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जोश मलीहाबादी: एक शायर जो कली के चटकने पर पूछता था- मुझसे कुछ इरशाद किया क्या?

उर्दू की गलतियां ठीक करवाने में जोश को काफी नुकसान उठाना पड़ा लेकिन उन्होंने न ही पाकिस्तान के राष्ट्रपति को बचकर जाने दिया और न पंडित नेहरू ही बच पाए

Rituraj Tripathi

एक दिन कह लीजिए जो कुछ है दिल में आप के...एक दिन सुन लीजिए जो कुछ हमारे दिल में है. ये शेर उर्दू के अजीम शायर जोश मलीहाबादी का है. उनके बारे में कहा जाता है कि वह एक ऐसे शायर थे जो कली के टूटने पर भी पूछ लिया करते थे कि कहीं कोई इरशाद उनके लिए तो नहीं किया गया. उन्होंने लिखा था..इतना मानूस हूं फितरत से कली जब चटकी..झुक के मैंने ये कहा मुझ से कुछ इरशाद किया?

आज जोश मलीहाबादी का जन्मदिन है. उन्हें शब्बीर हसन खान के नाम से भी जाना जाता है.उनकी पैदाइश 1898 में ब्रिटिशकालीन भारत की है. हैरानी की बात यह है कि जोश ने बचपन में घर पर ही अरबी, उर्दू और अंग्रेजी की शिक्षा पाई. लेकिन बाद में आगरा के सेंट पीटर्स कॉलेज में उन्हें दाखिला दिलाया गया.


1916 में पिता की मौत ने जोश को तोड़ दिया और उनकी पढ़ाई बीच में ही छूट गई. दिलचस्प बात यह है कि उनके दादा, परदादा और चाचा सभी कवि थे. मलीहाबादी ने भी आगे चलकर इसी परंपरा को विकसित किया.

1925 में मलीहाबादी ने ओसमानिया यूनिवर्सिटी हैदराबाद में ट्रांसलेशन करना शुरू किया था. लेकिन उन्हें इस नौकरी से हाथ धोना पड़ा क्योंकि उन्होंने हैदराबाद के निजाम के खिलाफ नज्म लिख दी थी. इस वाकये के बाद उन्होंने कलीम नाम से एक मैगजीन शुरू की जिसमें उन्होंने देश की आजादी के लिए आर्टिकल लिखना शुरू कर दिया. उनकी कविता हुसैन और इंकलाब को शायर ए इंकलाब का खिताब मिला.

इसके बाद वह सक्रिय रूप से आजादी की लड़ाई में कूद पड़े. कहा जाता है कि वह जवाहर लाल नेहरू(भारत के प्रथम प्रधानमंत्री) के करीबी लोगों में से एक थे. 1947 में जब ब्रिटिश राज खत्म हुआ तब वह आज-कल पब्लिकेशन के संपादक बने.

हालांकि विभाजन के कुछ समय बाद मलीहाबादी पाकिस्तान चले गए और कराची में अंजुमन ए तरक्की ए उर्दू के लिए काम करने लगे. वह उर्दू के लिए अपनी जान देने वाले लोगों में से एक थे. उन्होंने लिखा था..आओ काबे से उठें सू ए सनम खाना चलें..ताबा ए फक्र कहे सवलत ए शाहाना चलें.

पाकिस्तान में बसने के बाद केवल 3 बार भारत आए थे मलीहाबादी

पाकिस्तान में बसने के बाद मलीहाबादी का भारत आना-जाना बिल्कुल कम हो गया था. उनके बारे में दावा किया जाता है कि वह पाकिस्तान में बसने के बाद केवल 3 बार भारत आए और ये तीनों वजहें बहुत बड़ी थीं.

पहली बार वह भारत तब आए जब मौलाना आजाद की मौत हुई. दूसरी बार वह भारत तब आए जब पंडित नेहरू का इंतकाल हुआ और तीसरी बार किसी खास वजह से जिसमें इंदिरा गांधी से मुलाकातें भी शामिल थीं.

मलीहाबादी के बारे में कहा जाता है कि वह उर्दू भाषा के विकास के लिए बहुत गंभीर थे और उन्हें गलत उर्दू लिखना और बोलना बिल्कुल भी पसंद नहीं था. इस वजह से उर्दू में गलतियां करने वाले उनके गुस्से का अक्सर शिकार हुआ करते थे.

जोश कहते थे कि पाकिस्तान में उर्दू मरती जा रही है लेकिन भारत में कुछ लोग अभी इससे दिल लगाने की बनावटी कोशिश कर रहे हैं. हालांकि उर्दू की गलतियां ठीक करवाने में जोश मलीहाबादी को भी काफी नुकसान उठाना पड़ा. इस बात का जिक्र जोश के पोते फर्रुख जमाल ने किया था.

गलत उर्दू बोलने पर पाकिस्तान के राष्ट्रपति की लगाई थी क्लास

फर्रुख जमाल ने किसी इंटरव्यू में बताया था कि एक बार पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल अयूब खां ने जोश को कहा, आप बहुत बड़े आलम हैं लेकिन जोश ने फौरन जवाब दिया कि सही लफ्ज आलम नहीं बल्कि आलिम है. इस बात से राष्ट्रपति नाराज हो गए और उन्होंने आदेश दिया कि जोश को दी गई सीमेंट की एजेंसी वापस ले ली जाए और फिर इस आदेश का पालन हुआ.

लेकिन जोश अपनी आदत से मजबूर थे. वह जवाहर लाल नेहरू और मशहूर शायर साहिर लुधियानवी को भी टोक चुके थे. दरअसल नेहरू ने उनसे कहा था कि मैं आपका मशकूर हूं लेकिन जोश ने कहा- आपको शाकिर कहना चाहिए था. जोश ने अपनी आत्मकथा 'यादों की बारात' में अपनी जिंदगी के कई दिलचस्प किस्सों के बारे में बताया है.

उन्होंने लिखा है कि वह सब्जी बेचने का ख्याल छोड़कर दिल्ली आ गए थे और सीधे पंडित नेहरू से मिलने पहुंच गए थे. ऐसे में उन्हें नौकरी मिलने में बहुत कठिनाई नहीं हुई क्योंकि उन्होंने इंटरव्यू में वही नज्म सुनाई जिसे उन्होंने हैदराबाद के निजाम के खिलाफ लिखा था.

22 फरवरी 1982 को उर्दू का यह हुनरमंद इस्लामाबाद में दुनिया को अलविदा कह गया. उनके बारे में कहा जाता है कि वह जब शराब पीते थे तो उनकी अदायगी में एक नजाकत होती थी. वह हर आधे घंटे में एक पैग बनाया करते थे. हालांकि उनका एक शेर बहुत मशहूर है..इंसान के लहू को पियो इज़्न ए आम है, अंगूर की शराब का पीना हराम है.