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जब अलाउद्दीन खिलजी ने एक कोतवाल को सौंप दी थी दिल्ली की चाबी

दिल्ली के आखिरी कोतवाल पंडित गंगाधर जवाहर लाल नेहरू के दादा थे

Sanjeev Kumar Singh Chauhan

मौजूदा दौर में देश के अधिकांश नेता और उनकी नेतागिरी 'मंदिर-मस्जिद' की बैसाखियों पर घिसट रही है. आठ सौ साल पुराने इतिहास के पन्नों को अगर पलट कर पढ़ने की जहमत उठाई जाये, तो शायद आने वाली पीढ़ियों को कुछ बेहतर नसीब हो सकेगा. इतिहास पढ़ने की लेकिन आज की आपा-धापी में फुर्सत किसे? जो निठल्ले हैं वे ओछी राजनीति की रोटियां सेंक रहे हैं. इसलिए उन्हें इतिहास और उसके पन्नों में लिखी गयी इबारतों से भला सरोकार क्यों होगा?

जो शिक्षित हैं वे अपना-अपनों का भला करने की उम्मीदें पाले किसी भी हद तक कुछ भी कर गुजरने पर आमादा हैं. कौम के नाम पर घटिया राजनीति आज भी होती है तो पहले भी होती रही होगी. मगर दिल्ली का इतिहास अगर पलटा जाये तो कुछ अलग ही देखने पढ़ने को मिलता है.


आज खुद दिल्ली पुलिस के कई आला अधिकारी कहते हैं कि दस्तावेजों के मुताबिक जिस दिल्ली राज्य की आज करीब 78 हजार पुलिस फोर्स हिफाजत कर पाने में नाकाम सी साबित हो रही है, उसी दिल्ली पर आठ सौ साल पहले महज एक अदद कोतवाल का पूर्ण नियंत्रण था. कोतवाल वो भी मुसलमान. नाम था मलिक उल उमरा फखरुद्दीन. मलिक साहब महज 40 साल की उम्र में दिल्ली शहर-कोतवाल के ओहदे से नवाज दिये गये थे. यह बात है सन् 1237 ईसवी की. मलिक साहब को नाएब-ए-गिब्त (रीजेंट की अनुपस्थिति में) का ओहदा भी उस जमाने में सौंपा गया था. जबकि इतिहास के पन्नों को ही पलटने पर पढ़ने को मिलता है कि दिल्ली के अंतिम कोतवाल पंडित जवाहर लाल नेहरु के दादा पंडित गंगाधर थे.

मलिक साहब का जिक्र आइने-अकबरी में भी दर्ज है. आज भले ही दिल्ली के पुलिस कमिश्नर कुर्सी बचाने-पाने की हसरतें पाले पुलिस मुख्यालय से गृह-मंत्रालय के चक्कर काटते न थकते हों, मगर उस जमाने के कोतवाल की अपनी एक अलग ही आन-बान-शान थी. आईने-अकबरी के मुताबिक जब शाही दरबार लगता था तो उसमें कोतवाल की उपस्थिति बहुत मायने रखती थी. आज सरकारें तमाम फैसले लेने के बाद पुलिस महानिदेशक या पुलिस आयुक्त को महज उस पर अमल करने का फरमान भर देती है. कुर्सी की चाहत में उस फरमान को सिर-माथे लगाकर अमल में लाना आला-अफसर की मजबूरी या यूं कहिये कि ड्यूटी होती है.

मुखबिर और कोतवाल की सीधी बात

वक्त के साथ सब कुछ बदल गया. आठ सौ साल पहले शहर या राज्य का हर मुखबिर-खास कोतवाल को गोपनीय सूचनाएं मुहैया कराता था. समय बदला, आबादी बढ़ी, कानून बदले. तो कोतवाल की जगह पुलिस महानिदेशक और पुलिस कमिश्नर ने ले ली. कमिश्नर अपने मातहतों के कंधों पर आश्रित हो गये. मुखबिर अपने पूरी उम्र में शायद किसी भी पुलिस महानिदेशक या पुलिस कमिश्नर का चेहरा नहीं देख पाता होगा. जबकि उस जमाने में हर रोज चौकीदार और मुखबिर की हाजिरी कोतवाल के सामने होना जरुरी था.

प्रतीकात्मक तस्वीर

आज जहां पुलिस वाला ब-वर्दी 10-20 रुपये की अवैध उगाही के लिए खुलेआम सड़कों पर ट्रकों पर अधलटका दिखाई दे जायेगा. वहीं एक बानगी आज से आठ सौ साल पुरानी पुलिस की भी देखिये. ऐतिहासिक दस्तावेजों के मुताबिक एक बार तुर्की के कुछ रहीस उमराओं की काफी सम्पत्ति सुलतान बलवन के हुक्म से जब्त कर ली गयी थी. जब्त संपत्ति को छुड़ाने की एवज में उमराओं ने ब-जरिये बिचौलिया दिल्ली के पहले मुस्लिम कोतवाल फखरुद्दीन को रिश्वत की पेशकश फरमाई गयी. किला राय पिथौरा में उन दिनों (आज की महरौली) कोतवाल का दफ्तर होता था. अपने दफ्तर में ही कोतवाल ने रिश्वत लेने से यह कहते हुए इंकार कर दिया कि रिश्वत लेने से सुलतान की नजर में उनकी और उनके पद की अहमियत जाती रहेगी.

मलिक उल उमरा फखरुद्दीन के बाद 1297 में सुलतान अलाउद्दीन खिलजी ने मलिक अलाउल मल्क को दूसरा शहर कोतवाल बनाया था. अलाउल को कोतवाल का ओहदा देते वक्त सुलतान ने फरमाया था कि इन्हें भले ही ओहदा कोतवाल का दिया जा रहा हो, मगर इनकी ईमानदारी और काम करने का तौर-तरीका वजीर (प्रधानमंत्री) का सा है. उस जमाने में विश्वसनीयता किस हद तक मायने रखती थी. यह उसकी एक बानगी है.

इतिहास खंगालने पर ही पढ़ने को मिलता है कि सुलतान खिलजी एक बार जब जंग के लिए कूच कर रहा था तो उसने शहर की चाबी कोतवाल के हवाले इस हिदायत के साथ कर दी कि जंग में जो भी जीते कोतवाल जीतनेवाले के हाथों में शहर की वो चाबी सौंप देंगे. आज की पुलिस में 'चोर के ऊपर मोर' वाली कहावतें चरितार्थ होती दिखाई सुनाईं पड़ जाती हैं. एक अफसर दूसरे अफसर की गतिविधियों पर ही चोर निगाहें हर वक्त रखता है. अधिकांश अफसरान और पुलिसकर्मी एक दूसरे को शक की नजर से देखते हैं.

दस्तावेजों के मुताबिक 1648 में मुगल बादशाह शाहजहां ने दिल्ली में शाहजहानाबाद बसाने के बाद गजनफर खान को नया शहर कोतवाल बनाया था. कुछ समय में ही गजनफर खान को उनकी काबिलियत, ईमानदारी और पुलिस का कामकाज देखने के तौर-तरीकों से खुश होकर मीर-ए-आतिश (चीफ ऑफ आर्टिलरी) भी बना दिया गया था.

दिल्ली के आखिरी कोतवाल

1857 की क्रांति के बाद फिरंगियों ने दिल्ली पर कब्जा कर लिया. उसके तुरंत बाद ही यहां से कोतवाल व्यवस्था को खत्म कर दिया गया. उस वक्त पंडित जवाहर लाल नेहरु के दादा पंडित गंगाधर दिल्ली के शहर कोतवाल थे. फिरंगियों के आने से दिल्ली में खून-खराबा शुरु हो गया. इससे आजिज आकर शहर कोतवाल पंडित गंगाधर पत्नी जियोरानी देवी चार संतानों को लेकर दिल्ली से आगरा कूच कर गये. सन् 1861में आगरा में ही पंडित गंगाधर की मृत्यु हो गयी.

आज के दौर में आलम यह है कि दिल्ली पुलिस के किसी आला अफसर का ट्रांसफर देश के चाहे किसी भी कोने में हो जाये, वो दो-तीन बाहर की पोस्टिंग काटने के बाद भी दिल्ली में मिले आलीशान बंग्ले (सरकारी कोठी /आवास) को न छोड़ने की हठ पर ही डटा रहता है.

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं