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इंटरनेशनल लेबर डे: अमेरिका में कुछ यूं हुआ था मई दिवस का जन्म

मई दिवस के जन्म के पीछे काम के घंटे को 8 घंटे करने का आंदोलन है

Piyush Raj

हर साल 1 मई को अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस मनाया जाता है. जिसे मई दिवस भी कहा जाता है. मई दिवस मजदूरों के अधिकार की लड़ाई से जुड़ा हुआ है. इस लड़ाई के जन्म के पीछे काम के घंटे को कम करने का आंदोलन है.

आज के वक्त में अगर आपका एंप्लॉयर 8 घंटे से अधिक काम लेता है तो अमूमन उसे ओवरटाइम कहा जाता है और इस ओवरटाइम के बदले आपको अतिरिक्त वेतन दिया जाता है.


अगर आप से ओवरटाइम करवाया जा रहा है और इस ओवरटाइम के बदले कुछ नहीं दिया जा रहा है तो आपका एंप्लॉयर लेबर लॉ के उल्लंघन में फंस सकता है.

जब मजदूर 20 घंटे काम करते थे!

अब जरा उस वक्त के बारे में सोचिए जब काम के घंटे तय नहीं थे. जब मजदूर सोलह से 18 घंटे काम करते थे और इसके बदले कोई अतिरिक्त वेतन नहीं दिया जाता था. हो सकता है आज भी कई जगहों पर ऐसे हालात हों लेकिन हर कोई इस हालात को अमानवीय ही कहेगा.

लेकिन जब अमेरिका में फैक्ट्री व्यवस्था शुरू हुई थी तो मजदूरों से 16 से 18 घंटे काम लेना सामान्य सी बात थी.

इस प्रथा का सबसे पहला विरोध 1806 में अमेरिका के फिलाडेल्फिया के मोचियों ने किया. मोचियों ने हड़ताल किया. अमेरिका की सरकार ने इन मोचियों पर मुकदमा कर दिया. इस मुकदमे की सुनवाई के दौरान पहली बार यह बात सामने आई की इन मजदूरों से 19 या 20 घंटे तक काम करवाया जा रहा है.

1827 में दुनिया की पहली ट्रेड यूनियन मानी जाने वाली ‘मैकेनिक्स यूनियन ऑफ फिलाडेल्फिया’ ने काम के घंटे को 10 घंटे करने के लिए हड़ताल की. इसके बाद अलग-अलग ट्रेड यूनियन्स ने काम के घंटों को कम करने और अच्छे वेतन की मांग के लिए आंदोलन किया.

ऐसे जन्मा '8 घंटे काम' का नारा   

सबसे पहले ऑस्ट्रेलिया के इंफ्रास्ट्रक्चर इंडस्ट्री के मजदूरों ने- ‘8 घंटे काम, 8 घंटे मनोरंजन और 8 घंटे आराम’ का नारा दिया. उनकी यह मांग 1856 में ही मान ली गई.

लेकिन काम को 8 घंटे करने की यह मांग अमेरिका में पहली बार 1866 में सुनाई दी. 1866 में अमेरिका में ‘नेशनल लेबर यूनियन’ का गठन हुआ.

अपने स्थापना सम्मेलन में इस संगठन ने यह मांग की कि अमेरिका के सभी राज्यों में काम के घंटे को 8 घंटे किया जाए. इसके बाद इस आंदोलन ने जोर पकड़ा और 1868 में अमेरिकी कांग्रेस ने इस बारे में एक कानून भी पास कर दिया.

लेकिन यह कानून जमीन पर हकीकत का रूप नहीं ले सका. अलग-अलग मजदूर संगठनों द्वारा काम के घंटे को 8 घंटे करने की मांग कायम रही. 1877 में अमेरिका में इस मांग को लेकर बहुत बड़ा हड़ताल भी हुआ.

बाद में ‘द अमेरिकन फेडरेशन ऑफ लेबर’ नामक ट्रेड यूनियन ने ‘नाइट्स ऑफ लेबर’ नामक ट्रेड यूनियन के साथ मिलकर इस मांग को आखिरी अंजाम देने का फैसला किया.

7 अक्टूबर 1884 को ‘द अमेरिकन फेडरेशन ऑफ लेबर’ ने यह घोषणा कि वह 1 मई 1886 से ‘काम के घंटे को 8 घंटे करने’ की मांग के साथ हड़ताल करेगी. फेडरेशन ने सभी मजदूर संगठनों से हड़ताल में शामिल होने की अपील की. इस अपील का व्यापक असर हुआ.

हे मार्केट की घटना से हुआ 'मई दिवस' का जन्म

1 मई, 1886 को पूरे अमेरिका में बड़े पैमाने पर हड़ताल हुई. इस हड़ताल का मुख्य केंद्र शिकागो था. शिकागो के हड़ताल में कई मजदूर संगठनों ने एक साथ मिलकर हिस्सा लिया. इस आंदोलन से शिकागो के फैक्ट्री मालिक हिल गए थे.

3 मई को पुलिस ने शिकागो में मजदूरों की एक सभा पर बर्बर दमन किया, जिसमें 6 मजदूर मारे गए और कई घायल हुए. इस घटना की निंदा करने के लिए 4 मई को मजदूर शिकागो के ‘हे मार्केट स्क्वायर’ पर एकत्र हुए.

इस सभा के खत्म होने के वक्त मजदूरों की भीड़ पर एक बम फेंका गया. इसमें चार मजदूर और सात पुलिसवाले मारे गए. इसके बाद चार मजदूर नेताओं को फांसी की सजा सुनाई गई.

हे मार्केट की इस घटना ने पूरे विश्व का ध्यान अपनी और खींचा. 14 जुलाई, 1889 को पेरिस में दुनियाभर के समाजवादी और कम्युनिस्ट नेता ‘दूसरे कम्युनिस्ट इंटरनेशनल’ के गठन के लिए एकत्र हुए.

दूसरे इंटरनेशनल नेता अमेरिका के मजदूर आंदोलन से प्रभावित हुए और उन्होंने 1 मई, 1890 को दुनियाभर में मजदूरों की मांग को लेकर मई दिवस मनाने का फैसला लिया. इसमें सबसे प्रमुख मांग ‘काम के घंटे को आठ घंटे करने’ की थी. 1890 में 1 मई को  'मई दिवस' अमेरिका के साथ-साथ यूरोप के कई देशों में मनाया गया.

तब से लेकर आज तक 1 मई को इंटरनेशनल लेबर डे के रूप में मनाया जा रहा है. संयुक्त राष्ट्रसंघ भी हर साल 1 मई को ‘अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस’ के रूप में मनाता है.

भारत में पहली बार 1 मई, 1923 को लेबर किसान पार्टी ने मद्रास (अब चेन्नई) में मई दिवस मनाया था. भारत में तभी पहली बार किसी समारोह में लाल झंडे का प्रयोग किया गया था.