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हाशिए पर...पार्ट-3: कहानी सड़क पर जादू दिखाने वाले मदारियों की, जो पेट पालने के लिए अंधविश्वास का सहारा लेने लगे हैं

कला की सही कीमत ना लगे तो गरीबी में पेट पालने के लिए यह सब करना पड़ता है

Kumari Prerna Shubham Singh

हाशिए सीरीज पार्ट-1 की कहानी पढ़कर इशामुद्दीन ख़ान ने हमें ढूंढते हुए फेसबुक पर मेसेज किया. हाय प्रेरणा, मैंने आपकी सपेरों वाली स्टोरी पढ़ी. वह सपेरों की जिंदगी पर लिखी एक बेहतरीन और ज्ञानवर्धक स्टोरी थी. सपेरों जैसी ही सड़क पर प्रस्तुति देने वाली 6 अन्य जनजातियां हैं, जो हाशिए पर चली गई हैं. सरकार की ग़लत पॉलिसी और कानून का शिकार हो चुकी इस जनजाति की पहचान अब मिटने के कगार पर है. मैं चाहता हूं कि आप अपनी इस सीरिज की अगली स्टोरी हम पर करें. सड़क पर प्रस्तुति देने वाले जादूगरों पर.

    हिंदू कहते बजरंग बलीमुसलमान कहते हजरत अली


       होता है जो दुनिया मेंये उसी का खुलासा

        नसीहत का नसीहततमाशा का तमाशा

                  ये जादू नहीं कला है!

हाथ में डमरू लिए दिल्ली के वजीरपुर इंडस्ट्रीयल एरिया में 12 साल का साबीर कुछ इन्हीं शब्दों के साथ लोगों की भीड़ इकट्ठा कर रहा है. बीच-बीच में हमें टोक कर यह समझाने कि भी कोशिश कर रहा है कि हम जादू नहीं करते, कला दिखाते हैं. जादू जैसा तो कुछ होता ही नहीं, लेकिन मुंह से लोहे के गोल-गोल गेंद निकाल देना, हाथ से 10 रुपए का सिक्का गायब कर देना, सिर धड़ से अलग कर के जोड़ देना जैसी चीज हमारे लिए जादू ही होती है. हमें यह कभी विश्वास ही नहीं होता कि यह भी एक कला है.

ऐसे में आदतन हम उसे बार-बार जादू दिखाने की बात कर देते. साबीर अभी इस खेल में नया है इसलिए भीड़ जुटाने का काम उसे दिया गया है. बाकी के कामों के लिए रियाकत, वाजिद और उनके एक सहयोगी साथ में हैं.

साबीर के ठीक सामने जादूगर वाजिद बैठे हैं. वाजिद रिश्ते में इशामुद्दीन के साले लगते हैं. बीते रोज जब हम इशामुद्दीन से मिलने गए थे, तो हमने उनसे मदारी का खेल देखने का अनुरोध किया था. हमारे अनुरोध को देखते हुए उन्होंने ही हमें सुबह-सुबह वजीरपुर भेजा. वजीरपुर पहुंचने के बाद हमें यह देखने को मिला कि यहां केवल साबीर और उसकी मंडली नहीं है, बल्कि कई मंडलियां थोड़ी ही दूरी पर भीड़ जुटाए करतब दिखा रही हैं.

हाथ में डमरू लिए लोगों की भीड़ जुटाने में लगा साबिर. फोटो साभार- शुभम सिंह

फिलहाल खेल शुरू होने में थोड़ा वक्त है. इस बीच साबीर एक हाथ से डमरू बजा रहा है तो दूसरे से झोले में रखे सांप को धीरे-धीरे बाहर निकालकर आसपास के लोगों को जादू देखने के लिए आकर्षित कर रहा है. ठीक-ठाक भीड़ इकट्ठा होने के बाद वाजिद ने अपना खेल शुरू किया.

सांप का डर और छोटे-मोटे करतब से शुरू हुआ यह खेल सवा घंटे में कब ग्रहों के प्रकोप पर आ गया, भनक भी नहीं लगी. खेल देख रहे दर्शकों में उत्सुकता बढ़ती जा रही थी, लेकिन वाजिद किस तरह उन्हें अपनी जुबान और हाथ की सफाई में फंसाते चले जा रहा थे, पता ही नहीं चल रहा था.

खेल खत्म होते होते वाजिद अपने साथ लाए अजमेर के रत्न बेचने लग गए. खरीदने वाले छोटे शहर से आए मजदूर,उसमें अपना खुदा ढ़ूंढ़ने लगे. बात कला से शुरू होकर नीलम, मोती, मूंगा के अंगूठी तक पहुंच गई.

खेल के समापन का यह तरीका पहले से ही तय था. ऐसे में यह सबकुछ निपटा कर वाजिद तुरंत हमारे पास आएं और हाथ मिलाकर पूछने लगे,

क्या साहब कैसा लगा ?

रत्न बेचने की क्या जरूरत थी, हमने आश्चर्य से पूछा.

वो खेल से कमाए पैसों को गिनते हुए कहने लगे, ' देखिए अगर हम केवल खेल दिखाते तो हमें 120 रुपए ही मिलते, इसे चार भाग में बांटेंगे तो हर एक शख्स को 30 रुपए पड़ेगा. शादीपुर से वजीरपुर आने में भी पैसे लग जाते हैं, ऐसे में घर कैसे चलेगा?  हमने रत्न बेचा तो कम से कम 820 रुपए तो कमा लिए.

कला की सही कीमत ना लगे तो गरीबी में पेट पालने के लिए यह सब करना पड़ता है!

बात यहीं पर आके रुक गई. हम सोचने लग गए कि क्या आधुनिकता और रफ्तार के पहिए पर सवार दिल्ली भी अंधविश्वास के नाम पर ठगी जा सकती है? और क्या हुनर की कीमत अंधविश्वास के मुकाबले इतनी कम है?

दिल्ली में इस बात का अनुभव हम इशामुद्दीन के कारण ही कर पाए थे.

क्या भारत में मदारी के खेल का असली स्वरूप यही है?

इशामुद्दीन ने जिस दिन हमें मैसेज किया था, उसके ठीक चार दिनों बाद हम उनसे मिलने शादीपुर बस डिपो के पास बने अस्थायी कैंप में गए थे. इशामुद्दीन का परिवार कठपुतली कॉलोनी से हटाए गए उन 3000 परिवारों में से एक है, जिन्हें फ्लैट देने के नाम पर डीडीए ने पिछले साल 4 किलोमीटर दूर एक अस्थायी कैंप में बसाया था. इस कैंप में मदारियों के कुल 50 परिवार रहते हैं. कैंप का सबसे पहला ही कमरा इशामुद्दीन का है. कमरे के ठीक बाहर और गली की शुरुआत में उनकी बीवी अंडे और चाय की दुकान लगाई हुई हैं. आसपास के लोगों से हमारा परिचय कराने के बाद इशामुद्दीन हमें अपने कमरे में ले गए.

इशामुद्दीन की पत्नी, फोटो साभार- शुभम सिंह

आपको बता दें इशामुद्दीन मदारी जनजाति से ताल्लुक रखते हैं और सड़क पर जादू/करतब दिखाना इनका पेशा है. उन्होंने आज से बाईस साल पहले ' द ग्रेट इंडियन रोप ट्रिक ' के नाम से मशहूर एक हैरतअंगेज कारनामा किया था. उनकी इस प्रस्तुति के बाद उन्हें भारत से ज्यादा दुनियाभर में सराहा गया और देखते ही देखते वो विश्व के बीसवें और एशिया के नम्बर वन जादूगर बन गए.

क्या है रोप ट्रिक?

'द ग्रेट इंडियन रोप ट्रिक'  के नाम से पहचाने जाने वाले इस करतब में लगभग बीस फुट लंबी एक रोप (रस्सी) को बीन की धुन पर बास्केट (टोकरी) से बाहर निकाला जाता है. फिर यह रोप हवा में ऊपर जाता है और उसपर एक बच्चा करतब दिखाते हुए चढ़ता और उतरता है.

इशामुद्दीन द्वारा 90 के दशक में की गई रोप ट्रिक की वीडियो का स्क्रीनशॉट

ऐसा माना जाता है कि इस खेल का आविष्कार भारत में हुआ है. हालांकि इतिहास में इसका कोई ठोस प्रमाण नहीं मिलता लेकिन इब्न बतूता की डायरी और जहांगीरनमा नामा में कहीं कहीं इसका उल्लेख जरूर किया गया है.

इशामुद्दीन के बारे में जो हमने इंटरनेट पर पढ़ा और देखा, उस हिसाब से उनकी आभासी स्थिति और वास्तविक स्थिति में ज़मीन आसमान का फर्क है.

इशामुद्दीन बताते हैं...

इशामुद्दीन को जादू की कला विरासत में मिली थी. उनके पिता भी मदारी ही थे. जगह-जगह घूम कर सड़क पर अपनी कला का प्रदर्शन किया करते थे. बचपन से ही वह छोटे-मोटे जादू या यूं कहे कला का प्रदर्शन कर लिया करते थे.

अस्सी के दशक में जब जादूगरों पर किताब लिखने के सिलसिले में ‘ली सीगल’ भारत आए तो इशामुद्दीन की मुलाकात उनसे हुई. इस दौरान कई लोग भारत आते और यहां के लोगों से बातचीत कर के दी ग्रेट इंडियन रोप ट्रिक के बारे में लिखते. दिक्कत केवल यह थी कि अब तक किसी ने इसे प्रत्यक्ष रूप से होते नहीं देखा था. केवल कहानियां ही कही और लिखी गई थीं.

यह सब देख इशामुद्दीन को दिलचस्पी इसमें बढ़ गई. उन्होंने पढ़ाई छोड़कर अपने पारंपरिक व्यवसाय में रुचि लेना शुरू कर दिया. वह भारत में ही शुरू हुई इस कला को एक नए मुकाम पर पहुंचाना चाहते थे.

इशामुद्दीन का घर. फोटो साभार-शुभम सिंह

6 साल तक शोध करने के बाद और आखिरकार उन्होंने 'दी ग्रेट इंडियन रोप ट्रिक' कर के दिखाया. इसके बाद उनके इस करतब की चर्चा विदेशों तक हुई. उन्होंने फ्रांस से लेकर इटली तक कई प्रोग्राम किए. इशामुद्दीन पर कई शॉर्ट फिल्म और डॉक्यूमेंट्री भी बनीं. इनमें से एक 'मैजिक कैन वेट' है. इस डॉक्यूमेंट्री को देखने के दौरान इशामुद्दीन की कही एक बात मेरे जहन में बैठ गई. फिल्म में वो फिल्मकार केंट डैहल से कहते हैं, 'इंडिया इज़ डिफरेंट-यहां के लोग सॉफ्टवेयर इंजीनियर बनना चाहते हैं.जब मैं बचपन में स्कूल जाया करता था तो मेरे साथ पढ़ने वाले मुझे मदारी-मदारी कहकर चिढ़ाते थे. हमारे हुनर को हीन भावना से देखा जाता है. बल्कि विदेशों में हालात इसके ठीक उलट हैं.'

दुनिया भर में नाम कमाने के बाद भी आज भारत में न तो इशामुद्दीन को ना ही उनके समुदाय के इस खेल को वो पहचान मिली जिसके वो हकदार थे.

दिन प्रतिदिन मदारी समुदाय की बिगड़ती चली जा रही स्थिति पर वह कहते हैं , हमारी इस अवस्था के पीछे कई कारण हैं, इसमें 1984 के दंगे के तुरंत बाद पुलिस का स्ट्रीट परफॉर्मर पर कड़ा रुख अख्तियार करना और दूसरा बॉम्बे प्रिवेंशन एक्ट सबसे प्रमुख है.

क्या है दी बॉम्बे प्रीवेंशन ऑफ बेगिंग एक्ट, 1959?

बॉम्बे प्रीवेंशन ऑफ बेगिंग एक्ट, 1959 ,भीख मांगने को अपराध मानता है. इसके अनुसार पुलिस किसी भी वक्त एक भिखारी को गिरफ्तार कर सकती है.पहली बार भीख मांगते हुए पकड़े जाने पर एक साल और दूसरी बार पकड़े जाने पर तीन से 10 साल तक कैद की सजा का प्रावधान है. चूंकि भीख मांगने की प्रथा पर रोक लगाने संबंधित अभी कोई केंद्रीय कानून नहीं है इसलिए इस मामले में ज्यादातर राज्य ‘बॉम्बे प्रिवेंशन आॅफ बेगिंग एक्ट 1959' का ही अनुसरण करते आए हैं.

बीते आठ अगस्त को दिल्ली हाई कोर्ट ने इस दमनकारी एक्ट को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई करते हुए भीख मांगने को आपराधिक मामला मानने से इनकार कर दिया और इसके लिए दंड के कानूनों को निरस्त कर दिया. दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा दिए गए इस फैसले से माना जा रहा था कि सड़क पर अपना करतब दिखाने वाले लोगों में अपने पेशे को लेकर एक उम्मीद जगेगी. इस पर इशमुद्दीन खान कहते है,

'सबसे पहली चीज़, जो हमें परेशान करती है कि हमें भिखारी क्यों माना गया. उसका आधार क्या है. हमने अबतक जो हुनर सीखा है उसी को दिखाकर लोगों का मनोरंजन करते आए हैं. हमें लंबे समय से भिखारी मानकर इस अमानवीय कानून के तहत बंद करना ही गलत है.'

इन सब कारणों के अलावा एक और बात जो सड़कों पर करतब दिखा रहे इन जादूगरों को हाशिए पर जाने को मजबूर करती है, वह इस खेल को लेकर हमारे अंदर का पूर्वाग्रह है.

मदारी फारूक शेख का परिवार. फोटो साभार- शुभम सिंह

जहांगीरपुरी में रहने वाले और पिछले कई दशकों से इस खेल को दिखाने वाले फारुक शेख कहते हैं, हमारे खेल और खिलाड़ियों को सम्मान की नजरों से नहीं देखा जाता है. हम मदारी समुदाय से आते हैं जो कि एक घुमंतू जनजाति है.

सरकार ने न तो हमारे करतब को प्रोत्साहन देने के लिए कोई योजना बनाई और न ही हमें मूलभूत सुविधाएं देने के लिए कोई ठोस कदम उठाया. नतीजा हम आर्थिक रूप के साथ साथ सामाजिक रूप से भी पिछड़ते चले गए.

मदारी समुदाय का मुख्यधारा से नहीं जुड़ पाने का एक और कारण जाति प्रमाण पत्र का नहीं बन पाना है. दिल्ली एनसीआर मिलाकर मदारियों के कुल एक हज़ार परिवार होंगे. इनमें इक्का दुक्का लोग ही ऐसे हैं जिनका जाति प्रमाण पत्र बना है. इशामुद्दिन इनमें से एक हैं.

अपना अनुभव साझा करते हुए वो कहते हैं, ' मेरा जाति प्रमाण पत्र दो साल पहले ही बना है. इसे बनाने के लिए मुझे बारह हज़ार रिश्वत देने पड़े थे .'

रिश्वत क्यों ?

' क्योंकि जाति प्रमाण पत्र बनाने वाले अधिकारी ने कहा था कि किसी दो गजेटेड (राजकीय) अधिकारी से लिखवाकर लाए कि वह मुझे चौदह साल से जानते हैं. चूंकि मेरे संपर्क में ऐसा कोई राजकीय अधिकारी नहीं था इसलिए मुझे रिश्वत देकर काम निकालना पड़ा '.

घुमंतू जनजाति के लोगों के साथ जाति प्रमाण पत्र बनाने में आने वाली यह दिक्कत आम है. जिस जनजाति का कोई स्थायी ठीकाना नहीं है, वह जाति प्रमाण पत्र बनाने के लिए बिजली बिल, पानी का बिल, स्थायी निवास का पता,दो गजेटेड ऑफिसर का सबूत कहां से लेकर आएगी?

ऐसे में समुदाय को जाति प्रमाण पत्र बनवाने में आ रही जटिलता इनके सामाजिक उत्थान में एक बाधा बनकर खड़ी है.

प्रधानमंत्री की कौशल विकास योजना में भी नहीं मिली मदारी समुदाय की कला को पहचान

प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना – PMKVY एनडीए सरकार की महत्वाकांक्षी स्किल ट्रेनिंग स्कीम है. इसके अंतर्गत केंद्र सरकार युवाओं को रोजगार के लिए स्किल ट्रेनिंग कोर्सेज प्रदान करती है. ये कोर्सेज ट्रेनिंग सेंटर में कराए जाते हैं. इस स्किम के तहत देश के नौजवानों को सिलाई, बुनाई, ब्यूटिशियन, कंप्यूटर आदी की ट्रेनिंग देकर कुशल बनाया जाता है. इस योजना के तहत ऐसे 219 कोर्सेज चलाए जाते हैं, लेकिन इनमें कहीं भी जादूगरी, मदारी, जगलर, एक्रोबैट जैसे खेलों को नहीं शामिल किया गया. जबकी अगर सरकार इस संदर्भ में सोचे तो स्कूल के बच्चे, यहां तक कि कॉलेज के छात्र भी ऐसे कोर्सेज में अपनी दिलचस्पी दिखाएंगे. भला कौन जादूगरी जैसी कला नहीं सिखना चाहता?

आप विश्वास नहीं करेंगे कि जिस कला को हम और आप हीन भावना से देखते हैं, उस कला की विदेश में कितनी पूछ है. जिस कला की कीमत हम 120 रुपए लगाते हैं, उस कला की कीमत विदेशों में 10 हजार पाउंड से भी अधिक है.

ऐसे में कैसे सुधरेगी इनकी स्थिति?

मदारियों की स्थिति सुधारने के लिए भारत सरकार को न्यूजीलैंड, यूके जैसे देशों  में चल रही बस्किंग पॉलिसी से सीखना चाहिए. बस्किंग पॉलिसी के तहत सड़क किनारे करतब दिखाने वाले लोगों को सरकार लाइसेंस मुहैय्या कराती है. इसमें एक बार रजिस्ट्रेशन करा लेने के बाद रजिस्टर हुए कलाकारों को वहां के प्रशासन द्वारा सड़क पर करतब दिखाने की पूरी छूट मिल जाती है. यह सड़क या जगह पहले से ही तय रहती है. इन जगहों का चुनाव सरकार खुद करती है. इस पॉलिसी के तहत अगर किसी कलाकार को उसके करतब दिखाने पर  न्यूनतम राशि की कमाई नहीं हो पाती है तो इस बात का पूरा ख्याल रखा जाता है कि उन खिलाड़ियों को कम से कम न्यूनतम राशि मिले.अलग-अलग देशों में इसके परमिट की प्रक्रिया उस देश के कानून के हिसाब से निर्धारित की जाती हैं.

इसके अतिरिक्त सरकार एक ऑटोनोमस अकादेमी की स्थापना कर सकती है, जो आम लोगों में जादूगरी, मदारी, जगलर, एक्रोबैट जैसे खेलों के प्रति लोगों में जागरूकता फैला सके और साथ ही राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर उनके महत्व को बताते हुए उन्हें समय समय पर प्रोत्साहन देते रहें. स्कूल के पाठ्यक्रमों में भी इस तरह के कोर्सों को सम्मलित किया जा सकता है. जिससे इस खेल के बारे में आने वाली पीढ़ी को शुरू से ही पता लग सके साथ ही जिन बच्चों की इसमें रुचि हो वो इसमें भाग ले सकें. सरकार की  टूरिज्म पॉलिसी में  पारंपरिक स्ट्रीट कलाकारों को भी शामिल किया जाना चाहिए. जैसे आईसीएसएआर वीणा, सितार बजाने वाले ऐसे कलाकारों को अंशदान देकर विदेश भेजती है उसी तरह इन कलाकारों को भी बाहर भेजने के लिए फंड मुहैय्या कराने की दिशा में कदम बढ़ाना चाहिए.

Photo courtesy- ISPAT

इशमुद्दीन इस पर कहते हैं, 'हमारी मांग ही यही है कि सरकार कोई ऐसी पॉलिसी लेकर आए, जिससे कि हमारी जो कला है वो जीवित रहे. उसे एक सम्मान भरी नजरों से देखा जाए और आने वाली नस्लें भी उसे सीखने और करने में दिलचस्पी दिखाएं. हमारी सरकार से कभी भी आवास, खाना या मुफ्त का पैसा दे देने की मांग नहीं रही. सरकार अगर हमें कल घर दे भी देगी तो हो सकता है हम उसे बेच कर अपना कर्ज उतार दें. एक सम्मानजनक रोजगार रहेगा तो ऐसे घर हम अपनी कमाई से बना लेंगे. हमें आप सशक्त करें. उसी से हमारी स्थिति कुछ बेहतर हो सकती है.'