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पुण्यतिथि विशेष: महादेवी के शहर फर्रुखाबाद में उनकी कोई निशानी बाकी नहीं

सिर्फ दुख और वेदना की कवियत्री नहीं हैं महादेवी

Animesh Mukharjee

महादेवी वर्मा के शहर फर्रुखाबाद में पैदा होना मेरे लिए दो तरह से खास रहा है. एक ओर हिंदी की तमाम किताबों में जब भी ‘विरह वेदना की कवियत्री’ के तौर पर जब भी महादेवी का ज़िक्र आता तो एक अपनेपन का अहसास होता था. दूसरा लिखने-पढ़ने से जुड़े रहने के चलते महादेवी के नाम पर होने वाली तमाम साहित्यिक गतिविधियों (कुछ एक को हरकतें भी कह सकते हैं) से पाला पड़ता रहा है.

महादेवी के शहर में उनके नाम पर साल भर में एक दो कवि सम्मेलन वगैरह होता रहते हैं मगर शहर के किसी बुक स्टोर पर आपको महादेवी की किताबें नहीं मिलेगी. कोई संग्रहालय, पुस्तकालय, कॉलेज या ऐसा कुछ भी नहीं मिलेगा जिसके साथ ये शहर अपनी इस साहित्यिक विरासत को आगे बढ़ा सके.


ले दे कर शहर के एक तिराहे पर लगी उनकी एक मूर्ति ही महादेवी और फर्रुखाबाद के बीच बाकी इकलौती पहचान है. अगर कहीं आप उनका घर देखने जाएंगे तो ये तलाश एक गली पर आकर खत्म हो जाएगी.

कुछ साल पहले महादेवी वर्मा के पैतृक घर को किसी ने खरीद लिया था. इस पर साहित्य से जुड़े लोगों ने कई नेताओं और सरकारी संस्थाओं से अपील की कि इस जगह को बचाया जाए. मामला कुछ लाख की मदद पर था इसके बाद आश्वासन आते रहे.

आज स्थिति ये है कि उस गली में कुछ कारखाने खुले हुए हैं जिनमें से महादेवी का घर कौन सा था पुरानी पीढ़ी के कुछ लोगों के अलावा किसी को नहीं पता. अब ये उम्मीद करना बेमानी ही है कि इस दिशा में कोई काम होगा. महादेवी ने लिखा था, ‘पथ को न मलिन करता आना, पदचिन्ह न दे जाता जाना’ हिंदुस्तान के सिस्टम और बाकी सब ने मिलकर ने इसको सार्थक कर दिया. कभी-कभी लगता है कि अगर महादेवी की जातीय पहचान को थोड़ा भुना लिया जाता तो शायद स्थिति दूसरी होती.

पांच साल की उम्र में पहली कविता

महादेवी ने पांच साल की उम्र में पहली कविता लिखी थी जो कुछ इस तरह से थी,

‘ठंडे पानी से नहलाते,

उनका भोग खुद खा जाते,

फिर भी कुछ नहीं बोले हैं,

मां! ठाकुर जी भोले हैं.’

मीरा से अलग थी महादेवी

हिंदी साहित्य में महादेवी को अक्सर आधुनिक मीरा कहा जाता है. कारण ये है कि दोनों ने पीड़ा की बात की है. मगर महादेवी और मीरा की पीड़ा की अनुभूति और उसकी व्याख्या में फर्क है. एक ओर मीरा बार-बार कहती हैं, ‘मीरा की प्रभु पीर मिटै जब वैद संविरया होए’ वहीं महादेवी कहीं भी पीड़ा से मुक्ति की बात नहीं करती हैं. जब महादेवी कहती हैं ‘तुम मुझमें, फिर परिचय क्या’ तो उनकी कविता में प्रेम को पाने के लिए एक तरह से विरक्ति ही दिखती है.

कह सकते हैं कि मीरा के प्रेम में जहां पीड़ा से मुक्ति के लिए प्रेम को पाने की आकांक्षा बाकी है, महादेवी पीड़ा को ही प्रेम मान चुकी हैं. इस बात को वो बार-बार दोहराती हैं. वो कहती हैं, ‘शाप हूं जो बन गया वरदान. बंधन में कूल भी हूं, कूलहीन प्रवाहिनी भी हूं!’

विद्रोह की कविता भी लिखी हैं

महादेवी के बारे में प्रचलित है कि वो विरह-वेदना की कवयित्री रही हैं. मगर जीवन के अंतिम वर्ष में उन्होंने ‘अग्निवीणा’ शीर्षक से कुछ विद्रोह की कविताएं भी लिखी हैं. 'रात के इस सघन अंधेरे में जूझता-सूर्य नहीं, जूझता रहा दीपक!'

हिंदी साहित्य के बड़े संसार में महादेवी एक अलग मुकाम खड़ी दिखती हैं. अपनी कविताओं, रेखाचित्रों और संस्मरणों के साथ वो गिनी चुनी रचनाकारों में है जिन्हें आलोचक ‘महिला’ के टैग के साथ नहीं रख पाते हैं. जबकि खुद महादेवी अपने बारे में कहती हैं,

‘परिचय इतना इतिहास यही,

उमड़ी कल थी मिट आज चली,

मैं नीर भरी दुख की बदली’