमानदारी-दिलेरी मेरी 'गुरु' है!

अधिकांशत: आईपीएस अफसर अपने मातहत के प्रति ‘USE AND THROW' की घटिया या ओछी मानसिकता ही अपनाते देखे-सुने जाते रहे हैं. यूपी में हमेशा खाकी-वर्दी की मारा-मारी से दूरी बनाकर रखने वाले हरफमनमौला इस डिप्टी एसपी के बारे में मैंने बात की 1974 बैच के आईपीएस (यूपी कॉडर) दबंग एनकाउंटर स्पेशलिस्ट और उत्तर प्रदेश के रिटायर्ड पुलिस महानिदेशक डॉ. विक्रम सिंह से.

बकौल विक्रम सिंह, 'यह शख्स मेरा मातहत और शागिर्द 'वर्दी' पहनने तक ही रहा था. असल जिंदगी में वे मेरे 'गुरु' मैं उनका 'मातहत' था, हूं और जीवन-पर्यंत रहूंगा.'

मातहत के आगे नत-मस्तक 'उस्ताद' आईपीएस!

यूपी कॉडर के पूर्व आईपीएस, सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) के रिटार्यड डायरेक्टर जनरल और यूपी के पूर्व पुलिस महानिदेशक प्रकाश सिंह भी, इस मातहत रिटायर्ड डिप्टी एसपी की खुद्दारी के कायल थे और आज भी हैं. कमोबेश प्रकाश सिंह और विक्रम सिंह का सा ही सम्मान, 'काजल की कोठरी' से बेदाग निकले इस पुलिस उपाधीक्षक के प्रति, भारत में किसी राज्य की (उत्तराखंड) पहली महिला पुलिस महानिदेशक रहीं, 1973 बैच की पूर्व आईपीएस (किरन बेदी के बाद हिंदुस्तान की दूसरी दबंग-बेबाक महिला आईपीएस) कंचन चौधरी भट्टाचार्य के भी मन में है.

बकौल कंचन चौधरी, 'उनकी ईमानदारी, खुद्दारी और पुलिस महकमे में कार्यशैली पर सवाल करने की कभी किसी की हिम्मत नहीं हुई.'

'काजल की कोठरी' से बेदाग निकला 'अड़ियल'

करीब 40 साल तक यूपी पुलिस के सिरमौर रहे इस दबंग पुलिस अफसर का जन्म 2 अगस्त सन् 1944 को यूपी के (अलीगढ़) थाना टप्पल के अंतर्गत स्थित गांव गौरौला में हुआ था. उस जमाने में भी 200 बीघा जमीन के मालिक उदय सिंह लौर और उनकी पत्नी दलेल कौर की छह संतानों में चौथे नंबर का यह पुत्र सन् 1966 बैच में यूपी पुलिस डायरेक्ट सब-इंस्पेक्टर बैच का राज्य पुलिस का 'टॉपर' बना था.

4-5 गांव के जमींदार दलीप सिंह का ये पोता पदोन्नत होकर सन् 1983 में थानेदार से इंस्पेक्टर बन गया. करीब 40 साल यूपी पुलिस की नौकरी करने के बाद यह मनमौजी पुलिसिया अफसर, 31 अगस्त सन् 2004 को गाजियाबाद पीएसी डिप्टी कमांडेंट (पुलिस उपाधीक्षक) के पद से 'बेदाग' रिटायर हो गया. वो भी अपनी शर्तों पर नौकरी करने के बाद.

पत्नी की चूडियां लिख दीं उधार-डायरी में!

40 साल की पुलिसिया नौकरी में, किसी की फूटी कौड़ी की ओर आंख उठाकर न देखने के लिए चर्चित, यह दबंग सन् 1960 के दशक में (सन् 1966 में करीब 52 साल पहले) पत्नी सुरेंद्री लौर (निवासी गांव खंजरपुर, मोदी नगर) के लिए खरीदी गयी, तीन रुपए की चूड़ियों का हिसाब लिखी डायरी आज भी घर में सहेज कर रखे हुए है.

यह अलग बात है कि, मशक्कत और उधारी से इकट्ठी 'पाई-पाई' के बलबूते इसी अजूबा ने कालांतर में, बेटी लीना सिंह लौर को उच्च शिक्षित करके पंजाब यूनिवर्सिटी में 'डीन' बना लिया. जबकि पुत्र धर्मेंद्र सिंह लौर इंजीनियरिंग कॉलेज में निदेशक हैं. अब ये पत्नी, बेटा, पुत्र-वधू प्रतिज्ञा पिंकी लौर (रिसर्च ऑफिसर, इंडियन नेशनल अकेडमी ऑफ इंजीनियरिंग डिपार्टमेंट ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी, भारत सरकार) और पौत्र वेदांत लौर के साथ गाजियाबाद में रह रहे हैं.

जानते हैं इस अक्खड़ मिजाज और फक्कड़ इंसान का नाम क्या है? सुरेंद्र सिंह लौर. वही सुरेंद्र सिंह लौर, जिसका ट्रांसफर थाने और शहर में रुकवाने की खातिर इलाके की जनता जिला पुलिस अफसरों का घेराव कर देती थी. हर कामयाब पुलिसिया-पड़ताल पर, जिन्हें इलाके की जनता कंधों पर उठाती थी. वही सुरेंद्र सिंह लौर जिन्हें 1960, 1970, 1980 के दशक में यूपी के बाशिंदों ने 'भगत-जी' के उपनाम से नवाजा था.

इस 'संडे क्राइम स्पेशल' में पढ़ना न भूलें....

'नवजात शिशु, जन्म के तुरंत बाद ही मर जाने की आशंका में, जिसे दफनाने की तैयारियां हो रहीं थीं! वही बेखौफ आईपीएस एनकाउंटर-स्पेशलिस्ट हिंदुस्तान का पहला 'साइबर-कॉप' बना...आखिर कैसे?'

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)