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जब तक दुनिया में गैर-बराबरी रहेगी मार्क्स के विचारों की जरूरत बनी रहेगी

वामपंथ और दक्षिणपंथ की बहस में कहां हैं कार्ल मार्क्स?

Piyush Raj

5 मई, 2018 को कार्ल मार्क्स को पैदा हुए 200 साल हो रहे हैं. आज जब मार्क्स के समर्थक और प्रशंसक उनकी 200 वीं जयंती बना रहे हैं उस वक्त मार्क्स और मार्क्सवाद के विरोधी यह भी कह रहे हैं कि अब मार्क्स और उनके विचारों की प्रासंगिकता खत्म हो गई है.

लोगों के बीच यह आम राय बनाने की कोशिश हो रही है कि दुनिया में मार्क्स और मार्क्सवाद की कोई जरूरत नहीं है. खासकर सोवियत संघ के पतन और चीन की उलटी चाल के बाद मार्क्स और मार्क्सवाद के विरोधी मार्क्स के विचारों की प्रासंगिकता को मौजूदा दौर में सिरे से नकारते हैं.


लेकिन थोड़ा ठहरकर सोचने वाली बात है कि क्या सचमुच ऐसा है. मार्क्स और मार्क्सवाद की कोई प्रासंगिकता नहीं है?

मार्क्स ने जिस वक्त अपने विचारों को रखा उस वक्त पूंजीवाद आज के समय जितना विकसित नहीं था. लेकिन पूंजीवादी व्यवस्था और इस व्यवस्था में मजदूरों की दशा के बारे में मार्क्स ने जो कहा वो आज भी उतना ही मौजूं है जितना उस वक्त था.

क्या मालिक और मजदूर में एकता हो सकती है?

मार्क्स ने वर्ग-संघर्ष का सिद्धांत देते हुए कहा था कि अब तक का समस्त मानव इतिहास वर्ग-संघर्षों का इतिहास रहा है. इन वर्गों का निर्धारण उत्पादन के साधनों पर अधिकार से तय होता है.

खेती की जमीन, मशीनें, कारखानें आदि उत्पादन के साधन हैं. इन पर जिनका मालिकाना हक होता है वे मालिक होते हैं और जो सिर्फ इन पर काम करते हैं वे मजदूर. जो भी वस्तु उत्पादित होती है उस पर मजदूर का कोई हक नहीं होता है.

मालिक हमेशा अधिक से अधिक लाभ कमाना चाहता है और मजदूर अपने काम का अधिक से अधिक वेतन पाना चाहता है. दूसरी तरफ मालिक कम से कम मजदूरी देकर अधिक से अधिक काम लेना चाहता है.

इस वजह से मालिक और मजदूर के हित हमेशा एक-दूसरे के विरोधी होती हैं. साथ ही मजदूर जो भी बनाता है उस पर उसका कोई अधिकार नहीं होता है. मार्क्स कि ये बातें आज भी उतनी ही सच हैं जितनी उस वक्त थीं.

आज भी मजदूर बेहतर काम की दशा और वेतन की इच्छा रखता है. ये बात सिर्फ शारीरिक श्रम करने वालों के लिए ही नहीं बल्कि मानसिक श्रम करने वालों के लिए सच है.

कैसे होता है पूंजीवाद का विकास?

मार्क्स ने ‘द कैपिटल’ के पहले खंड में लिखा था कि पूंजीवाद का विकास लोगों को उनके परंपरागत उत्पादन के संसाधनों से बेदखल करके होता है. आज दुनियाभर में खासकर तीसरी दुनिया में पूंजीवाद के विकास का मॉडल इसी राह पर चल रहा है.

लोगों को उनकी खेती की जमीन से बेदखल किया जा रहा है. आदिवासियों को जंगलों से बेदखल किया जा रहा है. ऐसे लोग अपने संसाधनों से बेदखल होकर मजदूर बनते जा रहे हैं. मार्क्स ने पूंजी के पहले खंड में 1867 में ही यह बात कही थी.

जो लोग भी यह कहते हैं कि सोवियत रूस के पतन से मार्क्स और साम्यवादी विचारधारा का अंत हो गया, उन्हें यह याद रखना चाहिए आज जब भी सभी को शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार देने की बात होती है तो उसका मूल मार्क्स की विचारधारा में ही है.

महिला आजादी और मार्क्स 

मार्क्स ने निजी संपत्ति के अंत की बात की थी. इसका मजाक उड़ाते हुए तब भी और आज भी कई लोग कहते हैं कि तब तो साम्यवाद में महिलाएं सार्वजनिक संपत्ति हो जाएंगी?

मार्क्स ने कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो में इसका जबाब देते हुए कहा कि अब तक बुर्जुआ वर्ग महिलाओं को एक संपत्ति के रूप में देखता आया है. इस वजह से वह ऐसी बात कह रहा है. जबकि साम्यवाद में कोई किसी की संपत्ति नहीं होगा.

आज जब महिलाओं को एक स्वतंत्र मनुष्य के रूप में देखने की वकालत की जाती है तो उसमें मार्क्स के विचारों का एक अहम योगदान है.

मार्क्स जब निजी संपत्ति के अंत की बात कहते हैं तो लोग इसे असंभव मानते हैं. मार्क्स ने खुद इसका जबाब देते हुए कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो में कहा था कि वैसे भी दुनिया में अधिकतर लोगों के पास पहले से ही किसी भी तरह की निजी संपत्ति नहीं है.

यह आज भी एक तथ्य है कि दुनिया के अधिकतर संसाधनों पर दुनिया के अमीरों का अधिकार है.

तस्वीर: अपनी बड़ी बेटी जेनी कैरोलिन के साथ कार्ल मार्क्स

मार्क्स और पर्यावरण का सवाल 

मार्क्स ने निजी संपत्ति के अंत की बात इसलिए भी कही थी कि जिन प्राकृतिक संसाधनों का आज हम उपयोग कर रहे हैं, उस पर आने वाली नस्लों का भी हक है. जिस पर आने वाली पीढ़ियों का हक है, उसे किसी की निजी संपत्ति बनाकर नहीं रखा जा सकता.

मार्क्स ने ‘द कैपिटल’ के तीसरे खंड में यह भी कहा था कि हम एक समाज और देश के तौर पर भी धरती के संसाधनों के मालिक नहीं हैं. हम सिर्फ इसके संरक्षक और लाभार्थी हैं और हमें इसे बेहतर रूप में अगली पीढ़ियों को सौंपना है.

आज जब इस धरती, पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों को बचाने की बात हो रही है तो मार्क्स के इस कथन की प्रासंगिकता को अलग से बताने की कोई जरूरत नहीं है.

मार्क्स ने कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो में यह भी कहा था कि पूंजीवाद हर तरह के संबंध को धन संबंधों में बदल देता है. इस वजह से सहज मानवीय संबंधों के विकास में यह व्यवस्था  बाधक है.

मार्क्स की इस बात पर जरा गौर करें क्या आज हमारे संबंधों के निर्धारण में धन का महत्व बहुत अधिक नहीं हो गया है?

वैसे एक लेख लिखकर या कुछ शब्दों में मार्क्स की प्रासंगिकता पर सबको सहमत नहीं किया जा सकता लेकिन जब तक इस दुनिया में गैर-बराबरी कायम रहेगी, तब तक इस दुनिया में मार्क्स और उनके विचारों की जरूरत बनी रहेगी.

(यह लेख पिछले साल मार्क्स के जन्मदिन पर प्रकाशित किया गया था, मार्क्स की 200 वीं जयंती के अवसर पर इसे हम फिर से प्रकाशित कर रहे हैं)