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गिरिजा देवी : ठुमरी ने उन्हें पहचान दी, उन्होंने ठुमरी को

88 साल की उम्र में ठुमरी की महारानी गिरिजा देवी ने ली आखिरी सांस

Shailesh Chaturvedi

ठेठ बनारसी की एक बड़ी खासियत होती है. आप उसके भीतर के बनारस को नहीं निकाल सकते. बनारस, जो बिस्मिल्लाह खां के भीतर था, जो किशन महाराज के भीतर था, जो छन्नू महाराज के भीतर है या जो गिरिजा देवी के भीतर था. गिरिजा देवी, जिन्हें ठुमरी की रानी, महारानी कहा जाता रहा है. ठुमरी का नाम लीजिए, तो वही चेहरा उभरता है. सादगी भरा... श्वेत के इर्द-गिर्द के रंगों में सिमटी साड़ी और बाल भी उसी रंग के साथ संगत बिठाते. मुंह में पान उसके बाद एक आवाज फिजा में, जो आपको ऐसे सम्मोहन में बांधती रही है कि आप इससे बाहर ही नहीं आना चाहेंगे. यही गिरिजा देवी का परिचय है.

ठुमरी की वो आवाज हमेशा-हमेशा रहेगी. चैती, कजरी वो सब, जिनके लिए गिरिजा देवी को जाना जाता है. लेकिन अब आपको वो निश्छल दिखने वाला चेहरा और बनारसी अंदाज कभी नहीं दिखेगा. भले ही वो कोलकाता में थीं, लेकिन दिल तो हमेशा बनारस के साथ रहा. अप्पाजी यानी गिरिजा देवी ने 24 अक्टूबर की रात इस दुनिया को विदा कह दिया. बनारस के करीब आठ मई 1929 को बनारस के नजदीक एक गांव में जन्मी गिरिजा देवी के लिए संगीत का अभी काफी सफर बाकी था. उन्हें कई प्रोग्राम करने थे. 88 की उम्र में भी वो थकी नहीं, ऊर्जा से भरी दिखाई देती थीं. लेकिन इस बार बीमारी आई, तो कोलकाता के अस्पताल से उन्हें बाहर नहीं आने दिया.


जमींदार परिवार से थीं गिरिजा देवी

अप्पा जी एक जमींदार परिवार से थीं. उनके परिवार ने उनकी रुचि देखी और संगीत सीखने का मौका दिया. वैसे भी घर में उन पर ऐसी कोई बंदिश नहीं थी, जो तमाम परिवार लड़कियों पर लगाते हैं. उन्होंने वो सब किया, जो उस दौर के आम घरों में लड़के ही करते थे. इसमें घुड़सवारी, तलवारबाजी या लड़कों से झगड़े शामिल थे. यहां तक कि उन्होंने लड़कियों वाले कपड़े तक नहीं पहने. उन्होंने एक इंटरव्यू में कहा भी था कि उन्हें सलवार कुर्ता के बारे में कुछ नहीं पता, क्योंकि कभी पहना ही नहीं. पैंट-शर्ट से सीधे साड़ी में आ गईं. ‘लड़कों वाली’ इन हरकतों के बीच मन संगीत में बसा था.

संगीत वैसे भी बनारस के कण-कण में बसता है. परिवार बनारस आया और अप्पा जी संगीत में रम गईं. फिर तो बनारस कभी उनके भीतर से नहीं निकला. उनकी गायकी का रंग भी बनारस में डूबा दिखता है. चाहे वो ठुमरी हो, दादरा, कजरी, चैती या होरी. वो कहती थीं कि बनारस और गंगा के ही इर्द-गिर्द उनकी जिंदगी घूमती है.

शादी के बाद पति ने भी संगीत में बढ़ावा दिया

15 साल की उम्र में उनकी शादी बनारस में ही मधुसूदन जैन के साथ हो गई. उनकी बेटी हुई. लेकिन रियाज जारी रहा. पति का लगातार साथ मिला. आकाशवाणी इलाहाबाद के लिए उन्होंने पहली परफॉर्मेंस 1949 में दी. 1975 में पति की मौत हुई. कुछ समय वो संगीत से दूर रहीं. लेकिन उसके बाद तो संगीत ही उनके लिए सब कुछ हो गया.

उनके अप्पाजी कहे जाने की कहानी भी दिलचस्प है. दरअसल, उनकी बहन का बेटा जब छोटा था, तो उन्हें अप्पाजी कहता था. उसके साथ बाकी लोग भी कहने लगे और धीरे-धीरे वो सभी की अप्पाजी हो गईं. उन्होंने एक फिल्म में भी काम किया था. इसका नाम था याद रहे. उन्हें इसके लिए महात्मा गांधी ने सराहा था. तब वो महज 10 साल की थीं. भले ही उसके बाद वो फिल्मों से दूर हुईं, लेकिन सराहे जाने का दौर जारी रहा.

जब उप राष्ट्रपति उनके गायन को मंत्रमुग्ध होकर सुनते रहे

1952 में दिल्ली के भारतीय कला केंद्र का एक दिलचस्प किस्सा है. एक घंटे का कार्यक्रम होना था, जिसमें 20 मिनट बिस्मिल्लाह खां, 20 मिनट डीबी पलुस्कर और इतना ही समय गिरिजा देवी को दिया गया था. उस कार्यक्रम में एस. राधाकृष्णन आए थे, जो तब उप राष्ट्रपति थे. गिरिजा जी ने 18 मिनट में अपनी ठुमरी और टप्पा खत्म कर लिया. वो स्टेज से जाने वाली थीं कि केंद्र की सचिव निर्मला जोशी आईं. उन्होंने कहा कि राधाकृष्णन और सुनना चाहते हैं. गिरिजा जी ने मंच से ही कहा कि लेकिन समय तो कम है, लोग चले जाएंगे. सामने बैठे राधाकृष्णन ने सुन लिया और जवाब दिया कि कोई नहीं जाएगा, आप गाइए. उसके बाद वह 45 मिनट ठुमरी गाती रहीं और राधाकृष्णन मंत्रमुग्ध होकर सुनते रहे.

उन्होंने ठुमरी में अपनी पहचान बनाई और ठुमरी को अपनी पहचान दी, जिसे वो ठेठ बनारसी ठुमरी कहती रहीं. उन्होंने हमेशा माना कि तकनीक को जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल करना ठुमरी की आत्मा को मार देता है. ठुमरी के लिए भावनाएं सबसे अहम हैं. वही भावनाएं गिरिजा देवी की गायकी में हमेशा दिखाई और सुनाई देती रही.

1972 में पद्मश्री, 1989 में पद्म भूषण और 2016 में पद्म विभूषण से सम्मानित अप्पा जी के लिए गायन दरअसल पूरी जीवन शैली का नाम था.  कई बार वो अपने शिष्यों को खाना बनाकर परोसती थीं. उन्होंने एक इंटरव्यू में बताया कि इसकी वजह है कि हर कोई एक जीवन-शैली का जाने. गाने की तरह खाना परोसने का सबक भी सीखा जाए. यकीनन, जीवन शैली से लेकर गायन तक सिखाने के लिए गिरिजा जी नहीं होंगी. लेकिन उनकी सीख हमेशा रहेगी. उनका गायन हमेशा रहेगा. उनकी ठुमरी हमेशा रहेगी. ..और वो बनारसी अंदाज भी, जो उनकी पहचान रहा है.

एक बार उनसे पूछा गया था कि आपके बाद गायकी का क्या होगा. इस पर उन्होंने उल्टा सवाल पूछा था कि क्या झांसी की रानी की मौत के बाद सारी महिलाओं ने जौहर कर लिया था? उन्होंने कहा था कि मैं जीवित हूं, तब तक मुझमें जो कुछ है, सीख लो. गायकी हमेशा रहेगी. यकीनन गायकी हमेशा रहेगी. लेकिन गिरिजा देवी एक ही थीं. ठीक वैसे ही, जैसे झांसी की रानी एक ही थीं. गायकी खत्म नहीं होगी. लेकिन गिरिजा देवी के बगैर सूनी जरूर हो जाएगी.