1976 की एक सर्द शाम को दिल्ली में हिंदी सिनेमा में संगीत से जुड़े सारे बड़े नाम जमा हुए थे. सिर्फ दो लोग नहीं थे, मोहम्मद रफी और किशोर कुमार. देश में इमरजेंसी लगी हुई थी. इमरजेंसी के सर्वेसर्वा संजय गांधी की फरमाइश पर ये सुरों भरी शाम आयोजित की गई थी.
मोहम्मद रफी लंदन में होने के कारण नहीं थे और किशोर कुमार ने इस कार्यक्रम में आने से मना कर दिया था. इमरजेंसी के दौर में संजय गांधी को न कहने के चलते उनके गाने रेडियो पर बजना बंद हो गए थे. बाद में ये अघोषित बैन हट भी गया था.
संजय गांधी की फरमाइश
इसी कार्यक्रम में संजय गांधी ने लता मंगेशकर से 'ऐ मेरे वतन के लोगों' सुनने की फरमाइश की थी. लता मंगेशकर ने कार्यक्रम के आयोजकों को बताया कि उनके पास वो डायरी नहीं है जिसमें ये गाना लिखा है. और न ही उन्हें ये गाना याद है. ऐसे में दूरदर्शन के प्रोड्यूसर शरद दत्त गायक महेंद्र कपूर ने ग्रीन रूम में दो अंतरे लिखवाए और संजय गांधी की फरमाइश पूरी की गई.
'ऐ मेरे वतन के लोगों' का जिक्र 1962 के युद्ध के सिलसिले में कई बार आता है. चीन से हुए युद्ध के बाद 1963 में एक कार्यक्रम हुआ था, जिसमें लता मंगेशकर ने पहली बार ये गाना गाया था. कई बार दोहराया जा चुका है कि इस गीत को सुनकर पंडित नेहरू रो पड़े थे. इतिहास में अपने इस एक गीत के चलते अमर हो गई इस शाम में कई और बातें भी हुई थीं.
'ऐ मेरे वतन के लोगों' के अलावा उस प्रोग्राम में मिमिक्री का एक शो भी हुआ था जिसमें युद्ध के पूरे माहौल को आवाजों से पैदा किया गया था. उस शो की भी काफी तारीफ हुई थी. इसके अलावा गीतकार प्रदीप ने भी इस प्रोग्राम में दो गाने गाए थे. इस शाम का संचालन दिलीप कुमार कर रहे थे दिलीप कुमार ने जब लता मंगेशकर को स्टेज पर ये गाना गाने के लिए बुलाया तो गीतकार प्रदीप का नाम तो लिया, म्यूजिक डायरेक्टर सी रामचंद्र का नाम नहीं लिया. स्टेज पर उतरने के बाद सी रामचंद्र ने इस बाबत दिलीप साहब से नाराजगी भी जाहिर की.
संगीत में रुचि रखने वाले जानते हैं कि बहुत संभव है कि दिलीप कुमार ने उस समय जानबूझ कर ये नाम न लिया हो क्योंकि लता और सी रामचंद्र की एक अलग कहानी है जिसका जिक्र थोड़ा लुका-छिपाकर होता है.
लता जी और अनिल विश्वास
लता मंगेशकर के करियर की बात की जाए तो दो संगीतकारों का जिक्र जरूर होता है. पहले हैं अनिल विश्वास. कहा जाता है कि अनिल विश्वास ने ही लता मंगेशकर के गायन में उन बारीकियों को पॉलिश किया जिनके चलते वो दशकों तक सुर साम्राज्ञी बनीं रहीं. खुद लता जी भी ये बात कई बार कह चुकी हैं कि अनिल दा ने उनके गले को सबसे अच्छे से समझा.
दूसरे संगीतकार जिन्होंने लता को लता मंगेशकर बनाया, शंकर-जयकिशन हैं. नौशाद जोहराबाई अंबालेवाली और शमशाद बेगम के बड़े फैन थे. मगर शंकर-जयकिशन ने लता मंगेशकर के जरिए कई सुरीले गाने दिए. बरसात पहली ऐसी फिल्म थी जिसमें सारे गाने लता मंगेशकर ने गाए थे. इससे पहले वो फिल्मों में एक-दो गानें तो गा रहीं थी मगर बरसात में हर हिरोइन का प्लेबैक लता ने किया था. यहीं से वो दौर शुरू हुआ जब हर बड़ी फिल्म में फीमेल प्लेबैक लता मंगेशकर के नाम होता था.
बरसात के निर्देशक राज कपूर लता की आवाज के दीवाने थे. सत्यम् शिवम् सुंदरम् फिल्म के पीछे की प्रेरणा भी लता मंगेशकर को बताया जाता है. पहले राज कपूर ये फिल्म नर्गिस को लेकर ‘अजंता’ नाम से बना रहे थे. मदर इंडिया के बाद नर्गिस के सुनील दत्त से शादी कर लेने के चलते ये फिल्म नहीं बन पाई. बाद में ये फिल्म कई बदलावों के साथ बनी और इसके गाने भी एक मिसाल बने.
सुरैया और नूरजहां के दौर में लता मंगेशकर
लता मंगेशकर जब इंडस्ट्री में आई थीं तब शमशाद बेगम और नूरजहां का बोलबाला था. 1947 में नूरजहां पाकिस्तान चली गईं, सुरैया किसी और के लिए प्लेबैक नहीं करती थीं. ऐसे में लता मंगेशकर ने धीरे-धीरे अपनी अलग जगह संगीत की दुनिया में बनाई. मगर लता मंगेशकर का भी शुरुआती सफर आसान नहीं रहा.
संगीतकार गुलाम हैदर ने उनसे शहीद फिल्म में गाना गवाना चाहते थे. मगर फिल्मिस्तान स्टूडियो के शशिधर मुखर्जी ने ये कहते हुए उन्हें रिजेक्ट कर दिया कि इस लड़की की आवाज बहुत बारीक है, चलेगी नहीं. गुलाम हैदर ने एस मुखर्जी से कहा कि आज आप इसको मना कर रहे हैं, कल को आप इसे तलाशेंगे और तब ये लड़की आपके हाथ में नहीं आएगी और तब आपको अफसोस होगा. बाद में शशिधर मुखर्जी ने 'मजबूर' फिल्म में उनसे गाना गवाया और वो गीत सुपर डुपर हिट हुआ.
जाते-जाते लता मंगेशकर का वो ऐतिहासिक गीत सुनते जाइए जो हिंदुस्तान की सबसे भव्य फिल्म की जान है.
(शरद दत्त कुंदन लाल सहगल और अनिल विश्वास की जीवनी के लेखक और संगीत के जानकार हैं. वे लंबे समय तक दूरदर्शन से जुड़े रहे हैं. ये पूरा लेख उनसे की गई बातचीत के आधार पर लिखा गया है)