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वृंदावन: विधवाओं का होली में सराबोर होना धार्मिक परंपरा में सबसे सुंदर बदलाव है

तेजी से लोकप्रिय होती विधवाओं की होली का विरोध करने वाले भी कम नहीं

Animesh Mukharjee

होली रंगों, खुशियों का त्योहार है ये लाइन अनंत बार दोहराई जा चुकी होगी. मगर जिन्हें जीवन भर ज़िंदगी के हर रंग से दूर रखा जा रहा हो, उनको अचानक से रंगों में सराबोर देखना अद्भुत अनुभव है. कबीर के एक दोहे की लाइन है कि सैना-बैना क्या समझाऊं, गूंगे को गुड़ भाई.

वृंदावन में मनाई जा रही विधवाओं की होली ऐसा ही गूंगे का गुड़ है जिसका रस आप शब्दों में बयां नहीं कर सकते हैं. इसे महसूस किया जा सकता है. आगे बढ़ने से पहले जान लीजिए कि ये होली ब्रज के एक हफ्ते तक चलने वाले परंपरागत रंगों के त्योहार का हिस्सा नहीं है. ये सुलभ इंटरनेशनल नाम के सामाजिक संस्थान ने 2013 में शुरू की. पिछले तीन सालों से ये होली वृंदावन के राधा गोपीनाथ मंदिर में हो रही है.


वृंदावन में रहने वाली विधवाओं की तादाद अच्छी खासी है. इन्हें अक्सर देश के दूर-दराज के इलाकों से लोग यहां छोड़ जाते हैं. कुछ की उम्र कम होती है, ज्यादतर की ज्यादा. ये विधवाएं जहां से आती हैं वहां की रूढ़िवादी मान्यताएं इन्हें हर तरह के सुख को छो़ड़ देने को विवश करती हैं. वृंदावन शहर में ये जिस तरह से रहती हैं वहां इनका निजी अस्तित्व खत्म सा हो जाता है. उनकी पहचान उनके नाम की जगह उनका वृंदावन की विधवा होना हो जाता है. कहें तो वो अंग्रेजी के प्रॉपर नाउन से कॉमन नाउन में बदल जाती हैं.

सुलभ का ये प्रयास पहली ही बार में चर्चित हुआ. इसके बाद तेजी से लोकप्रिय हुई. इन महिलाओं को जब रंग और उत्सव मनाने का मौका मिलता है तो उनकी मासूमियत और उत्साह देखने लायक होता है. इस बार की होली में एक बूढ़ी औरत ने रंग खेलने के बाद दिल्ली की एक लड़की का हाथ पकड़कर पूछा, 'मैं सुंदर तो लग रही हूं न'. समाज कितनी भी रोक लगाए, सजना संवरना, अच्छा लगने की इंसानी चाहत तो दिमाग से नहीं निकल सकती. ऐसे में जिस मासूमियत से ये सवाल पूछा गया वो आंखें नम कर देने वाला मौका था.

विरोध भी है

ऐसा मुश्किल ही है कि हिंदुस्तान में कोई परंपरा बदली जाए और उसका विरोध न हो. इस होली के साथ भी ऐसी कई आपत्तियां आईं. होली पिछले तीन साल से गोपीनाथ मंदिर में हो रही है. 480 साल पुराना गोपीनाथ मंदिर वृंदावन के सबसे पुराने मंदिरों में से एक है. मंदिर के महंत राजा गोस्वामी इस बारे में तफ्सील से बताते हैं.

वो बताते हैं आज से लगभग 500 साल पहले आधुनिक ब्रज क्षेत्र की पुनर्स्थापना और मानकीककरण का काम देवी जहानवा ने किया. जहानवा इस काम के लिए जब ब्रज भूमि में आईं तो वो विधवावस्था को पा चुकी थीं. ऐसे में विधवाओं की होली ब्रज की परंपरा को ही आगे बढ़ाती है. राजा ये भी कहते हैं कि किसी का भी आध्यात्मिक स्तर ऊपर उठाने के लिए जरूरी है कि उसका सामाजिक स्तर ऊपर उठाया जाए. इसलिए समय-समय पर समाज को ऊपर ले जाने वाली परंपराएं स्थापित करना जरूरी है.

लोकल लोगों से तौबा

इस अनोखी होली का एक और पहलू है. इस होली में दुनिया भर से आए लोग होते हैं. मगर स्थानीय लोगों की एंट्री लगभग न के बराबर होती है. ये बात सुनने में बुरी लगती है, लेकिन ये सही कदम है.

होली के नाम पर हुड़दंग और मॉलेस्टेशन के मामलों में मथुरा वृंदावन को बदनाम करने वाले कम लोग नहीं हैं. इस कैंपस में मिली कई लोगों ने अपने अनुभव साझा किए. दुनिया भर से लोग ब्रज के मंदिरों और वहां की परंपरा, मस्ती का अनुभव लेने आते हैं. लेकिन कई लोगों के लिए दुनिया भर की लड़कियां छेड़ने का मौका बन जाता है. ऊपर से तुर्रा ये कि अश्लील इशारे भी राधे-राधे कहकर किए जाते हैं. कौन कहता है कि सिर्फ हमारे नेता ही भगवान के नाम का गलत इस्तेमाल कर सकते हैं.

कुल मिलाकर ब्रज में एक नई परंपरा स्थापित करती ये होली एक न भूलने वाला अनुभव है. बनारस की शैव परंपरा की भांग प्रधान होली की जगह यहां फूल और सूखे रंग ही होते हैं. वैसे आप चाहेंगे तो मतलब भर की भांग तो आपको मिलेगी ही, लेकिन उसके बिना भी ये होली अपने आप में बड़ी खास है.