view all

नुसरत फतेह अली खां: जिनके लिए कव्वाली ही ईमान थी

1971 में चाचा मुबारक अली खां की मौत के बाद नुसरत कव्वाली हमनवा के प्रमुख गायक बने. ग्रुप में मुबारक अली खां के बेटे मुजाहिद मुबारक भी शामिल थे

Shailesh Chaturvedi

कव्वाली का नाम लेते ही एक आवाज याद आती है. वो आलाप जो दिल को चीरती हुई मानो सातवें आसमान तक जाती है. नुसरत फतेह अली खां की आवाज. 13 अक्टूबर 1948 को जन्मे नुसरत साहब की उम्र लंबी नहीं रही. महज 49 साल. उन्हें दुनिया से रुखसत हुए 20 साल हो चुके हैं. लेकिन ऐसा लगता नहीं.

कहा जाता है ना कि उम्र बड़ी होनी चाहिए, लंबी नहीं. नुसरत साहब ने जिंदगी भरपूर जी. उनकी आवाज ने संगीत प्रेमियों को जीने की तमाम वजहों में एक और वजह जोड़ दी. वो आवाज सूफियों की आवाज कही जाती है. उनकी आवाज के भारत और पाकिस्तान ही नहीं, तमाम पश्चिमी देशों में दीवाने हैं. उन्हें कव्वाली को अंतरराष्ट्रीय मार्केट में पहुंचाने का श्रेय दिया जाता है. उन्हें शहंशाह-ए-कव्वाली कहा जाता है.


नुसरत फतेह अली खां का जन्म फैसलाबाद (तब लायलपुर) में हुआ था. उनका परिवार विभाजन के दौरान भारत में जालंधर से आया था. नुसरत साहब अपने पिता की पांचवीं संतान थे. पहले उनका नाम रखा गया परवेज खां, जो बाद में किसी बुज़ुर्ग के कहने पर नुसरत कर दिया गया. उनसे बड़ी चार बहनें थीं. उसके बाद एक छोटा भाई भी हुआ.

इकबाल कसूरी-फतेह अली खां के शागिर्द थे

परिवार में कव्वाली सदियों से गाई जा रही थी. हालांकि पिता फतेह अली खां चाहते थे कि वो डॉक्टर या इंजीनियर बनें, लेकिन नुसरत तो गायक बनना चाहते थे. पिता ने उनकी इच्छा का सम्मान किया. उन्हें सिखाना शुरू किया. 1964 में पिता की मौत हो गई. इसके बाद चाचा सलामत अली खां और मुबारक अली खां ने सिखाया. 16 की उम्र में उन्होंने पहली बार पब्लिक परफॉर्मेंस दी. अपने पिता के चेहल्लुम पर उन्होंने गाया था.

यह भी पढ़ें: जब-जब मोहब्बत के अंजाम पे रोना आएगा, बेगम अख्तर याद आएंगी

1971 में चाचा मुबारक अली खां की मौत के बाद वो कव्वाली हमनवा के प्रमुख गायक बने. ग्रुप में मुबारक अली खां के बेटे मुजाहिद मुबारक भी शामिल थे. नुसरत के छोटे भाई फारूख भी आ गए, जो उनसे चार साल छोटे थे. ग्रुप का नाम दिया गया नुसरत फतेह अली खां- मुजाहिद मुबारक अली खां एंड पार्टी. लेकिन धीरे-धीरे ग्रुप नुसरत के नाम से जाना जाने लगा.

उनके अलावा नुसरत फतेह अली खां के ग्रुप में फारूख बेहद अहम थे. हारमोनियम पर उनका हाथ कमाल करता था. वो दूसरे या तीसरे गायक की भूमिका भी निभाते थे. संगीत की जानकारी अद्भुत थी. वो नुसरत के भाई थे. एक नाम था इकबाल नकीबी का. इकबाल दरअसल, फतेह अली खां के शागिर्द थे. उन्हें इकबाल कसूरी के नाम से भी जाना जाता था, क्योंकि वो कसूर के थे. कसूर यानी बुल्ले शाह का घर.

इकबाल हमेशा से फतेह साहब के बड़े करीबी थे. वो नुसरत से बड़े थे. वो नुसरत के सेक्रेटरी हो गए. उनका रोल इसलिए भी बेहद अहम था, क्योंकि ग्रुप में अकेले वो थे, जो अंग्रेजी बोल सकते थे. 70 के दशक में दिलदार हुसैन ग्रुप में जुड़े. वो तबला वादक थे. उन्हें कभी-कभी ग्रुप का हिस्सा बनाया जाता. लेकिन जल्दी ही वो परमानेंट सदस्य बन गए. इकबाल कसूरी के वो रिश्ते में भाई थे. धीरे-धीरे वो नुसरत के सबसे करीबी लोगों में हो गए.

इसके अलावा रहमत अली हारमोनियम पर एक और कलाकार थे. तबले पर दिलदार हुसैन उनके बड़े करीबी थे. मजावर अब्बास मैंडोलियन और गिटार के अलावा ताली बजाने का काम करते थे. अता फरीद काफी समय तक थे. उनकी खासियत यह थी कि वो बाएं हाथ से हारमोनियम बजाते थे. इसके अलावा और भी कुछ लोग थे.

मुजाहिद मुबारक 80 के दशक के अंत तक साथ रहे. फिर उन्होंने अलग ग्रुप बना लिया. नुसरत ने 40 से भी ज्यादा मुल्कों में गाया. आठ लोगों का कोरस, तबला वादक, हारमोनियम. और पुराने वीडियों में देखेंगे, तो एक छोटा बच्चा भी दिखेगा. वो राहत फतेह अली खां थे. उसके बाद उनके कुछ और शिष्य इस भूमिका में दिखे. कार्यक्रम शुरू होता था. हल्के संगीत के साथ माहौल बनता था. फिर एक आवाज गूंजती थी. शेर सुनाया जाता था. उसके बाद धीरे-धीरे संगीत बढ़ता था. आवाज जोर पकड़ती थी. आसमान तक पहुंचती थी. लोग झूमने लगते थे. उस आवाज के सम्मोहन में पूरा माहौल नुसरतमय हो जाता था. ये नुसरत के संगीत की ताकत थी.

पहली कैसेट से हिट हुए नुसरत 

नुसरत की मकबूलियत का दौर कैसे आगे बढ़ा, वो दिलचस्प कहानी है. 1975 में अमीर खुसरो की पुण्यतिथि की बात है. पाकिस्तान नेशनल काउंसिल फॉर द आर्ट ने इस मौके पर संगीत का कार्यक्रम आयोजित किया. बड़े कव्वाल इसमें हिस्सा लेने वाले थे. नुसरत को न्योता काफी देर से मिला. जब वो समारोह में पहुंचे, तब तक ज्यादातर ग्रुप अमीर खुसरो के कलाम गा चुके थे. ऐसे ज्यादातर कलाम, जो लोगों ने सुने और पसंद किए हैं. अब नुसरत को ऐसा कुछ गाना था, जो पाकिस्तान में ज्यादा सुना नहीं गया था. इसके जोखिम होते हैं. सुने हुए कलाम हमेशा लोगों का ध्यान जल्दी खींचते हैं.

उन्होंने ‘मैं तो पिया से नैना मिला आई रे’ से शुरू किया, जो उस वक्त पाकिस्तान में ज्यादा नहीं गाया गया था. समारोह में तमाम बड़ी हस्तियां मौजूद थीं, जिसमें मशहूर शायर फैज़ अहमद फैज़ भी थे. वो समारोह दरअसल, नुसरत के आने और छा जाने का प्रतीक बनकर आया. उन्हें उर्स और प्राइवेट पार्टियों में बुलाया जाने लगा. वो दौर था, जब नुसरत अपनी पार्टी के साथ तांगे या बैलगाड़ी से महफिलों में जाते थे. फिर उनके कैसेट आने शुरू हुए. फैसलाबाद के रहमत ग्रामोफोन हाउस ने सबसे पहले कैसेट निकालने शुरू किए. अपने पिता की गाई कव्वाली हक अली मौला को उन्होंने अपने अंदाज में गाया, जो कैसेट के रूप में सामने आया. कैसेट जबरदस्त हिट हुआ.

नुसरत को पाकिस्तान से बाहर जाने का पहला मौका मिला. वो भारत आए. बंबई, जहां राज कपूर ने अपने बेटे ऋषि कपूर की शादी में कव्वाली के लिए नुसरत फतेह अली खां को बुलाया था. यह बात है 1979 की. इससे पहले राज साहब की शादी में नुसरत का परिवार आया था. मतलब उनके पिता और चाचा. बेटे की शादी में अगली पीढ़ी की बारी थी.

राज साहब ने नुसरत की आवाज सुनी तो पाकिस्तान के मशहूर कलाकार मुहम्मद अली के जरिए उन्हें भारत आने का आमंत्रण दिया. ऋषि कपूर की शादी में हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के सभी बड़े सितारे मौजूद थे. वहां लोग किसी आम शादी की तरह आ-जा रहे थे. लेकिन कुछ ही मिनटों में नुसरत की आवाज ने जादू किया. नुसरत के तबला वादक दिलदार हुसैन के अनुसार रात दस बजे कव्वाली शुरू हुई थी. सुबह सात बजे तक महफिल जारी रही. उन्होंने ढाई घंटे तक ‘हल्का-हल्का सुरूर’ गाया था. उसी दौरे में उन्हें अजमेर शरीफ में ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की मजार पर गाने का मौका दिया गया था.

1979 में ही नुसरत ने निकाह किया. अपने चाचा सलामत अली खां की बेटी नाहिद से. 1985 में नुसरत ने ब्रिटेन में कॉन्सर्ट किए. इंग्लैंड में मोहम्मद अयूब ने उन्हें पहली बार बुलाया था, जिनकी ओरिएंटल स्टार एजेंसी थी. यह एक प्रोडक्शन हाउस था. नुसरत इंग्लैंड में जो भी गाते उसे रिकॉर्ड किया जाता. उनकी मौत के वक्त ओरिएंटल स्टार एजेंसी ने 61 सीडी रिलीज की थीं.

16 अगस्त 1997 में दुनिया को अलविदा कह गए नुसरत 

सौ से ज्यादा कैसेट और 22 वीडियो उनकी तरफ से बाजार में आए थे. उन्होंने कुछ प्रोग्राम गुरुद्वारों में किए, जहां उनके गाए शबद बहुत पसंद किए गए. पूरी दुनिया में उनका नाम फैलने लगा. 1989 में पहली बार वो अमेरिका गए. उन्होंने दुनिया के तमाम बड़े संगीतकारों के साथ काम किया. पीटर गैब्रियल ने उनके संगीत को विश्व प्रमोट करने का काम किया. नुसरत साहब ने कव्वाली आर्टिस्ट के तौर पर सबसे ज्यादा एलबम लाने का रिकॉर्ड बनाया.

गिनीज वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में 2001 के मुताबिक उन्होंने 125 एलबम रिलीज किए थे. खाड़ी और ऐसे देश जहां पाकिस्तानी बड़ी तादाद में हैं, वहां तो वो गए ही, नॉर्वे, स्वीडन, डेनमार्क, जापान और दक्षिण अफ्रीका में भी गाया. करीब 40 मुल्कों में उनके कार्यक्रम हुए. नुसरत साहब की मौत 16 अगस्त 1997 को हुई. उनकी किडनी और लिवर फेल हो गए थे. उन्हें किडनी ट्रांसप्लांट के लिए लॉस एंजिलिस ले जाया जा रहा था. बीच में तबीयत ज्यादा खराब होने की वजह से लंदन के अस्पताल में ले जाया गया, जहां दिल का दौरा पड़ा. उनकी मौत हो गई. उनके शव को फैसलाबाद लाया गया, जहां उन्हें सुपुर्द-ए खाक किया गया.