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गांधी जयंती: देश गांधी का लेकिन गांधी किसके?

राजनीतिक नेतृत्व पहले 2 अक्टूबर को प्रभात फेरियां निकलवाता था, अब सड़कों पर झाड़ू लगवाता है और सेल्फी खिंचवाता है

Rakesh Kayasth

गांधी अपनी आवाम के लिए जिए और शांति के लिए मरे. जिन सामाजिक और राजनीतिक समूहों को गांधी से सबसे ज्यादा फायदा हुआ उन्होंने ही उनकी अनदेखी की.

आज 2 अक्टूबर है. दुनिया भर में इसे इंटरनेशल डे ऑफ नॉन वायलेंस यानी विश्व अहिंसा दिवस के रूप में मनाया जाता है. मौजूदा एनडीए सरकार की पहल के बाद भारत में अब यह दिन स्वच्छता दिवस के रूप में मनाया जाने लगा है, ताकि लोगो में साफ-सफाई के प्रति जागरूकता पैदा की जा सके. सरकार यह मानती है कि स्वच्छता को लेकर गांधी के पास एक सम्यक दर्शन था, जिसे हम अपनायें तो पूरा देश चमक सकता है.


इंटरनेशनल डे फॉर नॉन वायलेंस

दूसरी तरफ बाकी दुनिया के लिए गांधी स्वच्छता नहीं बल्कि अहिंसा के प्रतीक हैं. दुनिया यह मानती है कि गांधी ने यह सिखाया कि शांति और राजनीतिक आजादी अहिंसा के रास्ते किस तरह हासिल किए जा सकते हैं. गांधी से ही प्रेरणा लेकर अश्वेत मार्टिन लूथर किंग ने अमेरिका में नस्लवाद के खिलाफ एक कामयाब लड़ाई लड़ी. जब किंग एक नस्लवादी हत्यारे की गोली का शिकार हुए तो उनकी पत्नी ने कहा- 'आज गांधी का एक शिष्य उन्हीं के रास्ते पर चलता हुआ शहीद हुआ है.'

ईरान की मानवाधिकार कार्यकर्ता और नोबेल पुरस्कार विजेता शिरीन इबादी ने 2004 में 2 अक्टूबर को इंटरनेशल डे फॉर नॉन वायलेंस के रूप में मनाने का प्रस्ताव रखा था. इसके तीन साल बाद 2007 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने वोटिंग के जरिए इसे मंजूरी दे दी. दुनिया को अब भी यह लगता है कि भारत अहिंसा सिखाने वाले गांधी का देश है.

बेशक यह देश गांधी का है लेकिन गांधी आखिर किसके हैं? 2 अक्टूबर को यह सवाल पूछना बनता है कि आखिर गांधी ने जिस आवाम के लिए इतनी लंबी लड़ाई लड़ी उसने गांधी को किस तरह अपनाया? इस सवाल का जवाब ढूंढने के लिए हमें इतिहास में थोड़ा पीछे लौटना पड़ेगा और अलग-अलग राजनीतिक समूहों के साथ गांधी के रिश्तों को देखना होगा.

गांधी और कांग्रेस का पाखंड

गांधी के राजनीतिक उत्तराधिकारी पंडित जवाहर लाल नेहरू की शख्सियत उनसे अलग थी. गांधी की राजनीति उनके अपने जीवन मूल्यों पर आधारित थी. दूसरी तरफ पश्चिमी मॉडल के उदारवादी लोकतंत्र में आस्था रखने वाले नेहरू की राजनीति में व्यवहारिकता थी. इसलिए गांधी दर्शन को किनारे रखकर उन्होंने आजाद भारत के ज्यादातर राजनीतिक फैसले लिये.

गांधी की इच्छा थी कि आजादी के बाद कांग्रेस को भंग कर दिया जाए क्योंकि उसका उदेश्य पूरा हो चुका है. लेकिन नेहरू ने ऐसा नहीं किया.

स्कूलों में गांधीवाद का पाठ पढ़ाने और खादी भंडार जैसी संस्थाएं खड़ी करना अपनी जगह था, लेकिन कांग्रेस ने एक राजनीतिक दल की हैसियत से अहिंसक मूल्यों को स्थापित करने के लिए आजादी के बाद कुछ नहीं किया.

हालांकि गांधीवादी धारा समानांतर रूप से चलती रही. एक तरफ आचार्य विनोबा भावे जैसे लोग लगातार गांधी के नजरिए को आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहे थे. दूसरी तरफ गांधी के राजनीतिक दर्शन का एक हद तक प्रतिनिधित्व खुद को `कुजात गांधीवादी’ बताने वाले राम मनोहर लोहिया जैसे समाजवादी नेता कर रहे थे.

महात्मा गांधी के साथ जवाहरलाल नेहरु [तस्वीर- विकिकॉमन]नेहरू युग तक भारतीय समाज में गांधीवादी मूल्य फिर भी बचे हुए थे. लेकिन इंदिरा गांधी के आते-आते देश की राजनीति और समाज दोनों पूरी तरह से बदल गए. अब कांग्रेस पार्टी पर पूरी तरह से एक परिवार का कब्जा था.

गांधीवादी मूल्यों को सबसे बड़ा धक्का उस समय लगा, जब इंदिरा गांधी ने अपना राजनीतिक करियर बचाने के लिए देश में इमरजेंसी लगा दी और जनता से उसके बुनियादी लोकतांत्रिक और संविधान प्रदत अधिकार तक छीन लिए गए.

मौजूदा कांग्रेस पार्टी भी अपने कार्यक्रमों में महात्मा गांधी के पोस्टर लगाती है और देश को गांधी के बताए रास्ते पर ले जाने की दुहाई देती है. लेकिन हर कोई जानता है कि यह ब्रांड गांधी को भुनाने की कोशिशों के सिवा कुछ नहीं है.

गांधी और हिंदूवादी राजनीति

मोहनदास करमचंद गांधी एक परंपरावादी हिंदू थे. वे राम को अपना आदर्श मानते थे और गीता से प्रेरणा ग्रहण करते थे. लेकिन आस्था का सवाल गांधी के लिए बहुत हद तक निजी था. गांधी के हिंदुत्व और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के हिंदुत्व में बुनियादी अंतर यही था. इसके बावजूद गांधी ने कुछ ऐसा किया जिससे आगे चलकर आरएसएस की राजनीति को बहुत फायदा हुआ.

इसके बावजूद आरएसएस की हिंदुवादी राजनीति से प्रेरित नाथूराम गोडसे ने गांधी की हत्या कर दी. गांधी और हिंदूवादी राजनीति के रिश्तों की राजनीति को थोड़ा विस्तार से समझने की कोशिश करते हैं.

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जिस समय भारत का राष्ट्रवादी आंदोलन उफान पर था, उसी दौरान बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर करोड़ों अछूतों के लिए बराबरी का हक हासिल करने की लड़ाई लड़ रहे थे. अंबेडकर ने ब्रिटिश इंडिया के रहनुमाओं के सामने लगातार यह सवाल उठाया कि भारत जब आजाद हो जाएगा तो अछूत किसके रहमो-करम पर रहेंगे?

अंबेडकर ने अछूत या दलितों के लिए राजनीतिक प्रतिनिधित्व की आवाज बुलंद की. अंबेडकर की कोशिशों का नतीजा यह हुआ कि तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने अछूतों के लिए पृथक निर्वाचन की एक व्यवस्था बनाने पर सहमति दे दी.

इसका मतलब यह था कि आजादी के शुरुआती बरसों में हरेक दलित के पास दो वोट होंगे. एक वोट से वह अपना प्रतिनिधि चुनेगा और दूसरा वोट वह बाकी मतदाताओं की तरह डालेगा. दो वोट की व्यवस्था इसलिए रखी गई थी ताकि दलित अपने प्रतिनिधि अपने आप चुन सकें. उनके नाम पर कोई दलित नेता थोपा ना जाए.

गांधीजी को लगा कि दलितों के लिए पृथक निर्वाचन की व्यवस्था से हिंदू समाज बंट जाएगा. उन्होंने इस फैसले के विरोध में अनशन शुरू कर दिया. आखिरकर मजबूरन अंबेडकर को गांधी के साथ 24 मार्च 1932 को एक समझौता करना पड़ा जो पूना पैक्ट के नाम से मशहूर है. इस समझौते के दलितों के लिए आरक्षित सीटें तो बढ़ा दी गईं लेकिन दो वोट का सिस्टम वापस ले लिया गया.

गांधी के हिंदुत्व से बड़ी आरएसएस की नफरत

अगर पूना पैक्ट लागू नहीं हुआ होता तो देश की राजनीति की तस्वीर कुछ और होती. दलित हिंदू समाज का हिस्सा ना होकर एक बहुत ताकतवर और स्वतंत्र राजनीतिक और सामाजिक समूह होते. यानी आज संघ जिस हिंदू एकता के आधार पर भारत को हिंदू राष्ट्र बनाना चाहता है, उसकी बुनियाद ही ढह जाती. इस तरह देखे तो आरएसएस की राजनीति को बचाने में परोक्ष रूप से गांधी का बहुत बड़ा योगदान है.

यकीनन संघ को इसके लिए गांधी का शुक्रगुजार होना चाहिए. लेकिन ऐसा नहीं हुआ उल्टे गांधी हिंदू आतंकवाद की भेंट चढ़ गए, भला क्यों? इसका स्पष्ट कारण नफरत की राजनीति है. गांधी की हत्या के बाद देश के उप-प्रधानमंत्री और गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल आरएसएस पर बैन लगाते हुए कहा- संघ ने देश में जिस तरह का माहौल बनाया है, उसकी की वजह से महात्मा गांधी की हत्या हुई है.

सरकार को इस बात की जानकारी मिली है कि गांधीजी की हत्या के बाद संघ ने मिठाइयां बंटवाई हैं. आज भी आरएसएस का प्रचार तंत्र गांधी के खिलाफ लगातार सक्रिय है. गांधी का हिंदुत्व किसी के विरोध में नहीं था. लेकिन आरएसएस का हिंदुत्व पूरी तरह गैर-हिंदुओं के खिलाफ है.

गांधी और भारतीय मुस्लिम समाज

गांधी का पूरा जीवन हिंदू-मुस्लिम एकता की कोशिशों में बीता. लेकिन क्या भारत के मुसलमान समाज ने गांधी की इन कोशिशों का मोल समझा? गांधी हिंदू और मुसलमान को भारत की दो आंखें कहा करते थे. जब टर्की में मुस्तफा कमाल पाशा ने खिलाफत खत्म की तो इसकी प्रतिक्रिया पूरी दुनिया भर के मुसलमानों में हुई.

भारत के नाराज मुसलमानों ने इसके खिलाफ आंदोलन शुरू किया. गांधी ने इस आंदोलन का समर्थन किया. इसका नतीजा यह हुआ कि मुसलमान बड़ी संख्या में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ असहयोग आंदोलन में शामिल हुए. खिलाफत विरोधी आंदोलन के समर्थन के पीछे तुष्टिकरण जैसी कोई सोच नहीं थी बल्कि गांधी यह यह मानते थे कि देश की सीमाओं से परे अगर व्यक्ति चाहे तो किसी सार्वभौमिक विचारधारा को स्वीकार कर सकता है और इस आधार पर खिलाफत को लेकर भारतीय मुसलमानों की प्रतिक्रिया जायज है.

गांधी जो महसूस करते थे, वही करते थे और जो कहते थे, वही करते भी थे. उनका कहना था कि अल्लाह-ओ-अक़बर और वंदे मातरम् मेरे लिए दो सबसे पवित्र नारे हैं.

चौरा-चौरी की हिंसक वारदात के बाद गांधी ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया. कुछ इतिहासकारों का कहना है कि गांधी के फैसले के बाद मुसलमानों में निराशा फैल गई और मुस्लिम लीग को उनकी बड़ी आबादी के बीच अपनी पैठ बनाने का मौका मिल गया.

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यह बात कहते वक्त हमें यह याद रखना चाहिए कि गांधी के राजनीतिक फैसले अवसरवाद पर नहीं बल्कि कुछ जीवन मूल्यों पर आधारित थे. जिसमें अहिंसा सबसे ऊपर थी. 15 अगस्त 1947 को पूरा भारत आजादी का जश्न मना रहा था. लेकिन इस जश्न से दूर गांधी कलकत्ता (अब कोलकाता) में थे और अपनी जान जोखिम में डालकर दंगाइयों की भीड़ में फंसे मुसलमानों को बचाने की कोशिश कर रहे थे. ऐसी ही कोशिश उन्होंने कुछ समय पहले मुस्लिम बहुल नोआखाली में हिंदुओं को दंगाइयों के हाथों बचाने के लिए की थी.

गांधी भारत और पाकिस्तान के बीच स्थायी शांति चाहते थे. इसी मकसद से वे पाकिस्तान की यात्रा करने वाले थे. लेकिन इससे ठीक पहले उनकी हत्या कर दी गई.

सांप्रदायिक एकता की तमाम कोशिशों के बावजूद गांधी को भारतीय मुस्लिम समाज में कभी वह जगह नहीं मिली जो उन्हे मिलनी चाहिए थी. हालांकि खान अब्दुल्ल गफ्फार खान जैसे नेताओं ने संघर्ष और समाजिक बदलाव के अहिंसक तौर-तरीकों को मुस्लिम समाज के बीच स्थापित करने की पुरजोर कोशिशें की.

इसके बावजूद यह सच है कि भारतीय उप-महाद्वीप के मुस्लिम अवाम पर गांधी अपना कोई बड़ा असर नहीं छोड़ पाए. आजाद भारत का मुस्लिम समाज कई तरह के सवालों से जूझ रहा है. क्या आजादी के बाद से एक भी ऐसा बड़ा मुसलमान नेता हुआ है जो यह कहे कि वह अपने राजनीतिक संघर्ष को गांधीवादी तरीको से आगे बढ़ाना चाहता है?

बापू ने रास्ता दिखाया लेकिन चलेगा कौन?

राजनीतिक संघर्ष का गांधीवादी तरीका पहले भी कारगर था और हमेशा रहेगा. आजाद भारत के इतिहास में इसके दो बहुत बड़े उदाहरण मिलते हैं. पहला उदाहरण जयप्रकाश नारायण का संपूर्ण क्रांति आंदोलन है. इमरजेंसी के विरोध में जेपी ने आवाज बुलंद की- 'संपूर्ण क्रांति नारा है, भावी इतिहास हमारा है.'

पूरे देश के छात्र जेपी के साथ खड़े हो गए. इंदिरा गांधी को आखिरकार हार माननी पड़ी और इमरजेंसी खत्म हुई. गांधीवादी तरीके की दूसरी बड़ी लड़ाई अन्ना हजारे के नेतृत्व में 2011 में लड़ी गई. देश ने यह महसूस किया कि धरना और अनशन जैसे रास्ते पर चलकर भी हुकूमत को झुकाया जा सकता है.

लेकिन संपूर्ण क्रांति हो या फिर अन्ना का आंदोलन दोनों अपने लक्ष्य से बुरी तरह भटक गए. वजह बहुत साफ है, गांधी का रास्ता लंबा और ईमानदार संघर्ष मांगता है. अगर दुनिया जीतना चाहते हैं तो पहली लड़ाई अपने आपसे लड़नी पड़ेगी. गांधी ने यह लड़ाई लड़ी थी और उसमें विजयी हुए थे.

अपनी कमजोरियों को ईमानदारी से स्वीकार करने और खुद को बदलने का नैतिक साहस जिसमें हो, वही गांधी के रास्ते पर चल सकता है. गांधी का रास्ता सिर्फ राजनीतिक ही नहीं बल्कि सामाजिक और आध्यात्मिक बदलाव का भी था. आखिर यह रास्ता अब कौन दिखाएगा और कौन इस पर चलेगा?

देश के राजनीतिक नेतृत्व से इस बात की उम्मीद बेमानी है. राजनीतिक नेतृत्व पहले 2 अक्टूबर को प्रभात फेरियां निकलवाता था, अब सड़कों पर झाड़ू लगवाता है और सेल्फी खिंचवाता है.