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महात्मा गांधी की जिंदगी दुनियाभर के लिए 'आर्ट ऑफ लिविंग' है

गांधी की नजर में जीवन दर्शन का मतलब खुद को मृत्यु के लिए तैयार करना भी है. जीवन जीने की कला की तरह ही मृत्यु की कला भी है.

Ashish Mehta

आप खुद को कितना बदल सकते हैं? अपने अंदर बदलाव लाकर आप किस हद तक परिवर्तित हो सकते हैं? ये बदलाव किसी बाहरी ताकत, जैसे किसी गुरु के जरिए नहीं आना चाहिए. बुद्ध के बाद महात्मा गांधी शायद ऐसे इकलौते शख्स थे, जो अपने भीतरी ज्ञान को बेहतर बनाकर अपने किरदार को पूरा बदलने की असीम संभावनाओं की मिसाल बने.

महात्मा गांधी के कई रूप थे. वो जननेता थे, समाज सुधारक थे, दूरदर्शी राजनेता थे. गांधी के और भी कई पहलू थे. वो खुद का किरदार गढ़ने के आदर्श भी थे. अगर आप अपनी जिंदगी बदलने के तरीके तलाश रहे हैं, तो, गांधी आप को इस काम में अपने तजुर्बों और नुस्खों से कई काम की बातें बता सकते हैं.


'ये कहना कि इस दुनिया में परफेक्ट होना नामुमकिन है, भगवान के अस्तित्व से इनकार करना है.' गांधी ने डेनमार्क के ईसाई धर्म प्रचारक एस्थर फेरिंग को ये बात एक खत में लिखी थी. गांधी और फेरिंग के बीच लंबे दौर तक खत-ओ-किताबत चली थी. महात्मा गांधी ने ये खत 13 जनवरी 1918 को मोतिहारी से एस्थर फेरिंग को भेजा था. उस वक्त वो चंपारण सत्याग्रह की उथल-पुथल में व्यस्त थे. फिर भी गांधी ने मसरूफियत से वक्त निकालकर फेरिंग को लिखा कि, 'हम ने इस बात की तमाम मिसालें देखी हैं कि लोग अनुशासन और लगातार प्रयासों से खुद को बेहतर बना लेते हैं. इंसान में सुधार की अपार संभावनाएं हैं. कोई पाबंदी इस पर नहीं लगाई जा सकती.'

उन्होंने इस खत के जरिए अपने पसंदीदा लेखकों में से एक हेनरी डेविड थोरेऊ के शब्दों को कलम दी थी. थोरेऊ ने वाल्डेन में लिखा है, 'अगर कोई इंसान अपने ख्वाबों की सिम्त खुद ऐतबारी के साथ बढ़ता है और अपने ख्वाबों की ताबीर के लिए पुरजोर कोशिश करता है, तो वो निश्चित ही सामान्य इंसानों के मुकाबले बेहद जल्द कामयाबी की मंजिल तक पहुंच जाता है.'

तो, ये 'कोशिश और अनुशासन' ही थे जिन्होंने 1893 में डरबन पहुंचे गांधी जैसे शर्मीले और संकोची युवा को 1915 में मुंबई आते-आते एक तजुर्बेकार दूरदर्शी नेता बना दिया था, जो इंकलाबी तरीकों में यकीन रखता था और जिसके लाखों भक्त उसे महात्मा कहते थे. जो लोग अपने अंदर बदलाव लाना चाहते हैं, वो अपने आप को ठीक उसी तरह की हालत में पाएंगे, जैसे अपनी उम्र के दूसरे दशक में मोहनदास थे. वो हम से या आप से अलहदा नहीं थे.

हमारे लिए किसी मसीहा या पैगम्बर के मुकाबले महात्मा का अनुसरण करना ज्यादा बेहतर होगा, क्योंकि ये मसीहा लोग तो पहले से ही खुद को खुदा के चुने हुए पैगम्बर होने का दावा करते हैं. महात्मा ने किसी भी मसीहा का अनुसरण करने के बजाय दिल की आवाज पर चलने का फैसला किया. इसलिए उन्हें उस कश्मकश से नहीं गुजरना पड़ा, जिस से हम वाबस्ता होते हैं.

अगर हम ये ख्वाहिश रखते हैं कि महात्मा गांधी के बताए 'कोशिश और अनुशासन' के नुस्खे के इतर भी जाएं, तो हमें महात्मा गांधी की गीता से मार्गदर्शन लेने की सिफारिश माननी होगी. महात्मा ने गीता को अपना 'निदान ग्रंथ' घोषित किया था. या फिर हमें महात्मा गांधी की तरह बाइबिल के ज्ञान के सागर में गोते लगाने होंगे, जैसे कि बाइबिल ने दक्षिण अफ्रीका प्रवास के दौरान गांधी का मार्गदर्शन किया और उनके नैतिक ढांचे को तैयार किया.

फिर हमें गांधी का अनुसरण करते हुए खुले जेहन से तमाम धार्मिक और आध्यात्मिक परंपराओं को आत्मसात करना होगा. गांधी के इस धार्मिक-आध्यात्मिक सफर को जेटीएफ जॉर्डेन्स ने अपनी किताब 'गांधीज रिलीजन: ए होमस्पन शॉल'  (ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस 2012 का भारतीय संस्करण) में बड़े ही अच्छे ढंग से बयान किया है.

स्वयं में बदलाव लाने को गंभीर शख्स के लिए सबसे बड़ी चुनौती होगी कि वो ये परिवर्तन लाए तो 'कैसे'? उसका तरीका क्या होगा? हम गीता पढ़ते हैं. आम तौर पर ये अंग्रेजी अनुवाद होता है. खुद गांधी ने भी पहली बार गीता का अंग्रेजी अनुवाद ही पढ़ा था. हम बड़ी आस्था से बाइबिल की प्रतियां बांटते हैं. या फिर दोस्तों-रिश्तेदारों को धार्मिक किताबें तोहफे में देते हैं. हम ये अपेक्षा करते हैं कि ये किताबें पढ़ते ही लोगों के जीवन में बदलाव आ जाएगा.

लेकिन, ये पवित्र किताबें तो सदियों से हमारे बीच हैं. उनका ज्ञान बरसों-बरस से ऐसे ही उनके पन्नों में समाहित और संरक्षित है. जब तक हम ये नहीं जानेंगे कि हम इन किताबों को कैसे पढ़ें और समझें. और उससे भी अहम बात ये कि हम ये जानें कि इन किताबों से मिले ज्ञान का इस्तेमाल कैसे करें, तब तक ये किताबें हमारे जीवन में कोई बदलाव नहीं ला सकती हैं.

और ये बदलाव की प्रक्रिया यानी खुद के किरदार को गढ़ने का तरीका ही है, जो हम महात्मा गांधी से सीख सकते हैं. हम जैसी रोजमर्रा की जिंदगी जीते हैं, गांधी भी कमोबेश ऐसी ही जिंदगी जीते थे. और उनके जीवन के सबक ही हमारे लिए दोस्त, दार्शनिक और गुरू का काम कर सकते हैं.

आज दौर फौरी नुस्खों का है. जिंदगी वायरल है. लेकिन, गांधी के रोजमर्रा के तजुर्बों में बड़ी गहराई है. इसमें हमारे लिए ऐसे सबक छुपे हैं, जो हमें अंधकार से रोशनी की तरफ ले जा सकते हैं. हम उस पर नजर डालें उससे पहले आज के दौर का हल्का सा जिक्र.

हाल के दशकों में कई विचारकों ने दर्शन या तसव्वुफ की अलग-अलग परिभाषाएं दी हैं. दर्शन शास्त्र केवल विद्वता का अध्ययन नहीं है. न ही ये कक्षा में याद कराया जाने वाला सबक है. दर्शन को हम सेमीनार या कांफ्रेंस के दायरे में भी नहीं समेट सकते. दर्शनशास्त्र को लेकर सदियों से कई तरह के तजुर्बे होते आए हैं. प्राचीन काल में यूनानियों और रोमन साम्राज्य के लोगों या प्राचीन भारत के लोगों के लिए दर्शन शास्त्र, जीवन जीने का एक तरीका था. ये किसी ग्रंथ का अध्ययन-विश्लेषण मात्र नहीं था. बल्कि दर्शन शास्त्र का मकसद चिरंतन काल से चले आ रहे प्रश्न-हम कैसे जिएं का जवाब तलाशना था.

फ्रेंच दार्शनिक पियर अदू ने विस्तार से बताया है कि दर्शनशास्त्र असल में जीवन जीने का तरीका है, जिंदगी जीने की कला है. पियर अदू प्राचीन दार्शनिकों के हवाले से लिखते हैं कि, 'प्राचीन काल में फिलो-सोफिया का मतलब था ज्ञान के प्रति लगाव या प्यार. ये बात अपने आप में दर्शन शास्त्र की व्याख्या करती है. तस्सवुफ असल में आध्यात्मिक सफर पर चलने का तरीका है, जो क्रांतिकारी बदलाव चाहता है. जिसकी अपेक्षा होती है कि कोई शख्स अपने किरदार में बुनियादी बदलाव करे. कहने का मतलब ये कि दर्शन असल में जीने का तरीका है. बर्ताव में भी और ज्ञान हासिल करने के लिहाज से भी. अपने लक्ष्य यानी ज्ञान की प्राप्ति से हमें कुछ जानकारी भर नहीं मिलती, बल्कि ये हमें दूसरों से अलग भी करता है.'

सेंट स्टीफेंस कॉलेज में दर्शनशास्त्र पढ़ाने वाले केपी शंकरन ने एक बार कहा था कि जीवन जीने की कला के रूप में दर्शनशास्त्र अब भी जिंदा है. हम इसके सबूत गांधी के जीवन और उनके आदर्शों में पाते हैं. गांधी को भी इस पहलू का अच्छे से अंदाजा था. गांधी ने एक खत में लिखा था कि, 'अगर हम दर्शनशास्त्र से मिले ज्ञान को किसी की प्यार से सेवा में नहीं लगाते, तो हमारा सारा ज्ञान मिट्टी है. किसी बड़े काम के लिए खुद की छोटी सी हस्ती को भूलना होगा. आप को बड़े आदर्श के लिए ऐसे आलस्य से खुद को आजाद करना होगा.'

पियर अदू के मुताबिक दर्शन के ऐसे आदर्श संत सुकरात थे. वो कक्षा में लेक्चर नहीं देते थे. उन्होंने कोई किताब भी नहीं लिखी. लेकिन, सुकरात ने बड़ी बामकसद जिंदगी गुजारी. सुकरात भी गांधी के तमाम आदर्शों में से एक थे. गांधी ने अपने शुरुआती दिनों में एक पर्चा लिखा था, इसमें उन्होंने सुकरात के भाषणों पर अरस्तू के लिखे माफीनामे के अनुवाद किया था.

पियर अदू खास तौर से आत्मसंयमी दार्शनिकों का जिक्र करते हुए उन्हें जीवन दर्शन के असली प्रणेता बताते हैं. गांधी ने आत्मसंयम पर कम से कम एक किताब जरूर पढ़ी थी. मौजूदा रिकॉर्ड इस बात की तस्दीक करते हैं. उन्होंने 1922-24 के बीच पुणे के येरवदा जेल में कैद रहने के दौरान ये किताब पढ़ी थी. आत्मसंयम पर इस किताब का नाम था, 'सीकर्स आफ्टर गॉड'. इस किताब को फ्रेडरिक विलियम फरार ने लिखा था. गांधी ने अपनी डायरी में इस किताब को 'एक प्रेरणादायक किताब' के तौर पर दर्ज किया था.

ब्रिटिश दार्शनिक रिचर्ड सोराबजी लिखते हैं, 'गांधी के विद्वान सचिव महादेव देसाई ने नोट किया था कि गांधी के आदर्श अक्सर आत्मसंयम में यकीन रखने वालों के भी आदर्श हुआ करते थे.'

पियर अदू की बात को आगे बढ़ाते हुए और प्रसिद्ध फ्रेंच दार्शनिक मिशेल फूको ने अपने आखिरी दिनों में खुद की देखभाल के मुद्दे पर काफी कुछ लिखा था. फुको ने लिखा था कि, 'मुझे इस बात में कोई दम नहीं लगता कि आज हम अपने लिए नैतिक मानदंड नहीं तय कर सकते, जबकि ये तो फौरी और बुनियादी जरूरत है. सियासी नजरिए से भी ये बहुत जरूरी काम है. किसी राजनीतिक सत्ता को चुनौती देने के लिए न कोई तय आगाज होता है और न ही अंजाम. इसके लिए सबसे पहले खुद के अंदर बदलाव का रिश्ता कायम करना होता है.'

ये बातें दिखाती हैं कि गांधी न केवल गीता और बाइबिल से प्रेरित हुए, बल्कि वो सुकरात और स्टोइसिज़्म से भी प्रभावित थे. हिंद स्वराज में उन्होंने सच्ची आजादी को परिभाषित करते हुए लिखा है कि, 'स्वराज्य या खुद के राज होने का मतलब है अपने ऊपर नियंत्रण होना.' इस लक्ष्य की प्राप्ति के सफर के दौरान उन्होंने स्वयं के अभ्यास का आविष्कार और उसका विस्तार किया. ये प्राचीन काल के धर्मनिरपेक्ष ज्ञान से मिलता-जुलता है.

तो, क्या हम गांधी के खुद से जुड़े अभ्यासों को समझ सकते हैं. खास तौर से प्राचीन काल के ज्ञान की रोशनी में. पियर अदू ऐसे प्रयासों को आध्यात्मिक वर्जिश कहते थे. पियर अदू ने प्राचीन काल की पश्चिमी सभ्यता को खंगाल कर अनुसंधान, संपूर्ण विश्लेषण, अध्ययन, श्रवण, ध्यान, स्व नियंत्रण, गैर जरूरी बातों को तवज्जो न देने जैसी बातों को इंसान के बुनियादी कर्तव्य बताया था.

आधुनिक काल में लियो टॉल्सटॉय, जॉन रस्किन और हेनरी डेविड थोरेऊ जैसे लोगों ने इन बातों पर अमल करने की कोशिश की. उनके ही नक्शे-कदम पर चलते हुए गांधी ने अपने जीवन को जिंदगी जीने की कला का आदर्श बना लिया.

अपने बारे में लिखना

माइकल फुको कहते हैं कि, 'लेखन, प्राचीन संस्कृति का अहम हिस्सा था. ऐसा कर के लोग अपना खायल रख लेते थे. स्वयं का ध्यान रखने की प्रक्रिया की अहम बात ये है कि आप अपने लिखे नोट को दोबारा पढ़ कर जीवन के सबक याद कर सकते हैं. अपने दोस्तों को खत लिख कर उनकी मदद कर सकते हैं. डायरी या नोटबुक रखकर वक्त आने पर खुद का सच से सामना करा सकते हैं.'

इस बारे में कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी के 97 खंड स्वयं के निर्माण की प्रक्रिया के दस्तावेज हैं. गांधी के उन खतों के बारे में सोचिए, जिसकी शुरुआत उन्होंने अपने आध्यात्मिक गुरु श्रीमद राजाचंद्र से बचकाने सवाल पूछने से की थी. और बाद के दिनों में वो लोगों को अपने जवाबी खत में उपनिषदों को पढ़ने से जुड़े तजुर्बों के बारे में बताते थे.

अपने ब्रह्मचर्य के तप के बारे में जानकारी देते थे. हमें महात्मा गांधी के लेखन के इन दस्तावेजों में उनके सचिव महादेव देसाई की डायरियों को भी शामिल करना चाहिए, वो भी कई खंडों में है.

गांधी ने जो आत्मकथा लिखी है वो भी एक आध्यात्मिक तजुर्बा ही है. गांधी ने लिखा है कि, 'मैं अपने तमाम तजुर्बों के किस्से बताना चाहता हूं और चूंकि मेरा जीवन तजुर्बों के सिवा कुछ और है नहीं, तो जाहिर है कि ये किस्से आत्मकथा का रूप धर लेंगे.'

वैसे लेखन के जरिए अपना व्यक्ति निर्माण करने का ये तरीका केवल भारतीय धार्मिक/आध्यात्मिक परंपरा में ही दिखता हो, ऐसा नहीं है.

अध्ययन

फिलो अदू कहते हैं कि पढ़ना अपने आप में एक अभ्यास है. लिखने की ही तरह गांधी की 'साधना' भी अध्ययन के बिना अधूरी है. गांधी ने गीता, बाइबिल, तमाम पर्चे और न जाने कितनी किताबें पढ़ीं. उन्होंने अपनी आत्मकथा में घोषणा की है कि आधुनिक दौर के तीन इंसानों (उन्होंने प्राचीन काल के संतों का जिक्र नहीं किया है) ने उन पर गहरा असर डाला.

इनके नाम हैं, रायचंदभाई (श्रीमद राजचंद्रा), टॉल्सटॉय और जॉन रस्किन. प्रेमाबेन कंटक को 1931 में लिखे खत में गांधी ने इस लिस्ट में थोरेऊ का भी नाम जोड़ा था. महात्मा गांधी ने अपने खतों, भाषणों और साक्षात्कारों में बार-बार इस बात का जिक्र किया है कि जॉन रस्किन की किताब, 'अनटू दिस लास्ट' पढ़ने के बाद उनके जीवन में क्रांतिकारी बदलाव आया था.

मित्रता

पियर अदू ने लिखा है कि आनंदवादी लोगों ने अपने तमाम लेखनों में आध्यात्मिक विकास के लिए दोस्तों की जरूरत बताई है. हम इस नजरिए से देखें, तो गांधी के जीवन में उनके खास दोस्तों की अहमियत समझ में आती है, खास तौर से हरमन कालेनबाख के साथ. दोनों के बीच आध्यात्मिक तजुर्बों को लेकर लंबा संवाद हुआ था.

समुदाय की सेवा

पियर अदू लिखते हैं कि, 'दर्शनशास्त्र की सभी विचारधाराओं में (खास तौर से प्राचीन काल के यूनान और रोमन साम्राज्य में)' अनुयायियों और शागिर्दों को नए जीवन के सबक बताए जाते थे. हालांकि इनका तरीका बहुत नरम था. आध्यात्मिक अभ्यास की परंपरा के तहत उस वक्त मिले सहज ज्ञान से दूरी बनाना सिखाया जाता था.

इन शागिर्दों को बताया जाता था कि वो संपत्ति, सम्मान और आनंद की दुनियावी उपलब्धियों से अलग हो जाएं. इसके बजाय वो असली गुणों, विचार करने और साधारण जीवन जीने से छोटी-छोटी खुशियां हासिल करने का तजुर्बा पाएं. महात्मा गांधी के आश्रम भी इस परिकल्पना के बेहद करीब थे. जिसमें सामुदायिक सेवा पर जोर दिया जाता था. स्वयं को पाने के लिए प्राचीन काल के आश्रमों जैसा माहौल गांधी के आश्रम में बनाया जाता था.

गांधी के अन्य विचारों में स्वयं के शरीर का खयाल रखना, मौन रहना, दुनियावी चीजों से दूर रहना, अपने भीतर की सत्य की आवाज को सुनना, नैतिक शुद्धिकरण, और ताकतवर लोगों से सच बोलने की नैतिक जिम्मेदारी अहम हैं.

इसके अलावा गांधी की नजर में जीवन दर्शन का मतलब खुद को मृत्यु के लिए तैयार करना भी है. जीवन जीने की कला की तरह ही मृत्यु की कला भी है. और जैसा कि दुनिया ने इस कला का मुजाहिरा 30 जनवरी 1948 को किया था, जब गांधी के नश्वर शरीर ने इस दुनिया को अलविदा कहा था.