view all

जितेंद्र अभिषेकी: ऐसा गुरु जिसने ताउम्र अपने शिष्यों से नहीं ली गुरु-दक्षिणा

जो बात शास्त्रीय गायक कुमार गंधर्व के लिए कही जाती है कि उन्होंने कभी भी घरानों की कुलीगीरी नहीं की वही बात पंडित जितेंद्र अभिषेकी पर भी लागू होती है

Shivendra Kumar Singh

भारतीय संगीत में कुछ कलाकारों ने जितना काम और नाम शास्त्रीय संगीत में किया उतना ही भाव संगीत या नाट्य संगीत और भक्ति संगीत में भी किया है. आज ऐसे ही एक बड़े कलाकार जितेंद्र अभिषेकी का जन्मदिन है.

पंडित जितेंद्र अभिषेकी का जन्म 21 सितंबर को 1929 को गोवा में हुआ था. ये वो दौर था जब गोवा में पुर्तगाली रहा करते थे. पंडित जितेंद्र अभिषेकी कीर्तनकारों के घराने में पैदा हुए थे. गोवा में मंगेशी नाम की जगह पर मंदिरों में उनके पुरखे भक्ति संगीत गाया करते थे.


मंगेशी वही जगह है जहां भारत रत्न से सम्मानित लता मंगेशकर के पिता दीनानाथ मंगेशकर का जन्म हुआ था. मंगेशकर घराना भी इसी जगह के नाम से जुड़ा हुआ है. पंडित जितेंद्र अभिषेकी के पिता जी चाहते थे कि वो मंदिर में गद्दी संभाले लेकिन जितेंद्र अभिषेकी का मन शास्त्रीय संगीत में रम रहा था. उन्होंने 10 साल की उम्र में घर छोड़ दिया. इसके बाद की बातें इतिहास बनकर रह गईं.

पंडित जितेंद्र अभिषेकी ने शास्त्रीय संगीत और मराठी नाट्य संगीत में एक अलग पहचान बनाई. ग्वालियर में 1987 में आयोजित तानसेन संगीत समारोह में पंडित जितेंद्र अभिषेकी का गाया तराना सुनिए.

पंडित जितेंद्र अभिषेकी ने जिस समय गोवा छोड़ा था वो समय आज की तरह नहीं था. ये वो दौर था जब गोवा से बाहर निकलना मुश्किल होता था.

पंडित जितेंद्र अभिषेकी के पुत्र और जाने माने शास्त्रीय गायक शौनक अभिषेकी अपने घर परिवार में सुनी बातों को याद करके बताते हैं, 'उन दिनों गोवा से बाहर निकलने के लिए पासपोर्ट तक चाहिए होता था, लेकिन बाबा ने इन बातों की परवाह किए बिना पुणे और मुंबई का रूख कर लिया. वहां पहुंचने के बाद बाबा ने भिक्षा मांग कर अपनी संगीत साधना का जारी रखा. इसका परिणाम ये रहा कि बाद में जब बाबा का नाम हो गया तो उन्होंने इस बात को सुनिश्चित किया कि उनसे सीखने वाले किसी भी शिष्य को कोई फीस ना देनी पड़े. उनके यहां से सीखने वाले शिष्यों को जो जरूरत होती थी बाबा पूरी करते थे.'

आपको पंडित जितेंद्र अभिषेकी का गाया राग यमन सुनाते हैं.

मुंबई में पंडित जितेंद्र अभिषेकी ने कुछ दिनों तक रेडियो में काम किया. इसी दौरान उनकी जान पहचान संगीत की दुनिया से जुड़े लोगों से होती चली गई.

तमाम रेडियो कार्यक्रमों के लिए उन्होंने संगीत कंपोज किया. धीरे धीरे पंडित जितेंद्र अभिषेकी उस्ताद अजमत हुसैन खान के संपर्क में आए. उन्होंने खान साहब से विधिवत संगीत सीखना शुरू कर दिया. बाद में पंडित जितेंद्र अभिषेकी ने गिरिजाबाई केलकर, जगन्नाथबुवा पुरोहित और गुलाब बाई से भी संगीत की बारिकियां सीखीं.

कुछ दुर्लभ रागों के बारे में जानने और सीखने की ललक ने उन्हें बड़े गुलाम अली खान तक पहुंचाया. जिन्होंने पंडित जितेंद्र अभिषेकी को सीखाया. ग्वालियर, आगरा और जयपुर घराने के संगीत साधकों से सीखने के बाद भी पंडित जितेंद्र अभिषेकी कभी किसी घराने के होकर नहीं रहे. उन्होंने अपनी संगीत की अलग पहचान बनाई.

जो बात जाने माने शास्त्रीय गायक कुमार गंधर्व के लिए कही जाती है कि उन्होंने कभी भी घरानों की कुलीगीरी नहीं की वही बात पंडित जितेंद्र अभिषेकी पर भी लागू होती है.

अपने बचपन के दिनों में पिता की साधना को याद करते हुए शौनक बताते हैं-'हमारे घर में माहौल ऐसा था. बाबा पौने चार बजे उठते थे. पौने चार बजे से तानपुरा बजना शुरू होता था. एक कमरे में बाबा रियाज करते थे और दूसरे कमरे में उनके शिष्य. तब से लेकर शाम के सात बजे तक कुछ ऐसा ही माहौल रहता था.'

पंडित जितेंद्र अभिषेकी ने संत कबीर ज्ञानेश्वर से लेकर कबीर और नानक तक सभी की रचनाओं को गाया. 100 से ज्यादा बंदिशों की कंपोजीशन तैयार की. उन्होंने दर्जनों नाटकों के लिए संगीत तैयार किया.

आपको पंडित जितेंद्र अभिषेकी की गाई ये कंपोजीशन सुनाते हैं जो मराठी में काफी प्रचलित है.

कई गुरुओं के साथ संपर्क होने की वजह से पंडित जी को राग के व्याकरण की बारीकियों के साथ साथ उस राग की शख्सियत भी समझ आती थी. संस्कृत, हिंदी, अंग्रेजी, कोंकणी और मराठी की जानकारी उनके संगीत को और समृद्ध करती रही. संगीत और नाट्य संगीत के क्षेत्र में आज करीब दर्जन भर शिष्य हैं जो पंडित जितेंद्र अभिषेकी की परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं. जिसमें प्रभाकर कारेकर, देवकी पंडित, शुभा मुदगल और शौनक अभिषेकी जैसे शिष्य शामिल हैं.

पंडित जितेंद्र अभिषेकी ने कुछ समय तक अमेरिका में जाने माने सितार वादक पंडित रविशंकर द्वारा संचालित एक स्कूल में भी संगीत की शिक्षा दी. अपने पिता को याद करते हुए उनके सुपुत्र और शास्त्रीय गायक शौनक अभिषेकी कहते हैं, 'मेरी शास्त्रीय संगीत की शिक्षा जयपुर घराने की कमल तांबे की देखरेख में हुई थी. ये फैसला पिता जी का ही था. उनके पास बहुत सारे शिष्य थे, समय की कमी थी इसलिए उन्होंने ही मुझे कमला जी के पास भेजा कि वो मुझे शास्त्रीय संगीत की बुनियादी चीजें सिखा देंगी. जब पिता जी को लगने लगा कि मैं तो संगीत में ही डूब गया हूं तब उन्होंने मुझे अपने पास बुला लिया. फिर मैं उन्हीं के साथ चौबीसों घंटों होता था. लेकिन उसके बाद वो मेरे पिता नहीं रहे गुरु बन गए. मैंने भी उन्हें हमेशा पिता की बजाए एक गुरु की तरह ही देखा. पिता और गुरु के बीच की लक्ष्मण रेखा को मैंने कभी पार नहीं किया.'

पंडित जितेंद्र अभिषेकी को 1988 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया था. 7 नवंबर 1998 को उन्होंने दुनिया को अलविदा कहा. ये उनकी संपूर्णता, सादगी और साधना ही है उनका नाम शास्त्रीय संगीत और नाट्य संगीत की दुनिया में हमेशा के लिए अमर है.