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जन्मदिन विशेष: जेपी आंदोलन में शामिल बाबा नागार्जुन से 1974 में हुई विशेष बातचीत

उतना बड़ा नाम और उतना ही सहज, सरल और निराभिमानी नागार्जुन ! देखकर हैरत होती थी

Surendra Kishore

चर्चित साहित्यकार बाबा नागार्जुन जेपी के नेतृत्व में चले बिहार आंदोलन में शामिल थे. हालांकि बाद के दिनों में निराश होकर आंदोलन से अलग भी हो गए थे. कुछ आंदोलनकारियों के गलत आचरण को देख कर उन्हें झटका लगा था. कुछ अन्य बातें भी रही होंंगी. आंदोलन से बाहर आकर उन्होंने आंदोलन की सार्वजनिक रूप से कटु आलोचना भी की थी. पर जब तक आंदोलन में थे, पूरे मन से थे.

उन दिनों अक्सर उनसे मेरी मुलाकात होती थी. वह आंदोलन के मंचों से कविता पाठ करते थे. उनकी एक मशहूर कविता विशेष प्रभाव उत्पन्न करती थी जो प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के लिए लिखी गई थी.-‘इंदु जी, इंदु जी,  क्या हुआ आपको ? भूल गईं बाप को ?...............’


उतना बड़ा नाम और उतना ही सहज, सरल और निराभिमानी नागार्जुन ! देखकर हैरत होती थी. उन्हें जो भी थोड़े से पैसे कहीं से मिलते थे, साथ के हमलोगों को खिलाने-पिलाने में खर्च कर देते थे. संग्रह की कोई प्रवृत्ति नहीं. कल की कोई चिंता नहीं.

मैं उन दिनों दिल्ली से प्रकाशित साप्ताहिक ‘प्रतिपक्ष’ का बिहार संवाददाता था. उन दिनों ‘प्रतिपक्ष’ में कमलेश, गिरधर राठी, मंगलेश डबराल, एन.के.सिंह आदि दिग्गज लोग काम करते थे.

जब नागार्जुन को पुलिस ने पकड़ लिया

नागार्जुन से अपनी निकटता का लाभ उठाकर मैंने ‘प्रतिपक्ष’ के लिए एक दिन उनका एक लंबा इंटरव्यू किया. आधी धोती को लुंगी की तरह पहने हुए छोटी सी खिचड़ी दाढ़ी वाले बाबा को शांति निकेतनी झोला लटकाए आंदोलन के किसी मोड़ पर देखा जा सकता था.

सहजता और वेशभूषा में सादगी तो इतनी कि 5 अक्तूबर 1974 को बिहार विधानसभा के फाटक पर बाबा को पुलिस ने पकड़ लिया और पूछा, ‘का नाम बा बाबा ?’

नागार्जुन ने कहा- ‘बैजनाथ मिसिर.’

दूसरा सवाल था- ‘कहां घर बा ? इस पर बाबा ने कहा- ‘दरभंगा जिला’

फिर थोड़ी देर की गपशप के बाद पुलिस ने उनसे कहा कि ‘देखीं मिसिर जी, इहां बड़ा हल्ला गुल्ला बा. रउआ, ऐह रास्ता से पीछे का रास्ता बताते हुए निकल जाईं ना त बेकारे फंस जायेब.’

बाबा ने खैनी पर ताल लगाई और धीरे से खिसक आए. उस सिपाही ने भी यह समझ कर संतोष की सांस ली कि अपने कमाऊ बेटे से मिलने गांव से शहर आए एक बूढ़े को उसने फिजूल परेशान होने से बचा लिया !

सवाल: बिहार के छात्र संघर्ष में आपने और फणीश्वरनाथ रेणु ने जिस तरह सक्रियता दिखाई है, उससे सत्ता प्रतिष्ठान में हलचल मची है और आम लोगों ने साहित्यकारों की जन आंदोलन में अनिवार्य सहभागिता के औचित्य को और तीव्रता से महसूस किया है. क्या तीव्रता में गति आएगी?

नागार्जुन: मुझे लग रहा है कि जन आंदोलन लंबे अरसे तक चलेगा. पहला अध्याय होगा विधानसभा का विघटित होना.

उसके ढाई-तीन महीने बाद ही जनता को नए ताजे विधायक मिलने जा रहे हैं. केंद्रीय सत्ता प्रतिष्ठान ने विधानसभाओं और विधान परिषदों को लोकसभा तक को चंडूखाने में परिवर्तित कर दिया है. हमारी डेमोक्रेसी निष्प्राण और निस्तेज बना कर छोड़ दी गई है. इंदिरा कांग्रेस का ढांचा ही काले धन की बुनियाद पर खड़ा है. ऐसे में हम अपने को प्रस्तुत आंदोलन से कैसे और कब तक अलग रखते?

हम शीघ्र ही लोकतांत्रिक रचनाकार मंच की स्थापना करने जा रहे हैं.

सवाल: साहित्यकारों-रचनाकारों के दूसरे संगठन भी तो हैं. उनमें से दो एक संगठन ऐसे भी रहे हैं जिनसे आपका निकट का संपर्क बना रहा.

नागार्जुन: तुम्हारा जिस संगठन से अभिप्राय है सुरेंद्र, वह मैं समझ गया. प्रगतिशील लेखक संघ न ! सत्ता -प्रतिष्ठान के महाप्रभुओं को प्रगतिशीलता और सदाशयता का प्रमाणपत्र बांटने वाले उन बंधुओं की बात पिछले कई सालों से मेरे अंदर घुटन पैदा करती रही है.

सवाल: साहित्य, राजनीति, समाज और व्यक्तिगत जीवन में क्या आप संतुलन रख पाते हैं ?

नागार्जुन: यह तो बड़ा ही मुश्किल लगता है. अर्ध सामंती और अर्ध औद्योगिक समाज जैसा कि वह है- हमारी प्रखरताओं के पंख कुतरता रहता है. आर्थिक और भौतिक दृष्टि से संपन्न-सुसंपन्न होना बहुत दूर की बात है. यहां तो तृतीय श्रेणी की जीवन यात्रा के लिए उपयोगी सामान जुटा पाना ही दिनोंदिन असंभव होता जा रहा है.

बिहार सरकार पिछले दो तीन सालों से कुछ साहित्यकारों कलाकारों को लाइफ पेंशन देने लगी है. उनमें पहले पहल जिन दो नामों की घोषणा हुई थी, वे गैर कांग्रेसी साहित्यकार थे- नागार्जुन और रेणु. हमने सहज विनम्रता के कारण ही इस वृति को अस्वीकार नहीं किया. लेकिन शंका हुई कि कदाचित इस आॅफर में कहीं कुछ राज न हो !

खैर ,अभिव्यक्ति की अपनी प्रखरता में हमने कमी नहीं आने दी. लिखने का जो अपना ढर्रा था, वह बरकरार रहा. परंतु हमेशा लगता रहा कि फलां फलां तरीका अपनाऊं तो शासन-प्रशासन मुझे अधिकाधिक संतोष प्रदान करेगा. लेकिन नहीं, इस लाभ-लोभ को लाइफ पेंशन की इन्हीं मासिक किस्तों तक सीमित रखे हुए हूं. जी हां,सरकारी खर्चे से एक बार काठमांडू और एक बार मॉस्को हो आया हूं.

हमारे कुछ प्रगतिशील बंधुओं को नेहरू फेलोशिप. मिली थी.जिन तरीकों से यह फेलोशिप मिलती है,वे हमें भी मालूम है. खैर बहती गंगा में हाथ धोने का चस्का लगा होता तो फिर छात्रों की इस भीड़ में हम कैसे खड़े होते !

आजीवन अभावग्रस्त स्थिति में अपने को रखना या पारिवारिक दायित्व से मुंह चुराना कोई ऊंचा आदर्श नहीं है.परंतु बहुजन समाज ही जिस देश में अभावग्रस्त जीवन जी रहा हो, वहां कुछेक साहित्यकार, कुछेक कलाकार ही भला सुखमय जीवन बिताना कैसे कबूल करेंगे ? हां, जिनका संवेदन ठस्स पड़ गया हो या ‘समाज’ की परिभाषा, जिनकी दृष्टि में बदल गई हो, वे अवश्य ही चार दिन अपने-अपने शीश महल में रह लेंगे. समग्र समाज सुखी होगा तो हम भी सुखी होंगे न ? कि अकेले-अकेले कुछ एक सरस्वती पुत्र श्रीमंतों की बिरादरी में शामिल होते चले जाएंगे ?

सवाल: कम्युनिज्म के प्रति अब आपका क्या रुख होगा ?

नागार्जुन: साम्यवाद बहुत ही ऊंचा आदर्श है. परंतु पिछले सालों में साम्यवाद की हमारे देश में जैसी दुर्दशा हुई है उससे दिल दिमाग को झटके लगे हैं.

साहित्य को छोड़कर मैं पूरी तरह राजनीति में आ गया होता और थोड़ी कुछ व्यावहारिकता अपना ली होती तो निश्चय ही साम्यवादी विधायक या सांसद होने का अवसर पा जाता. मगर डांगेपंथी इंदिरा भक्तों के शब्दों में- साहित्यकार है न आखिर ! बुद्धू है ! डायलेक्टिस का क ख ग तक नहीं जानता, कविता लिखना और बात है- यानी मुझे बार-बार यह लगता है कि पार्टी की ‘इनर सर्किल’ में हमेशा वस्तु सत्य की ही विजय नहीं हुआ करती.अक्सर तिकड़म और गुटबाजी उभर -उभर कर आगे आ जाती है.

फिर भी मेरी सत्तर प्रतिशत सहानुभूति सी.पी.एम.के साथ है और तीस प्रतिशत सी.पी.आई, एम.एल के प्रति यूं मैं अपने को निर्दलीय कम्युनिस्ट मानता हूंं.