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हाशिए पर...(पार्ट 4): कहानी उन बहुरूपियों की, जिनकी कला तब तक ही जिंदा है, जब तक वो अनपढ़-गरीब हैं

रंगीन कला के महारती बहुरूपिए फिल्मों के कलाकार से ज्यादा हुनर रखते हैं और मेहनत करते हैं, लेकिन उनकी पूछ धेले भर की नहीं

Kumari Prerna

इस कहानी की शुरुआत पहाड़गंज के एक होटल से होती है. होटल का नाम है – सत्यम होटल. 28 अक्टूबर की  रात नौ बजे दफ्तर से छूटते ही हम सीधा महबूब’ (महबूब यहां विशेषण नहीं संज्ञा है) से मिलने पहाड़गंज के सत्यम होटल पहुंचे.पहाड़गंज दिल्ली का कैसा इलाका है, यह इसी से साफ पता चल जाता है कि रात के नौ-दस बजे अगर यहां खुले हजारों होटलों में से आप किसी भी होटल में घुसती हैं, तो कई संदिग्ध निगाहें आप पर टिक जाती हैं.

वैसे भी यह पहली बार था, जब मैं प्रतिदिन 200-300 रुपए चार्ज करने वाले किसी ऐसे  होटल में गई थी. रात के दस बजे किसी ऐसे होटल के एक कमरे में इंटरव्यू लेना मेरे लिए बहुत ही असहज था. मेरी असहजता को देखते हुए महबूब ने कमरे का गेट खुला छोड़ दिया और फिर हम बैठकर बातें करने लगे. हाशिए पर... श्रृंखला का यह चौथा भाग महबूब और बहुरूपिया समुदाय के अन्य लोगों की मौजूदा स्थिति पर आधारित  है.


hotel satyam/Paharganj/picture courtesy-Kumari Prerana

'कभी बनिया, कभी अकबर, कभी राम, कभी नारद, महबूब ने अपनी जिंदगी के 35-37 साल इन्हीं रूपों को देखते और अपनाते बिताया है. बनिया का भेश बना के सेठ बन जाते हैं, अकबर बन के शहंशाह, राम बनके मर्यादा पुषोत्तम तो नारद बनके विष्णु के परम भक्त.'

महबूब बहुरूपिया जनजाति से ताल्लुक रखते हैं. जिन्हें अंग्रेजी में मस्कैरेडर्स भी कहा जाता है. बहुरूपिया उन 7 घुमंतू जनजातियों (संपेरे, मदारी, बहरूपिया, नट, बाजीगर, स्ट्रीट सिंगर और जानवरों के ट्रेनर) में से एक है, जिन्हें स्ट्रीट परफॉर्मर्स यानी सड़क पर करतब दिखाने वाला भी कहा जाता है. ये सड़क, गांव, शहर, कस्बे में घूम-घूमकर अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं और उसी से अपनी रोजी-रोटी भी चलाते हैं. ये जनजाति मूल रूप से राजस्थान की है.

महबूब जयपुर के भावरू गांव के रहने वाले हैं. एक कार्यक्रम के सिलसिले में केवल एक दिन के लिए दिल्ली आए हैं. इनसे हमारा परिचय इशामुद्दीन ने ही करवाया था.

महबूब बताते हैं...

आठवीं तक की पढ़ाई करने के बाद उन्हें मजबूरन इस काम में अपना पैर पसारना पड़ा. उनके पिता भी कलाकार थे इसलिए देश में बहुरूपियों के कला की क्या इज्जत है, इससे वो भली-भांति परिचित थे. उन्होंने कभी नहीं चाहा कि उनके बच्चे भी यही करें, लेकिन परिस्थिति हमेशा विपरीत जाकर खड़ी हो जाती है.

‘मुझे मजबूरन पढ़ाई छोड़कर इस पेशे में आना पड़ा. मेरा तो इस कला से कोई जुड़ाव भी नहीं था. मैं तो इसे तिरस्कार के भाव से देखता था, क्योंकि सामने वाले के लिए मेरे पिताजी हमेशा भीख मांगने वाला ही कहलाए, कलाकार नहीं. हां, कुछ लोग इसकी इज्जत जरूर करते हैं, लेकिन उनकी मात्रा कम है. इसलिए मैं  बंगला, गाड़ी के सपने देखता था. लेकिन जब आदमी जमाना देखता है, समझदारी बढ़ जाती है, चीज़ों को देखने का नज़रिया बदल जाता है, तब समझ आता है कि हम जैसे गरीब बंगला, गाड़ी का सपना नहीं देख सकते. इसलिए गरीबी में भी ‘हंसो हंसाओ और खुश रहो.'

'हां,पिता हमेशा दुखी होते थे. जब भी मैं कमा के पैसे लाता था तो वो पैसे फेंक देते थे, वो नहीं चाहते थे कि मैं ये काम करूं, लेकिन धीरे-धीरे मैं इस कला को जीने लगा. लोगों को ऑब्जर्ब करने लगा, कई किरदारों को अलग-अलग तरीके से पेश करने लगा और फिर इसी में रम गया.'

नेटफ्लिक्स, यूट्यूब, अमेजन प्राइम, मल्टीप्लेक्स के समय में बहरूपिया कला को भला कौन देखता है, इस पर महबूब कहते हैं,

'लोग देखते हैं. बहुत चाव से देखते हैं. गांव में इसे देखने वाले की तादाद ज्यादा  है, शहर की तरफ तो हमारा आना कम ही हैं. जब कोई फेस्टिवल, या कला से जुड़ा कोई कार्यक्रम या मेला होता है, तब ही इधर आते हैं. और ऐसा नहीं है कि यहां देखनेवालों की भीड़ नहीं लगती, बहुत लोग इकट्ठा होते हैं, लेकिन उसी भीड़ का हिस्सा कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो हमारे साथ गाली-गलौज और बद्तमीजी करते हैं. उन्हें हम नौटंकी करने वाले चोर, भीखमंगे लगते हैं.'

बता दें कि ऐसे कई मामले सामने आए हैं, जब स्ट्रीट परफॉर्मर्स को चोरी और लूटपाट के गलत आरोपों में केस मुकदमें से जूझना पड़ा है. इसी साल जुलाई में न्यूज़ 18 में प्रकाशित हुई एक खबर के अनुसार महाराष्ट्र के धुले में तीन बहुरूपिया समुदाय के लोगों को बच्चा चोरी के अफवाह में पीट-पीटकर मार दिया गया. इसके पहले 2012 में नागपुर से ऐसी ही मिलती-जुलती घटना सामने आई थी.

महबूब बताते हैं कि उनकी जाति बहुत ईमानदार है. 'हमारा तो अपना संविधान तक है. जो गलत करते पाया गया, उसको जात से बाहर कर देते हैं.'

- अपना संविधान?

- हां

- किस तरह का?

- ऐसा कुछ लिखित तो नहीं है और ना इतना पढ़ने आता है, लेकिन गांव में हमारी ईमानदारी की बहुत इज्जत है. हमारी बहू-बेटियों पर कोई ऊंगली नहीं उठा सकता. हमारी लड़कियां ऐसे बाहर को नहीं निकलतीं.

बता दें कि बहरूपिया एक ऐसी कला है, जिसे केवल घर के मर्द सीखते और करते हैं. लड़कियों को इसे सीखने और करने की इजाजत नहीं होती.

फिल्मों के कलाकार से ज्यादा हुनर रखते हैं और मेहनत करते हैं, पर पूछ धेले भर की नहीं

जिस होटल के कमरे में हम बैठकर महबूब से बात कर रहे थे, उसी कमरे में टीवी पर कॉमेडियन कपिल की कोई न्यूज आ रही थी. कपिल को टीवी में देखते ही महबूब तपाक से बोले, 'देखिए मैंने इसके साथ काम किया है. ये जितने भेश बनाता है, उससे चार गुणा ज्यादा भेश बना सकता हूं. हम तो बचपन से यही कर रहे हैं. हमारी ट्रेनिंग भी तो तभी से शुरू हो जाती है.'

'क्या बताऊं मैडम जी, बहुत कठिन होती है इसकी ट्रेनिंग. घर के बड़े-बुजुर्ग ने जो सिखाया सो सिखाया, नहीं तो फिर सबकुछ खुद से ही सीखना पड़ता है. मेकअप से लेकर कपड़े, बोलने का सलीका, एक्टिंग, डॉयलाग सब हम खुद ही तैयार करते हैं. कोई मेकअप आर्टिस्ट, कोई स्क्रिपटराइटर नहीं होता.'

कभी फिल्मों में जाने की कोशिश नहीं की?

'हां, की न. गदर फिल्म में वो गाना है न ‘मुसाफ़िर आने वाले’ उसमें भीड़ का हिस्सा बना था. कोई डायलॉग या चेहरा नहीं था मेरा. बस भीड़ का हिस्सा बनना था.'

बैठे-बैठे महबूब आपको 100 से भी ज्यादा किरदार निभाकर दिखा सकते हैं. कभी बनिया, कभी अकबर, कभी राम, कभी नारद. यहां तक की एक दो घंटे तक हाव-भाव ऑब्जर्व करके आपके सामने ही आपका किरदार भी निभाकर  दिखा सकते हैं, लेकिन फिल्मों के कलाकार से ज्यादा हुनर और मेहनत करने वाले इस समुदाय के लोगों की पूछ धेले भर की नहीं है.

सरकार को लगता है कि बहुरूपिए जैसी सड़क पर दिखाई जाने वाली हर कला केवल और केवल गरीबी की वजह से जीवित है

'मैडम जी सरकार को तो लगता है कि हर ऐसी कला केवल और केवल गरीबी की वजह से जीवित है. सरकार के हिसाब से एक व़क्त आएगा जब ये सब खत्म हो जाएगा. कोई नहीं जानेगा कि बहुरूपिया क्या था. सब कंप्यूटर से पढ़ जाएंगे.'

'हमारे प्रति सरकार के इस उदासीन रवैये ने हमें भी यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि हमारे बाद इस धरोहर को कौन आगे बढ़ाएगा?

बेलदारी, मजदूरी करने वाला भी उतना ही कमाता है, जितना कि हम, तो भला कोई पांच साल में एक बार होने वाले बहुरूपिया फेस्टिवल और सुरजकुंड जैस मेले में मिलने वाले छोटे मोटे सम्मान के लिए इतनी मेहनत क्यों करे? चुपचाप बेलदारी करके घर चलाएगा.'

महबूब को इसकी चिंता ज्यादा है कि उनकी अगली पीढ़ी इस कला को भूल जाएगी क्योंकि मेहबूब की केवल दो बेटियां हैं, कोई बेटा नहीं है, जो इस कला को अगली पीढ़ी तक पहुंचा सके.

ऐसे में जब हमने उनसे यह पूछा कि वह ये सब अपनी बेटियों को क्यों नहीं सिखाते?

महबूब ने जवाब में कहा- 'जाति से बाहर कर दिए जाएंगे, कोई साथ देने नहीं आएगा.'

महबूब से हमारी बातचीत इतनी ही हो सकी. इसके बाद वो अगले दिन के कार्यक्रम के लिए कपड़े और मेकअप का सामान एक जगह करने लगे और हम आखिरी मेट्रो पकड़ने के लिए भागते-भागते होटल से निकल गए.

दिल्ली के सबसे लोकप्रिय बहुरूपिए अब्दुल हमीद, जिन्होंने इस कला को बतौर मुसलमान नहीं, कलाकार जिया है

अब्दुल हमीद बहुरूपिया को एक जाति कम कला की रूप में ज्यादा देखते हैं. उनके अनुसार यह एक हुनर है, जिसे कोई भी सीख और कर सकता है. हमीद से बेहतर रावण का किरदार कोई नहीं निभा सकता. ये दिल्ली के ही रहने वाले हैं.

हमीद कहते हैं, 'कला किसी एक जाति की धरोहर नहीं होती. मैं मुसलमान हूं, राम, रावण, अकबर, सलीम सबका किरदार निभाता हूं. यहां तक की कृष्ण भी बनता हूं. कलाकार तो कोई भी हो सकता है. चाहे वो हिंदू हो या मुसलमान, बहुरूपिया जाति का हो या बदिया जाति का. आपको एक उदाहरण देता हूं, हमारे साथ एक 'किश्न' नाम का लड़का रहता है, वो बदिया जाति से है, लेकिन जितनी अच्छी वो बंदर की नकल कर सकता है, उतनी अच्छी नकल कोई नहीं कर सकता.'

'वहीं दूसरी तरफ मैं हूं, कौम से मुसलमान, बहुरूपिया जाति से कोई ताल्लुक नहीं, लेकिन जितनी अच्छी रावण की नकल मैं कर सकता हूं, उतनी अच्छी नकल कोई नहीं कर सकता.'

एक मुसलमान बहुरूपिए का हिंदू भगवानों के किरदार निभाना कभी लोगों को खटका है?

'नहीं, लोगों के लिए तो मैं राम, कृष्ण, विष्णु या रावण ही हूं, अब्दुल हमीद नहीं, लेकिन एक बार क्या हुआ था कि हम एक सराकरी कला फेस्टिवल में हिस्सा लेने अंबाला पहुंचे हुए थे. मैं और मेरे 7 और साथी थे. मैं उसमें रावण का किरदार निभा रहा था और दूसरे लोग राम, लक्ष्मण बने हुए थे. यह बात शिव सेना वालों को खटक गई. उनका कहना था कि हम हिंदू देवी-देवताओं का अपमान कर रहे हैं. बात इतनी गंभीर हो गई कि आखिरकार हम सभी को दूसरा किरदार निभाना पड़ा.'

राजस्थान के चार जिले में बहुरूपिए सबसे अधिक हैं. ये जिले- अलवर, जयपुर,सीकर, नीमकटाना (तेहसील) हैं. इसके अलावा ये गुजरात, उत्तरप्रेश, बिहार, मणिपुर, मेघालय, पश्चिम बंगाल, उत्तरांचल, दिल्ली में भी रह रहे हैं. एक अनुमान के अनुसार पूरे देश में इनकी आबादी करीब दो लाख बताई जाती है.

बहरूपियों का इतिहास

इनका इतिहास तो बहुत पुराना है. कई वेद-पुराणों तक में इनका जिक्र है, लेकिन उतना पीछे ना जाकर अगर हाल-फिलहाल की बात करें तो बहुरूपिए रजवाड़ों की रियासत से निकले हैं. रजवाड़े राजस्थान में ही पाए जाते थे. ऐसे में हर रियासत में एक बहुरूपिया हुआ करता था. राजाओं के सामने बहुरूपिए अपनी कला का प्रदर्शन करते थे. राजा- महाराजा इनकी कला को देखते थे और खुश होकर कोठी की कोठी, जमीन के जमीन इनके नाम कर देते थे, लेकिन जैसा कि हमीद ने बताया, कि बहुरूपिए इन जमीनों का क्या करते, जमींदार तो थे नहीं इसलिए ये जमीनें आगे चलकर इधर-उधर हो गईं. जमीन जायदाद की इन्हें ज्यादा फिक्र थी भी नहीं क्योंकि ये तो महलों में ही रहते थे. वहीं इनका खाना पीना, रहना सभी चीजों का इंतजाम था.

लेकिन जब राजा रजवाड़ों की रियासत खत्म हो गई और देश में अंग्रेज आए तो ये महलों से उठकर सड़कों पर आ गए. ना कोठी थी न जमीन, केवल कला थी, जो साथ रह गई.

तब से ये आम लोगों के बीच घूम-घूमकर अपनी कला का प्रदर्शन कर रहे हैं. इसीलिए इन्हें घुमंतू जनजाति कहा जाता है.

लोग देखते हैं, खुश हो लेते हैं, ताली बजा देते हैं और फिर वापस चले जाते हैं, कोई पीछे मुड़कर नहीं देखता

हमीद बताते हैं, 'आज भी हम कभी नोएडा, कभी गाजियाबाद, कभी चंडीगढ़ घूमते रहते हैं और अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं. हमारा कोई स्थायी ठिकाना नहीं है और ना ही पक्के का घर. यह बहुत ही गरीब कौम है. बस कहो तो हुनर के नाम पर अमीर है, लेकिन उसकी कोई कद्र ही नहीं करता. जिन्हें कद्र होती भी है तो वह बस देखते हैं, खुश हो लेते हैं, ताली बजा देते हैं और फिर वापस चले जाते हैं.'

'रास्ते में कोई पीछे लौटकर क्यों देखेगा मैडम, किसको पड़ी है कि अब्दुल हमीद के घर में आज रोटी पकी है या नहीं. अरे, मेकअप उतार देता हूं तो लोग पहचानते तक नहीं.'

'आप विश्वास नहीं करेंगी मैंने राष्ट्रपति से लेकर प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री सभी के सामने परफॉर्म किया है. अशोक गहलोत जी जब भी ऐसे किसी कार्यक्रम का आयेजन करवाते थे, मुझे जरूर बुलाते थे, लेकिन वही है कि हमें ताली, प्रशंसा, अखबार की कटिंग, नेता-मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री के साथ तस्वीर के अलावा कुछ नहीं मिला. उस वक्त जो भी पैसे मिलते हैं वो तो मेकअप का सामान, ड्रेस, प्रॉप्स वगैरह में खर्च हो जाते हैं, कोई सरकार हमारी कला के संरक्षण के लिए कुछ नहीं करती. 4 साल में एक फेस्टिवल, साल भर में दो चार मेलों से क्या होता है. बाकी दिन हम कैसे अपना पेट चला रहे हैं, सरकार को इसकी फिक्र है?'

लाल कृष्ण आडवाणी के सामने अपनी कला का प्रदर्शन करते अब्दुल हमीद. हमीद के पास ऐसी हजारों तस्वीरें हैं.

'भारतीय संस्कृति को बचाने के लिए क्या कर रहे हैं ये? पूछिए इनसे. केवल गुमान करने से क्या होगा. क्या बहुरूपिया, मदारी भारतीय संस्कृति का हिस्सा नहीं हैं?'

'विदेश के लोग हमारी कला सीखते हैं और वहां कार्यक्रम करके लाखों लाख रुपए कमा रहे हैं और हम गरीब कलाकार अपनी कला के सम्मान और संरक्षण को लेकर ही लड़ते रह जाएंगे. कोई कुछ नहीं करेगा.'

क्या कर रही है या क्या कर सकती है सरकार?

सरकार हर चार-पांच सालों में एक बार बहुरूपिया फेस्टिवल का आयोजन करवाती है. 18 साल पहले सबसे पहला बहुरूपिया फेस्टिवल अहमदाबाद में आयोजित किया गया था. उस साल हर बहुरूपिए को सरकार ने तीन दिनों तक 1000 रुपए दिए थे. फिर चार साल बाद राजस्थान के उदयपुर में, फिर जयपुर और हाल-फिलहाल सितंबर के महीने में इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र, दिल्ली में बहुरूपिया फेस्टिवल का आयोजन किया गया. तीन दिनों तक चले इस फेस्टिवल में यहां पहुंचे सभी बहुरूपिए को प्रति दिन 1,500 रुपए दिए गए.

इसके अलावा हर साल आयोजित होने वाले सुरजकुंड मेले में भी राज्य सरकार बहुरुपियों को बुलाती है. कम से कम 15 दिन तक चलने वाले इस मेले में सरकार के तरफ से बहुरूपियों को 300-500 रुपए प्रति दिन का भुगतान किया जाता है.

कुल मिलाकर सरकार इन फेस्टिवल और मेलों के जरिए ज्यादा से ज्यादा एक से दो महीने तक बहुरूपियों की रोजी-रोटी का खयाल रख लेती है, लेकिन बाकी के 335 दिन वह क्या करेंगे?

सड़क पर घूम-घूम कर कला का प्रदर्शन करेंगे और कुछ पैसे कमाएंगे?

लेकिन इसके आड़े भी सरकार की बॉम्बे प्रीवेंशन ऑफ बेगिंग एक्ट, 1959 आ जाती है. सरकार के हिसाब से आप चाहे कला का प्रदर्शन करके पैसे कमा रहे हों या ऐसे ही मुफ्त में मांग के, आप कहलाएंगे भिखारी ही.

बीते आठ अगस्त को दिल्ली हाईकोर्ट ने इस दमनकारी एक्ट को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई करते हुए भीख मांगने को आपराधिक मामला मानने से इनकार कर दिया था और इसके लिए दंड के कानूनों को निरस्त कर दिया. दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा दिए गए इस फैसले से माना जा रहा था कि सड़क पर अपना करतब दिखाने वाले लोगों में अपने पेशे को लेकर एक उम्मीद जगेगी, लेकिन दिक्कत तो यही है कि इन कलाकारों को बेगर्स यानी भीख मांगने वाला माना ही क्यों जा रहा है?

ऐसे में सरकार के नियम कानून भी पूर्वाग्रहों से ग्रसित लगते हैं. उनके लिए मदारी का खेल दिखाना, सड़क पर बीन बजाना, बहुरूपिया कला का प्रदर्शन करना आदि भिखारियों का काम है.

जबकि ये सारी कलाएं भारत की संपन्न संस्कृति का एक अहम हिस्सा हैं. विदेशियों ने ये सारी कलाएं हमारे देश से सीखीं और उसे बड़े ही सम्मान से संजो कर रखा है. वहीं हमारे देश में ये लुप्त होने के कगार पर आकर खड़ी हो गई हैं.

और देशों में क्या है स्थिति?

लंदन में एक कॉन्वेंट गार्डन है, जहां ऐसे कलाकार खुलकर अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं और पैसे कमाते हैं. न्यूजीलैंड, अमेरिका जैसे देशों में भी ऐसे स्ट्रीट या जगह मौजूद हैं, जहां कलाकार अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं. इन देशों में इसे बस्किंग कहते हैं.

बस्किंग पॉलिसी के तहत सड़क किनारे करतब दिखाने वाले लोगों को यहां की सरकार लाइसेंस मुहैय्या कराती है. इसमें एक बार रजिस्ट्रेशन करा लेने के बाद रजिस्टर हुए कलाकारों को वहां के प्रशासन द्वारा सड़क पर करतब दिखाने की पूरी छूट मिल जाती है.

ऐसे में इन कलाओं को जिंदा रखने के लिए सरकार दिल्ली के कनॉट प्लेस स्थित सेंट्रल पार्क का इस्तेमाल कर सकती है. इसके लिए लाइसेंस प्रक्रिया का पालन किया जा सकता है. कलाकारों को लाइसेंस देकर बस्किंग करने की छूट दी जा सकती है.

वहीं बात अगर भारत के पड़ोसी देश पाकिस्तान की करें, तो यहां भी बहुरूपियों की स्थिति जुदा नहीं है. पाकिस्तान के एक स्थानीय पत्रकार शहजादा इरफ़ान अहमद ने कहा, 'बहुरूपिया तो यहां अब खत्म होने की कगार पर हैं. बीते एक दशक से मैंने अपने शहर में एक भी बहुरूपिए को नहीं देखा है.  मेरे बचपन में वे मनोरंजन का एक प्रमुख स्रोत थे. उस समय शायद ही कोई मनोरंजन का दूसरा स्त्रोत हुआ करता था. कोई इंटरनेट नहीं, कोई मोबाइल फोन नहीं, कोई केबल नेटवर्क नहीं था. टेक्नोलॉजी ने हमें सब कुछ तो दिया है, लेकिन हमारी जिंदगी से इन रंगीन पात्रों को विस्मरण में भेज दिया.'

- क्या पाकिस्तान सरकार ने इनके लिए कोई पॉलिसी या कोई प्लान बनाया है?

- नहीं, कुछ भी नहीं. बस 'दोस्त नाटक' नाम की एक संस्था है जो विलुप्त होती इन कलाओं के लिए काम कर रही है.

भारत में ऐसी ही एक संस्था ईशामुद्दीन चला रहे हैं, जिसका नाम 'इंडियन स्ट्रीट परफॉर्मिंग एसोसिएशन' है. इस संस्था की शुरूआत उन्होंने साल 2013 में की थी. इसे शुरू करने के पीछे ईशामुद्दीन का मकसद सरकार पर स्ट्रीट परफॉर्मर्स को कमाई करने की अनुमति देने का दबाव बनाना था क्योंकि उन्हें डर है कि इन सात जनजातियों में फैली अधिकांश कला जल्द ही मर जाएगी. ईशामुद्दीन के अनुसार, पारंपरिक जगलर (jugglers) समुदाय अब दिल्ली में मौजूद नहीं है. मुंबई में इनके केवल एक परिवार और आंध्र प्रदेश में लगभग पांच परिवार ही बचे हैं.