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1967 का वो केस जब पुलिसवालों ने पैसे लेकर थाने से भगा दिए थे लुटेरे

‘पड़ताल’ की इस खास किश्त में हम आपको पढ़ाएंगे 1960 के दशक की वो कहानी जब एक हवलदार ने रिश्वत लेकर लुटेरों को थाने से भगा दिया था

Sanjeev Kumar Singh Chauhan

‘पड़ताल’ की इस खास किश्त में हम आपको पढ़ाएंगे 1960 के दशक की वो कहानी जब एक हवलदार ने रिश्वत लेकर लुटेरों को थाने से भगा दिया था. लुटेरों को थाने में पकड़ कर लाया था एक नौसिखिया दारोगा. जब उच्चस्तरीय विभागीय जांच शुरू हुई तो घबराए थानाध्यक्ष ने उस नौसिखिए दारोगा से कहा था, ‘सच्चाई मत कुबूल कर लेना वरना, पूरा थाना ही सस्पेंड हो जाएगा.’ मजेदार ये कि इसी बीच थाने के सिपाहियों में इस बात को लेकर ‘रार’ शुरू हो गई थी कि रिश्वत के 200 रुपए में से मुंशीजी यानी थाने के हेड-मुहर्रिर ने उन्हें एक धेला भी नहीं दिया!

1967 में मेरठ का थाना सरूरपुर


किस्सा है गर्मी के दिनों का. उत्तर-प्रदेश के मेरठ जिले के थाने सरूरपुर का. रात के वक्त देहात इलाके में लूट की खबर थाने को मिली थी. सूचना के मुताबिक इलाके में साइकिल से दूध बेचने जा रहे दूधियों को रास्ते में लूट लिया गया था. उनके पास मौजदू नकदी, साइकिलें, दूध से लदे-भरे ड्रम आदि सब लूट लिए गए थे. सूचना मिलते ही सरूरपुर थाने में हड़कंप मच गया. रात को ही सूचना थानाध्यक्ष को दी गई. थाना-प्रभारी ने उन दिनों थाने में पुलिस-ट्रेनिंग ले रहे नौसिखिया सब-इंस्पेक्टर सुरेंद्र सिंह लौर को मौका-ए-वारदात पर भेज दिया.

नौसिखिया होने के बाद भी खास

सुरेंद्र सिंह लौर भले ही नौसिखिये दारोगा थे लेकिन उनकी खासियत ये थी कि वे 1966 बैच यूपी पुलिस डायरेक्ट दारोगा भर्ती के ‘टॉपर’ थे. इसी वजह से सूबे की पुलिस में उनकी छवि बाकी भीड़ से अलग थी. रात को ही साइकिलों से कुछ सिपाहियों के साथ सुरेंद्र सिंह लौर घटनास्थल पर जा पहुंचे. मौके पर पुलिस पार्टी को कुछ नहीं मिला. तब तक दूसरी ओर लुटे-पिटे दूधिये थाना सरूरपुर पहुंच चुके थे. उधर दारोगा लौर ने रात में ही सिपाहियों के साथ भागदौड़ करके कुछ लेटेरों को धर-दबोचा. पकड़े गए लुटेरे नाइट-ड्यूटी में मौजूद थाने के हेड-मुहर्रिर (हवलदार) के हवाले करके सुरेंद्र सिंह कमरे पर सोने चले गए. इस हिदायत के साथ कि लुटेरों से बाकी की पूछताछ दिन-निकलने के बाद की जाएगी.

युवा सुरेंद्र सिंह लौर की तस्वीर

थाने पहुंचा तो वहां सिर-फुटव्वल मची थी

बकौल सुरेंद्र सिंह लौर, ‘रात्रि विश्राम के बाद सुबह मैं थाने पहुंचा. थाने में कोहराम मचा हुआ था. कुछ हवलदार सिपाहियों में तू-तू-मैं-मैं हो रही थी. मैंने सोचा कि छोड़ो मुझे क्या लेना? इनका आपस का कोई झगड़ा होगा. मामला मगर तब पूरा पलट गया जब, आपस में चीख-पुकार मचा रहे सिपाही हवलदारों में से कुछ मेरी ओर मुखातिब हुए. उनमें से एक सिपाही बोला कि दारोगा जी आपको कुछ मालूम है दूधियों वाले केस में जिन लुटेरों को आपने रात को पकड़कर हेड मुंशी जी को सौंपा था. वे थाने से भगा दिए गये हैं! 200 रुपए रिश्वत वसूल कर. इतना सुनते ही मेरे बदन में काटो खून नहीं रहा. क्योंकि बात और आफत नौकरी पर आ रही थी.नौकरी भी क्या अभी ट्रेनिंग की चल रही थी. ’

दोष मुंशी का, नौकरी दांव पर दारोगा की

बकौल सुरेंद्र सिंह लौर, ‘रिश्वत के रुपए में हिस्सा हाथ न आने से बिलबिलाए सिपाहियों ने मुझे बताया कि लुटेरों को छोड़ने के बदले में जो 200 रुपए हेड-मुहर्रिर(थाना मुंशी) के हाथ लगे उनमें से 160 रुपए बड़े थानेदार यानी थानाध्यक्ष की मोटर-साइकिल मरम्मत में खर्च के लिए दे दिए गए हैं. बचे हुए 40 रुपए हेड-मुहर्रिर ने अपने विश्वासपात्र सिपाहियों के साथ मिलकर बांट लिए. पूरा वाकया सुनते ही मेरा माथा ठनक गया. वजह थी इस पूरे मामले में हेड-मुहर्रिर, थानाध्यक्ष और सिपाहियों का तो जो होना था वो बाद में होता. मैं सबसे पहले सस्पेंड हो जाता.’

बेकसूर होकर भी ‘शिकार’ मैं ही होने वाला था

पूरे मामले में पहले और आसान शिकार सुरेंद्र सिंह लौर ही होने वाले थे. इसकी भी कई वजह थीं. पहली वजह, मुलजिम यानी लुटेरे दारोगा सुरेंद्र सिंह लौर ने पकड़े थे. दूसरी वजह रोजनामचे में बाकायदा मौका-ए-वारदात के लिए उनकी रवानगी दर्ज थी. तीसरी वजह कागजों में कानूनी तौर से पड़ताली लौर को बनाया जा चुका था. चौथी वजह घटनास्थल से लौटने के बाद मुलजिमों को पकड़ थाने में बंद करते वक्त सुरेंद्र सिंह लौर थाना-रोजनामचा (डीडी यानी डेली डायरी) में अपनी वापसी दर्ज कर चुके थे.

फरार लुटेरा जब पूरे थाने पर भारी पड़ा

थाने में रिश्वत के बंटवारे को लेकर रो-पीट रहे सिपाही-हवलदारों को समझा-बुझाकर दारोगा सुरेंद्र सिंह लौर ने शांत कर दिया. असल में मुसीबत तो गले में पड़ी थी सुरेंद्र सिंह लौर के. उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि वे अपने गले से फंदा कैसे निकालें? उधर एक नया तमाशा खड़ा हो चुका था. लौर खुद बताते हैं, ‘जिन लुटेरों को थाने से मुंशी ने 200 रुपए लेकर छोड़ दिया, उनमें से एक ने आला अफसरों से शिकायत कर दी कि उन्हें थाने में बुरी तरह मारा-पीटा गया है. इसके अलावा 200 रुपए लेकर छोड़ा गया है.’

जांच मेरे खिलाफ और नींद SHO की गायब!

सुरेंद्र सिंह कहते हैं, ‘मैं उन दिनों सरूरपुर थाना प्रभारी के जरिए एक बनिए के घेर (खुले बड़े आंगन) में बने एक कमरे में रह रहा था. थानाध्यक्ष का वो उपकार मेरे ऊपर था. दूसरे मैं थानाध्यक्ष से इसलिए भी दबा हुआ था क्योंकि उन दिनों मैं उन्हीं के कमरे पर बना खाना खाता था. लिहाजा रात को थाने में हुए 200 रुपए की रिश्वत के बंटवारे तमाशे के बाबत चाहकर भी थानाध्यक्ष से खुलकर कुछ न कह सका. बात मगर छिपनी कहां थी? थाना-प्रभारी मुझसे बोले, 'लौर मामला बिगड़ चुका है. तुम्हारे खिलाफ जांच बैठा दी गई है. जांच भी जोध सिंह रावत जैसे तेज-तर्रार डिप्टी एसपी (मेरठ जांच प्रकोष्ठ) के हवाले की गई है. जो किसी पर रहम नहीं खाते हैं. अब मेरी नौकरी और पूरे थाने को तुम ही सलामत बचा सकते हो. थोड़ा-बहुत झूठ बोलकर. बात तो चिंता वाली थी. मैं मगर अब कुछ कर नहीं सकता था. मैंने थानाध्यक्ष को दो टूक बता दिया कि जो सच है डिप्टी एसपी के सामने पेशी में वह सब बताउंगा. कौन से रिश्वत के रुपए मैंने लेकर लुटेरे छोड़े हैं? जिसने कांड किया वह दंड भोगेगा.’

SHO बोले पूरा थाना सस्पेंड हो जाएगा

‘यह मेरी अपनी सोच थी. चूंकि ट्रेनिंग पीरियड था. इसलिए तब तक मैं पुलिस महकमे के तमाम बेजा दस्तूरों से वाकिफ नहीं हो पाया था. थानाध्यक्ष को जैसे ही मेरे कड़वे इरादों का पता चला, तो उसके कान खड़े हो गए. उसने मुझसे कहा कि लौर अगर तुमने सब कुछ सच-सच बता दिया तो तुम्हारा जो होगा सो होगा साथ में पूरा थाना सस्पेंड कर दिया जाएगा. लिहाजा जैसे भी हो तुम थोड़ा-बहुत झूठ बोलकर खुद को और सबको बचाओ.' बताते हैं सुरेंद्र सिंह.

यूपी के पूर्व डीजीपी विक्रम सिंह के साथ सुरेंद्र सिंह लौर

बेहाल थानाध्यक्ष ने मेरे पीछे सिपाही लगा दिए

वह दिन भी आ ही गया जब, मेरठ के डिप्टी एसपी के सामने सुरेंद्र सिंह लौर की पेशी होनी थी. पेशी पर जाने वाले दिन लौर के पीछे थानाध्यक्ष सरूरपुर ने दो-तीन सिपाही लगा दिए. वे सिपाही एसएचओ के मुंहलगे और विश्वासपात्र थे. सुरेंद्र सिंह ने डिप्टी एसपी द्वारा पूछताछ में सब कुछ सही-सही बता दिया. सिवाय इसके कि लुटेरों को छोड़ने के बदले में रुपए भी लिए गए थे.

मैं बोला नौसिखिया था इसीलिए फंस गया

‘जांच-पड़ताल की प्रक्रिया पूरी होने के बाद काफी हद तक शायद डिप्टी एसपी को मैं या मेरी बात वाजिब लगी होगी. लिहाजा वे बोले, मिस्टर लौर अभी तुम्हारी नई-नई नौकरी है. अच्छे घर-परिवार के और पढ़े-लिखे लगते हो. तुमने जो कुछ बताया है, उसमें काफी कुछ सही लगा है. तुम्हारी जगह अगर कोई पुराना दारोगा होता तो मैं रगड़ देता उसे. आईंदा ऐसी शिकायत न मिल जाए. मैं महकमे के लिए नौसिखिया दारोगा जरूर था. घर-खानदान से मगर ओछा नहीं था. न ही कोई बेजा हरकत-पसंद. जब मैंने गलती की ही नहीं थी. तो फिर भला साहब डिप्टी साहब की वो गीदड़-भभकी सुनकर मैं भी चुपचाप क्यों चला आता? लिहाजा मैंने भी उन्हें धमाकेदार सैल्यूट ठोंकते हुए उन्हीं के मुंह पर कह दिया, जनाब मैं भी नया-नया था पुलिस महकमे में. इसीलिए इस मामले में जरा फंस गया. पुराना खिलाड़ी होता तो क्या भला मुझे कोई फंसा पाता? वरना आपके सामने पेशी की नौबत मैं भी नहीं आने देता.'

अब सिपाही गोली से बेकसूर उड़ा रहे हैं!

डिप्टी एसपी के सामने उस हाजिर-जबाबी का किस्सा सुनाते-सुनाते हंस पड़ते हैं सुरेंद्र सिंह लौर कहते हैं, ‘मैं तो उस जमाने में इतनी ईमानदारी और दबंगई से नौकरी कर आया. आज लखनऊ में सर-ए-राह सिपाही कार में बैठे बेकसूर को गोली से उड़ा रहा है! ऐसे में यूपी पुलिस महकमे में कोई सुरेंद्र सिंह लौर सा सनकी और हाजिर-जवाब सूरमा सामने निकल कर क्यों नहीं आता है? जो सूबे की पुलिस की इज्जत बचा सके! अधिकांश संबंधित आला-पुलिस अफसर क्यों उस कांड में अपनी ही बगलें झांक रहे थे? आखिर क्या कर लिया महकमे ने उन हवलदार सिपाहियों का जो इस घटना के आरोपी सिपाही को बचाने के लिए कंधे पर चिपकाए घूम रहे थे खुलेआम वर्दी पर काली पट्टी! हमारे जमाने की और आज की पुलिस में जमीन-आसमान का फर्क आ गया है.’

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(लेखक वरिष्ठ खोजी पत्रकार हैं)