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झारखंड: इन मांओं को आज भी है बेटे का इंतजार

रिनपास अस्पताल परिसर में रह रही महिलाएं बस यही आखिरी ख्वाहिश पाल रही हैं कि उनकी कहानी आशा की तरह न हो.

Brajesh Roy

आजादी की चाहत किसे नहीं होती ? खुली हवा में सांस लेना और जिंदगी को अपने अंदाज से जीना कौन नहीं चाहता ? पिंजरे में बंद कोई पंछी हो या चारदीवारी में कैद हम जैसे किसी की जिंदगी हो, पर आजादी का असली मतलब और उसकी असली कीमत वही जानता है जो गुलामी देख रहा हो. किसी बंधन या किसी जंजीरों में कैद हो. 70 बरस की आजादी मना रहे देश में ऐसा सोचना कई लोगों के लिए संभव न हो, पर ये स्याह सच 60 से ज्यादा महिलाओं की कहानी है. मानसिक अस्पताल में कैद उन मां, बहन और बेटियों के किस्से हैं जो दिमाग से स्वस्थ हो गई है. पर उनके अपनों ने दिल से उन्हें दुत्कार रखा है. आज चारदीवारी में कैद होकर रह गई उनकी बेबस जिंदगी इंतजार है अपनों की एक चिट्ठी का.

क्या है पूरी कहानी...


रांची से करीब 15 किलोमीटर दूर कांके प्रखंड में स्थित है 'रांची न्यूरो इंस्टीट्यूट ऑफ सायकेट्री एंड एलयाड साइंसेस यानि रिनपास, आगरा के बाद उत्तर और पूर्व भारत का सबसे बड़ा मानसिक रोगियों का यह अस्पताल झारखंड के अलावा, बिहार, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडू जम्मू श्रीनगर और गुजरात के कई मानसिक रोगी यहां इलाजरत हैं. 500 बेड वाले इस अस्पताल में इस वक्त 618 लोगों का इलाज चल रहा है.

इलाजरत रोगियों में महिला मरीजों की संख्या 218 है पर इससे ज्यदा बड़ी समस्या है कि महिला वार्ड में 40 महिलाएं ऐसी है जो अब मानसिक रूप से पूरी तरह स्वस्थ हो चुकीं हैं. लेकिन फिर भी वो यहीं अपनी जिंदगी दूसरे मानसिक रोगियों के साथ गुजरने को विवश हैं. उन्हें अपने घर ले जाने वाला कोई नहीं है. इसके अलावा 22 और महिलाएं इस फेहरिस्त में अगले कुछ दिनों में जुड़ जाएंगी जिनका इलाज आखिरी चरण में है. विडंबना यह भी है कि तेजी से ठीक हो रहीं महिला मरीजों के बारे में भी पूछने यहां कोई नहीं आता.

लड़खड़ाते बोल और जमे आंसुओं का दर्द हैं यहां....

उत्तर प्रदेश की माधुरी देवी के लिए पिछले 25 सालों से रिनपास का बरामदा उसका पूरा संसार सा है. सालों पहले बीमारी के इलाज के लिए घर वाले जबरन उसे यहां भर्ती करा गए थे. फिर उन्हें लेने आज तक कोई नहीं आया. माधुरी बताती हैं कि उनका बेटा सरकारी अधिकारी है, बहू और पोते-पोतियों से भरा पूरा घर होगा. पर बेटे को डर है कि मानसिक अस्पताल से आई मां उनके साथ रहने लगी तो उसकी सामाजिक प्रतिस्ठा मिट्टी में मिल जाएगी. ये बताते-बताते माधुरी देवी की सुखी आंखों से आंसुओं का सैलाब आ गिरता है.

सिर्फ माधुरी देवी ही नहीं, 23 सालों से बाहरी दुनिया से कटी बंगाल की हेमलता की कहानी भी ऐसी ही है. फर्क बस इतना है कि उसे अपनों से अब कोई उम्मीद नहीं बची. वो कहती हैं कि अब उनकी अर्थी ही इस चारदीवारी से बाहर जाएगी. क्योंकि जीते-जी उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है.

चिट्ठी न कोई संदेश, वो जाने कौन सा प्रदेश...

ऐसा नहीं है कि अस्पताल प्रबंधन की ओर से इन महिलाओं की सच्ची आजादी के लिए कोई प्रयास नहीं किया गया. जब ठीक हो चुके मरीजों को ले जाने कोई नहीं आता, तो रिनपास प्रबंधन की ओर से उन्हें रजिस्टर्ड पोस्ट से चिट्ठी भी भेजी जाती है. रिनपास के मेडिकल सुप्रिटेंडेंट डॉ अशोक कुमार नाग बताते हैं कि ‘पूरी तरह स्वस्थ हो चुके मरीजों के परिजनों को अस्पताल प्रबंधन ने दर्जनों बार खत लिखा, उनसे संपर्क करने की कोशिश भी की. लेकिन जवाब देना तो दूर आधे लोगों ने तो खत रिसीव करने से भी इंकार कर दिया.

कुछ का दिया पता गलत निकला, तो कुछ अपनों को अस्पताल में छोड़ जिंदगी में आगे बढ़ जाने की लाचारी दिखाते रहे. हालांकि हम अब भी इसी कोशिश में लगे हैं ताकि अस्पताल में दूसरे मरीजों के लिए जगह खाली हो, और ठीक हो चुके लोग आजाद हवा में मुख्यधारा के साथ जुड़कर अपनी अपनी बची हुई जिंदगी अपनों के बीच बिताए’.

पुनर्वास की पहल जीने का मकसद दे रही है...

कहते हैं जिनका अपना कोई नहीं उनका भगवान होता है. यहां भी रहने वाले लोगों के साथ ऐसा ही है जिनका भगवान अस्पताल प्रबंधन और सरकार ही है. जिन लोगों को अपने घर ले जाने वाला कोई नहीं, उनके लिए अस्पताल प्रबंधन ने पुनर्वास केंद्र बनाया है. अस्पताल परिसर में मौजूद इस केंद्र में देश के अलग-अलग राज्यों की 40 महिला मरीज हैं, जिन्हें सिलाई-कढ़ाई और बुनाई का प्रशिक्षण दिया जाता है.

इनके द्वारा बनाई गई चीजें दूसरे मरीजों और अस्पताल के स्टाफ के काम आती हैं. इन महिलाओं के हाथों बनाई हुई चीजों का मेहनताना भी अस्पताल प्रबंधन की तरफ से इन्हें दिया जाता है. पुनर्वास केंद्र में एक परिवार की तरह रह रहीं इन महिलाओं को अब मशरूम की खेती भी सिखाई जा रही है.

मेडिकल सुप्रिटेंडेंट डॉ अशोक कुमार नाग के अनुसार ये एक छोटी सी पहल है ताकि ये लोग जब बाहरी दुनिया में जाए तो आत्मनिर्भर रहें. साथ ही आगे की जिंदगी के लिए, लोगों के बीच घुलने-मिलने में इन्हे कोई दिक्कत ना आए. पर कुछ भी कर लिया जाए, स्वस्थ हो चुकी महिलाओं के लिए 250 एकड़ में फैला ये अस्पताल गुलामी की जंजीरों की तरह ही है, जहां वो आजाद हैं, गुलामों जैसे ही.

आखिरी सांस तक रहेगा इंतजार...

कुछ दिनों पहले मुंबई की आशा साहनी की कहानी ने हम सब को झकझोर दिया था. बेटा अमेरिका की चकाचौंध में था, और मां तनहाई में रहने को मजबूर थी. सालों बाद जब अमेरिका से बेटा लौटा तो मां नहीं मां का कंकाल उसका इंतजार कर रहा था.

ये एक घटना नहीं, कड़वा सच है अपनों से पराए होती दुनिया का. रिनपास अस्पताल परिसर में रह रही महिलाएं बस यही आखिरी खवाईश पाल रही हैं कि उनकी कहानी आशा की तरह न हो. क्योंकि इनके अंदर की आशा अब भी जिंदा है. ये हसरत जिंदा है कि एक बार उनकी आंखें भी खुली हवा में जश्न-ए-आजादी का उत्सव मनाए. उनकी आंखें भी आजाद जिदगी के रंग देख सके.

नहीं तो फिर ऐसे परिवार और अपनों का क्या जो फेसबुक और व्हाट्सऐप पर दुनिया से जुड़े हैं ? उनके अपने इस मानसिक अस्पताल में उनकी एक झलक को तरस रहे है, दो शब्द बोलने को जिनके लब आतुर बैठे है. ये समझने वाली बात है कि बीमार कौन है- वो जो कभी मानसिक बीमार थे. और अब स्वस्थ्य जिंदगी बिता रहे हैं, या वो जो कभी स्वस्थ थे, आज झूठी शान के लिए अपनी मां बहन और बेटियों को मानसिक रोगियों के बीच छोड़ने को अपनी शान समझ रहे है. अपनों ने अपने दरवाजे भले बंद कर दिए हों पर यहां ठीक हो चुके 60 लोग और अस्पताल दोनों के दरवाजें अपनों के इंतज़ार में 24 घंटे खुले हैं.