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मानुषी छिल्लर का मिस वर्ल्ड बनना अापको बहुत महंगा पड़ने वाला है!

प्रतिभा और मेहनत के अलावा इस तरह की प्रतियोगिताओं में बाज़ार भी एक बड़ा फैक्टर होता है

Animesh Mukharjee

मानुषी छिल्लर 2017 की मिस वर्ल्ड चुनी गई हैं. इससे पहले प्रियंका चोपड़ा को साल 2000 में ये खिताब मिला था. हिंदुस्तान का जो जनता वर्ग आज नौकरी पेशा है, कमा खर्च कर रहा है, वो उस समय स्कूल कॉलेज में था. इस वर्ग के लिए मिस वर्ल्ड/यूनिवर्स से जुड़ा सबसे बड़ा नॉस्टैल्जिया ऐश्वर्या राय और सुष्मिता सेन का खिताब जीतना है.

लंबे समय तक ये चर्चा चलती रही कि 90 के दशक में लगातार मिले ये खिताब भारत में अर्थव्यवस्था खुलने के बाद विदेशी निवेश के लिए मिले अवसरों को भुनाने के लिए दिए गए थे. हम मानुषी या दूसरी किसी भी ब्यूटी पेजेंट प्रतिभागी की प्रतिभा और मेहनत पर सवाल नहीं उठा रहे हैं, लेकिन ये भी सच है कि दुनिया भर के बाजारों का असर इन प्रतियोगिताओं पर पड़ता है. अगर ऐसा है तो अब किस वजह से दुनिया की फैशन इंडस्ट्री की निगाहें भारतीय सुंदरता पर इनायत हुई हैं. चलिए आंकड़ों के जरिए समझते हैं.


24 रुपए के खर्च को बढ़ाना

आपको वीको, लाइफबॉय, बबूल, अफगान स्नो, बोरोलीन और इमामी जैसे नाम याद हैं. 90 के दशक तक देश के बड़े वर्ग के लिए सौन्दर्य प्रसाधन का मतलब यही नाम थे. आज ये सारे नाम हाशिए पर चले गए हैं और इनकी जगह ओले, रेवलॉन, गार्नियर जैसे ब्रैंड्स ने ले ली है. दो दशक पहले जहां डव और पियर्स साबुन का इस्तेमाल संभ्रांत परिवारों का शौक माना जाता था. आज बॉडीवॉश, हैंडवॉश शैंपू कंडीशनर लगभग हर मिडिल क्लास परिवार के बाथरूम में दिख जाएंगे.

इंडिया टुडे की 1996 की एक रिपोर्ट कहती है कि 1995 में भारतीयों का प्रतिव्यक्ति कॉस्मेटिक्स पर खर्च 24 रुपए सालाना था. जो उस समय कोरिया, इंडोनेशिया के सुंदरता पर किए खर्च का 10 प्रतिशत या उससे भी कम था. 1995 तक देश में हेयर कलर और जेल का पूरा व्यापार महज 40 करोड़ का था. जबकि चेहरे के मेकअप का टर्नोवर 100 करोड़ था. देश में सबसे ज्यादा इस्तेमाल होने वाला कॉस्मेटिक बालों में लगाने वाला तेल था जो कुल 630 करोड़ का व्यापार था.

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1994 में देश में ब्यूटी पेजेंट का खिताब आता है और 1996 में सिर्फ पॉन्ड्स का बिज़नेस ही सालाना 317 करोड़ हो गया. 80 के दशक में ग्रामीण और अर्धशहरी भारत में जहां लड़कियों का नेलपॉलिश लगाना एक अपराध या विद्रोह माना जाता था. 1996 तक ऐश्वर्या राय की तस्वीरें गृहशोभा और मनोरमा जैसी तमाम पत्रिकाओं में छपने लगी और देखते ही देखते ये स्थिति तेजी से बदल गई.

आज क्या है स्थिति

आज एशिया पैसिफिक (भारतीय उपमहाद्वीप और पूर्वी एशिया) के देश मिलकर दुनिया के पूरे कौस्मैटिक व्यापार का 50 प्रतिशत खर्च करते हैं. और ये 6.5 प्रतिशत सालाना की दर से बढ़ रहा है.

इसके चलते फैशन इंडस्ट्री में एशियनिफिकेशन शब्द का चलन हुआ है. जो एशिया पैसेफिक को ध्यान में रखकर स्किन केयर प्रोडक्ट्स बनाने और लॉन्च करने की योजनाएं बनाता है. एशिया.इन की एक रिपोर्ट बताती है कि 2014 के बाद ऐसे उपभोगताओं की गिनती बढ़ी है जो बेहतर दिखने के लिए महंगा या अपडेटेड प्रोडक्ट तलाश रहे हैं.

उम्मीद से तिगुना

भारत की कॉस्मेटिक्स इंडस्ट्री इस समय 6.5 बिलियन डॉलर यानी लगभग 422 अरब की है. ऐसोचैम के मुताबिक 2025 तक ये बढ़कर 20 बिलियन डॉलर (13 खरब) तक बढ़ जाएगी.

मजेदार बात ये है कि 2013 में ये व्यापार 950 मिलियन का था और तब ऐसोचैम की रिपोर्ट इसके 2020 तक 2 बिलियन डॉलर होने की बात कर रही थी. अचानक से आए इस बूम में पुरुषों के उपभोगता बनने का बड़ा हाथ है.

मगर इस सारे व्यापार में कुछ समस्याएं भी हैं. सबसे पहली समस्या है कि भारतीय अभी भी इस तरह के प्रोडक्ट्स ऑनलाइन खरीदने से बचते हैं. साथ ही साथ हम अपने नाई, ब्यूटीपार्लर और को लेकर पारंपरिक होते हैं. जिसके चलते देश में सुपर लग्ज़री ब्रांड्स का मध्यवर्ग में व्यापार उतनी तेजी से नहीं बढ़ पा रहा है जितने की उम्मीद है. इसमें सिर्फ कॉस्मेटिक्स ही नहीं कपड़े, जूते, घड़ियां और ज्वेलरी जैसे प्रोडक्ट्स भी शामिल हैं. इन प्रोडक्ट्स को अपने भरोसेमंद दुकानों से खरीदने के पीछे एक बड़ी वजह इनका रिश्वत के तौर पर इस्तेमाल होना भी है.

मानुषी छिल्लर की सफलता के पीछे उनकी मेहनत और प्रतिभा का हाथ है मगर व्यापार के नजरिए से देखें तो दो साफ बातें हैं. 90 के दशक में जब भारत की अर्थव्यवस्था में सुंदरता का प्रवेश हुआ तो सारा ज़ोर प्रोडक्ट्स को सस्ता रखने पर था. 99 रुपए की लिपस्टिक और डेढ़ रुपए का शैंपू का पाउच विज्ञापनों का अहम हिस्सा होता था. आज फोकस इंटरनेश्नल प्रोडक्ट्स के इस्तेमाल पर बढ़ गया है. ऐसे में दुनिया भर की कॉस्मेटिक्स संस्थाएं महंगे प्रोडक्ट्स आपकी शेल्फ पर पहुंचाने को कमर कस चुकी हैं.

अगर आपने फैशन इंडस्ट्री पर बनी फिल्म द डेविल वियर्स प्राडा देखी हो तो उसमें एक सीन है जहां मेरिल स्ट्रीप कहती हैं. कई लोग किसी भी मॉल में जाकर कोने में रखा भद्दे से रंग का कोई स्वेटर उठा कर खरीद लेते हैं. दुनिया को ये जताने के लिए कि उन्हें फैशन और इस तरह की चीज़ों से कोई फर्क नहीं पड़ता है.

जबकि उस कोने में वो भद्दे से रंग का स्वेटर भी फैशन इंडस्ट्री के किसी आदमी ने जानबूझकर रखवाया होता है. वही तय करता है कि फैशन की परवाह न करने वाले भी क्या पहनेंगे.