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जन्मदिन विशेष: हजारों घंटों में मुझे कभी नहीं लगा कि मैं दी ग्रेट लता मंगेशकर से बात कर रहा हूं

अपने करोड़ों प्रशंसकों को धन्यवाद देते हुए लता दी कहती हैं- मेरे चाहने वाले मेरे गानों में मुझे पा लेंगे. मेरे गीतों में मुझे ढूंढ लेंगे.

Shivendra Kumar Singh

आज भारत रत्न से सम्मानित महान गायिका लता मंगेशकर का जन्मदिन है. 28 सितंबर, 1929 को इंदौर में जन्मीं लता मंगेशकर पर हाल ही में एक किताब 'लता सुर-गाथा' प्रकाशित हुई है. इस किताब को राष्ट्रीय सम्मान से पुरस्कृत किया गया. लता सुर-गाथा के लेखक यतींद्र मिश्र और लता जी के 6 साल तक चले संवाद पर आधारित ये पुस्तक दरअसल भारतीय फिल्म संगीत का एक सुनहरा दस्तावेज है.

लता जी के जन्मदिन पर फ़र्स्टपोस्ट के साथ बातचीत में यतींद्र मिश्र ने इस किताब की रचना प्रक्रिया के बारे में चर्चा की है. यतींद्र बताते हैं- 'लता दी से हमारे पारिवारिक संबंध थे. मेरे पिता जी की उदयपुर में महाराणा मेवाड़ के यहां लता दी से मुलाकात हुई थी. ये करीब बीस साल पुरानी बात होगी. तभी से दीदी से बातचीत होती रहती थी. वो हमेशा आशीर्वाद देती थीं. उनके जन्मदिन पर भी उनसे बातचीत होती थी. होली-दीवाली पर बात होती थी. गणपति पर बात होती थी. लता दी के साथ एक तरह का व्यवहार बना हुआ था. हालांकि उससे कहीं पहले मैं बचपन से ही लता दी का दीवाना था जैसे हर दूसरा भारतीय होता है.


मेरी दादी राजकुमारी विमला देवी बचपन में बहुत सारे भजन गाती थीं. फिल्मों के गाने गाती थीं. ढोलक पर गाती थीं. बाद में जब मैं बड़ा हुआ तो पता चला कि वो सारे गाने तो लता मंगेशकर के गाए हुए थे. मैंने अपनी दादी को फिल्म-तूफान और दिया का गाना- पिया कहां गए, फिल्म ‘गरम कोट’ का गाना ‘जोगिया से प्रीत किए दुख होए’, फिल्म ‘शबाब’ का गाना ‘मरना तेरी गली में जीना तेरी गली में’ फिल्म ‘दुर्गेश नंदिनी’ का गाना ‘चंदन की नैया पे होके सवार’ सुना हुआ था.

इस तरह से मैं अपनी दादी के बहाने लता दी के प्रेम में पड़ा. इसके बाद मैंने उनके कैसेट, सीडी और एलपी इकट्ठा करना शुरू किया. लता दी के बहाने से मेरे लिए फिल्म की एक बड़ी दुनिया खुलती चली गई चूंकि मैं लेखक था और लेखकीय जीवन से जुड़ा हुआ था, संगीत के बारे में पढ़ता रहता था. एक बात की मुझे हमेशा कसक थी, पंडित रविशंकर पर आपको एक बेहतरीन किताब मिल जाएगी उनकी लिखी हुई, किसी बड़े पाश्चात्य कलाकार पर भी किताब मिल जाएगी. भारत की महान नृत्यांगनाओं रूक्मिणी देवी और बालासरस्वती के बारे में भी अच्छी किताबें मिल जाएंगी. फिर लता दी के बारे में अच्छी किताब क्यों नहीं है, मुकेश के बारे में क्यों नहीं है या आशा जी के बारे में क्यों नहीं है?

जो कुछ किताबें मौजूद भी हैं, क्षमा के साथ कह रहा हूं कि उनमें ज्यादातर ‘गॉसिप’ ही है या फिल्मी ढंग से लिखी गई है. लता दी पर उस वक्त तक की सबसे गंभीर किताब हरीश भीमानी की थी ‘इन सर्च ऑफ लता मंगेशकर’ जिसमें लता दी को जानने की बहुत ‘इनसाइट’ नहीं मिली.

लता दी के बारे में क्या कुछ जानने की इच्छा थी, इस सवाल के जवाब में यतींद्र मिश्र बताते हैं- 'मैं जानना चाहता था कि लता दी शमशाद बेगम से किस तरह अलग गाती हैं? जब वो एसडी बर्मन या रोशन के गाने को गाती हैं तो किस तरह से फर्क करती हैं? राग छायानट और राग भीमपलासी गाते वक्त क्या ध्यान रखती हैं? मींड और मुर्की लेती हैं तो क्या होता है, इस तरह के सवालों या जिज्ञासाओं का मुझे उत्तर नहीं मिलता था.'

'उस दौरान मैं बहुत सारी किताबों पर काम कर भी रहा था. जिसमें डॉ. सोनल मानसिंह पर आधारित किताब ‘देवप्रिया’ भी थी. जिसे बहुत प्रशंसा मिली और अवॉर्ड मिला. उसी दौरान मेरे दिमाग में आया कि क्यों ना मैं लता दी पर काम करूं. मैंने इस आशय से एक कॉल लता दी को किया और बाद में एक चिट्ठी भी उन्हें भेज दी. लता दी ने उस चिट्ठी को सहज ही लिया और कहा कि नहीं-नहीं बेटा मेरे ऊपर तो पहले ही काफी काम हुआ है.'

फिर लता दी मानीं कैसे, इसका किस्सा बड़ा दिलचस्प है. दरअसल लता दी को अपने एक गाने की तलाश थी जो उन्हें कहीं नहीं मिल रहा था. यतींद्र बताते हैं कि उन्होंने वो गाना लता दी को मुहैया कराया. हालांकि, वो ये भी कहते हैं कि हो सकता है कि लता दी ने उस गाने के बहाने उनका इम्तेहान लिया हो. खैर, जब लता दी मान गईं उसके बाद की रचना प्रक्रिया पर यतींद्र बताते हैं, 'शुरू में लगता था कि मैं लता दी से 15-20 दिन बात कर लूंगा. कुछ 20-25 सवाल कर लूंगा, जिससे मुझे लता दी के बारे में ‘इनसाइट’ मिल जाएगी बाकी मैं लता दी के बारे में लता दी से ज्यादा जानता था. ऐसा मेरा दावा है.'

'ये ठीक वैसे ही था जैसे लता दी कभी सहगल से नहीं मिली थीं लेकिन उनकी फिल्में देखकर उनके गाने सुनकर उन्होंने उनकी एक छवि बनाई थी. वैसे ही मैंने भी लता दी की एक छवि बनाई थी. ये मेरा सौभाग्य है कि लता दी ने 6 साल का वक्त दिया. मैं हमेशा कहता हूं कि ये बड़ी बात नहीं है कि लता दी को मैं जानता था बड़ी बात ये है कि लता दी मुझे जानती थीं और उन्होंने मुछे समय दिया. इस दौरान सबसे बड़ी बात ये रही कि लता मंगेशकर ने मुझे कभी इस बात का अहसास नहीं कराया कि वो ‘द लता मंगेशकर’ हैं  या मैं भारत की सबसे बड़ी गायिका से संवादरत हूं.'

यतींद्र ने महसूस किया कि लता मंगेशकर अपने गाने को लेकर या अपनी महानता को लेकर निरपेक्ष हैं. यतींद्र कहते हैं- 'लता दी की ये छवि 6 साल तक कायम रही मतलब मैं ये कहना चाहता हूं कि अगर बातचीत 6 दिन की होती तो शायद कोई अपनी छवि को प्रोजेक्ट कर सकता है लेकिन मैंने उनसे 365 दिनों के हिसाब से 6 साल यानी हजारों दिनों में कई सौ घंटों की बात की, अगर वो अपनी छवि प्रोजेक्ट कर रही होतीं तो कभी ना कभी उनका असली चेहरा भी उजागर होता ही, लेकिन ये उनकी महानता है कि उन्होंने कभी समवयस्की कलाकार के प्रति ईर्ष्या का भाव नहीं दिखाया, कोई बुरी बात नहीं कही. वो हमेशा कहती थीं कि मेरे बारे में आप जो भी कहिए उससे पहले आप सहगल, जोहरा बाई अंबाला वाली, राजकुमारी, अमीर बाई कर्नाटकी, मुकेश और रफी के बारे में भी कहिए कि वो भी महान थे.'

लता दी अपना जन्मदिन कैसे मनाती हैं, इस पर यतींद्र एक दिलचस्प किस्सा बताते हैं- 'लता दी को उनके जन्मदिन पर बहुत सारे प्रशंसकों के पत्र जाते हैं. प्रभुकुंज के नीचे बहुत से लोग फूल रख जाते हैं, केक रख जाते हैं. गिफ्ट रख जाते हैं. बहुत सारे लोग ऐसे हैं जो कभी लता दी से मिले नहीं हैं लेकिन हमेशा उनके जन्मदिन पर आते हैं. लता दी हमेशा ऐसे लोगों के प्रति अपना आभार जताती हैं. अपने माता पिता को याद करती हैं. पूजा घर में बैठती हैं. फोन का जवाब देती हैं. हम लोग फोन से ही उनसे मुखातिब होते हैं.'

'एक बार का वाकया है कि लता दी को मैं ढूंढ रहा था, वो लैंडलाइन पर नहीं मिल रही थीं. उनकी सेक्रेटरी से पूछा तो उन्होंने भी यही कहा कि थोड़ी देर में बात कराते हैं. फिर मैंने खुद ही कहा कि अगर लता दी बहुत व्यस्त हैं तो मैं उनसे बाद में बात कर लूंगा पता चला कि दीदी के पास इतने फोन आ रहे थे कि वो अपनी भतीजी के साथ कहीं बाहर चली गई थीं. बाद में लौटकर उन्होंने मुझसे और मेरे पिता जी से बात की.'

अपने करोड़ों प्रशंसकों को धन्यवाद देते हुए लता दी कहती हैं- मेरे चाहने वाले मेरे गानों में मुझे पा लेंगे. मेरे गीतों में मुझे ढूंढ लेंगे.

(राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किताब लता सुर-गाथा के लेखक यतींद्र मिश्र से बातचीत पर आधारित)