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नीरज जन्मदिन विशेष: अबके सावन में शरारत ये मेरे साथ हुई...

गोपालदास नीरज ने कई ऐसे गाने लिखे हैं जिनकी धुन उन्हें खुद बनानी पड़ी

Shailesh Chaturvedi

हिंदुस्तान में कवि सम्मेलन एक परंपरा का नाम रहा है. महानगरों में रहने वाले युवाओं को शायद उस परंपरा का अंदाजा नहीं होगा. छोटे शहरों और कस्बों में रात-रात भर कवि सम्मेलन और मुशायरे चलते थे. कड़कती ठंड में दरी पर बैठकर लोग सुना करते थे. घर से कंबल या हल्की रजाई के साथ लोग टेंट के नीचे मानो धरना दिया करते थे. छोटे कस्बों में दरी पर हल्की पुआल डाली जाती थी, ताकि ठंड न लगे. किनारे पर अंगीठियां जलती थीं. सामने मंच हुआ करता था, जिस पर मसनद के सहारे कवि और शायर बैठे नजर आते थे.

माइक पर संचालक बारी-बारी से कवियों को आमंत्रित करता था. सबसे बड़े कवि को आखिर में बुलाया जाता था. एक कवि ऐसा था, जिसे आखिर के लिए हमेशा रखा जाता था. हालांकि दर्शकों और श्रोताओं की मांग के आगे आयोजकों की चलती नहीं थी. वह कवि आता था. खरज भरी आवाज में कविता पाठ शुरू करता था. ...और उसके बाद उसे माइक से हटने का मौका नहीं मिलता था.


माइक पर आवाज़ गूंजती थी – अबकी मजहब कोई ऐसा भी चलाया जाए... जिसमें इंसान को इंसान बनाया जाए. सिलसिला जारी रहता था. रात तेजी से बीतती थी. घनघोर अंधेरा यह संकेत लेकर आता था कि बहुत जल्दी सूर्योदय होने वाला है. मंच से घोषणा होती थी कि अब कवि सम्मेलन समाप्त किया जाए. लेकिन इस कवि को जैसे लोग सुनते ही रहना चाहते थे. उन्हें मंच से हटने का मौका ही नहीं देना चाहते थे. आखिर उसी खरज भरी, थोड़ी खरखराती, लरजती आवाज में एक गीत आता था –

स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से

लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से

और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे

कारवां गुज़र गया गुबार देखते रहे।

समझ गए होंगे कि गोपाल दास सक्सेना का जिक्र हो रहा है, जिन्हें दुनिया नीरज नाम से जानती है. इटावा में चार जनवरी 1925 को जन्मे नीरज शायद अपने में ऐसे अकेले कवि या शायर होंगे, जिनकी एक नज्म या गीत की वजह से फिल्म बन गई. नई उमर की नई फसल फिल्म में उनकी इस नज्म का इस्तेमाल हुआ.  फिल्म बुरी तरह फ्लॉप हुई. लेकिन गीत हिट हो गया. सिर्फ यही नहीं, फिल्म का एक और गाना – देखती ही रहो आज दर्पण भी हिट हुआ.

देव आनंद के साथ नीरज के जुड़ने की दास्तान

यह वो दौर था, जब देव आनंद, मनोज कुमार या राज कपूर जैसे लोग गीतकारों का बड़ा सम्मान करते थे. देव आनंद और मनोज कुमार तो नियमित रूप से कवि सम्मेलन सुनने जाते थे. मनोज कुमार को इसी तरह संतोषानंद मिले थे. देव आनंद ने इसी तरह नीरज को सुना था. वो 1967 था.

देव आनंद ही थे, जो नीरज को सही मायने में मुंबई मुंबई लेकर आए थे. एक इंटरव्यू में नीरज ने बताया था कि उन्हे मुंबई के एक बड़े होटल में देव साहब ने रुकवाया. उनको हजार रुपए दिए और कहा कि ये साइनिंग अमाउंट नहीं हैं. ये सिर्फ घूमने-फिरने के लिए हैं. उस दौर में हजार रुपए बड़ी रकम हुआ करती थी.

नीरज के मुताबिक, ‘देव आनंद ने मुझे बर्मन दा (सचिन देव) से मिलाया. बर्मन दादा बहुत खुश नहीं थे. लेकिन उन्होंने एक सिचुएशन दे दी. सिचुएशन एक पार्टी की थी. बर्मन दा ने कहा कि पार्टी है. इसमें एक लड़की है, जो बॉयफ्रेंड को किसी और लड़की से साथ देख रही है. वो दुखी, हताश है. उसे जलन हो रही है. वो शराब पी रही है. इस सिचुएशन पर गाना लिखना है.’ दिलचस्प था कि शराब की इस सिचुएशन पर शराब या मदिरा जैसे शब्द न इस्तेमाल करने की हिदायत दी गई थी.

एक रात में नीरज ने लिखा था वो यादगार गीत

नीरज अपने होटल लौटे. रात भर में उन्होंने एक गाना लिखा. अगली सुबह देव आनंद को सुनाया. देव साहब ने उन्हें गले से लगा लिया और साथ लेकर एसडी बर्मन के पास गए. बर्मन दा से कहा कि देखिए, क्या कमाल का गाना लिखा है. बर्मन दा ने गाना सुना. बर्मन दा ने देव आनंद से कहा कि हां, अब मैंने गाना सुन लिया है. अब आप जाइए. हम दोनों साथ बैठन चाहते हैं. बाद में एसडी बर्मन ने स्वीकार किया कि जानबूझकर इतनी मुश्किल सिचुएशन दी थी. वो गाना था – रंगीला रे, तेरे रंग में क्यूं रंगा है मेरा मन...

यह गाना लिखने के लिए नीरज कॉलेज से छुट्टी लेकर गए थे. अलीगढ़ के उस कॉलेज से, जहां वो हिंदी पढ़ाते थे. उसके बाद तो देव आनंद, एसडी बर्मन और नीरज की तिकड़ी ने बड़े कमाल किए. उनकी एक कविता थी- चांदनी मे घोला जाए फूलों का शबाब... इसे देव आनंद के हिसाब से बदला गया और गाना बना शोखियों में घोला जाए फूलों का शबाब...

नीरज के लिखे गाने हुए सुपर-डुपर हिट

नीरज के लिखा हर गाना हिट होता रहा. फूलों की बगिया महकेगी.. मेघा छाए आधी रात... लिखे जो खत तुझे.. ए भाई, जरा देख के चलो... आज मदहोश हुआ जाए रे.. हां, मैंने कसम ली... बस यही अपराध मैं हर बार करता हूं... ये सारे गाने सुपर डुपर हिट रहे. ए भाई जरा देख के चलो तो फिल्म मेरा नाम जोकर का गाना है. उसकी धुन भी एक तरह से नीरज की थी, क्योंकि शंकर-जयकिशन समझ नहीं पा रहे थे कि इसकी धुन कैसे बनाई जाए. आखिर नीरज ने कवि सम्मेलन वाले अंदाज में उन्हें गीत सुनाया, जिसके आसपास ही धुन रखी गई.

गाने हिट होते रहे, लेकिन फिल्में फ्लॉप हो गईं. नीरज वापस अलीगढ़ आ गए. उन्हें लगा कि शायद वो बदकिस्मत हैं, जिसकी वजह से फिल्में फ्लॉप होती हैं. हालांकि देव आनंद उनसे लिखवाते रहे. यह भी सही है कि फिल्में भी फ्लॉप होती रहीं. नीरज अब 93 साल के हैं. वो अब भी कभी-कभी किसी कार्यक्रम में जाते हैं. अब भी वो कविता पाठ करते हैं. भले ही खरज बहुत बढ़ गई हो... लरजिश इतनी हो गई हो कि समझना आसान नहीं हो.. फिर भी फिजा में वो आवाज़ तो गूंजती ही है कि अब के सावन में शरारत ये मेरे साथ हुई... मेरा घर छोड़ के कुल शहर में बरसात हुई...