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हाशिए पर...पार्ट 2: कहानी उन घुमंतू गड़िया लोहारों की, जो अब 'नीचे दुकान, ऊपर मकान' की मांग कर रहे हैं

औद्योगिकरण की क्रांति ने गड़िया लोहारों के रोजगार पर तो अपना असर छोड़ा ही .साथ में उनसे उनका चलता-फिरता आवास यानी बैलगाड़ी भी छीन लिया

Kumari Prerna Shubham Singh

26 सितंबर, 2018. दोपहरी चढ़ने में अभी एक घंटा शेष है, लेकिन सुबह से ही चिलचिलाती धूप मन को अलसाए जा रही है. आज जंतर-मंतर के पास गड़िया लोहारों की रैली निकलनी है. हमें वहां अपनी उपस्थिति दर्ज कराने जाना है क्योंकि 'हाशिए पर'.... सीरीज पार्ट - 2 की यह कहानी उन्हीं के ईर्द-गिर्द सिमटी हुई है. 

घड़ी में कोई ग्यारह बज रहे होंगे. रंगमंचों के लिए मशहूर मंडी हाउस की सड़क पर 'सौ सोनार की, एक लोहार की', 'नीचे दुकान, ऊपर मकान' के नारों के साथ ही गड़िया लोहार समाज का जत्था संसद मार्ग की ओर कूच करने लगा है. कोई हरियाणा के फरीदाबाद से आया है तो कोई दिल्ली के आजादपुर से. इनमें लंबी मूंछों वाले और कान में बाली पहने नौजवानों के साथ लंहगा चोली और लूंगड़ा पहने बूढ़ी महिलाएं भी शामिल हैं. लगभग हर किसी की छाती पर महाराणा प्रताप की तस्वीर वाली एक आई-डी कार्ड लटकी है.


रैली के साथ ही चल रहे ऑटो में बैठा एक शख्स माइक से ' दिल्ली सरकार हाय! हाय! अरविंद केजरीवाल हाय! हाय! ' के नारे लगा रहा है. भीड़ की कोशिश है कि संसद मार्ग से निकल रही नारों की गूंज संसद में बैठे देश के नुमांइदों तक पहुंचे.

हजारों की संख्या में जुटे गड़िया लोहारों की यह रैली मीडिया के कैमरे की आंखों से दूर कुछ घंटों तक मजबूती से डटी रही. प्रेस के कुछ बंधु रैली कवर करते करते उसी समय बगल में राफेल डील घोटाले को लेकर जेएनयू के कुछ छात्रों द्वारा शुरू हुए  ' राष्ट्रीय विरोध प्रदर्शन ' की तरफ कब फोकस कर लिए, भनक भी नहीं लगी.

चार घंटे तक एकत्रित भीड़ को उसकी मांगों और उसके गौरवशाली इतिहास से अवगत कराने के बाद इनके मुद्दों की समझ रखने वाले कुछ लोग प्रधानमंत्री कार्यालय की तरफ ज्ञापन सौंपने चले गएं और कई आश्वासनों के साथ रैली का समापन कर दिया गया.

गड़िया लोहारों की रैली. फोटो साभार- शुभम सिंह

गड़िया लोहारों की मांग, उनसे किए वादे और दिए आश्वासन पर बात करने से पूर्व ये जानना जरूरी है कि गड़िया लोहार हैं कौन और इनका इतिहास क्या है.

कौन हैं गड़िया लोहार?

गड़िया लोहार, लोहार जाति का ही एक ऐसा समुदाय है जो मूलतः राजस्थान के चित्तौड़गढ़ से ताल्लुक रखता है. मान्यता के अनुसार यह एक ऐसी अनोखी घुमक्कड़ जाति है, जो कभी अपना घर नहीं बनाती, बल्कि एक विशेष प्रकार की बैलगाड़ी ही इनका चलता-फिरता बसेरा रहा है.जन्म, मरण, घरण, गौना सब बैलगाड़ी में ही होता आया है. इस समुदाय का अपना एक गौरवशाली इतिहास भी है.

माना जाता है कि आज से लगभग 500 साल पहले हल्दीघाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप अकबर के हाथों चित्तौड़गढ़ हार गए. इसके बाद उन्होंने प्रतिज्ञा ली कि जब तक वह मेवाड़ को मुगलों के चंगुल से आजाद नहीं करा लेते तब तक वह अपने राज वापस नहीं लौटेंगे और न ही इस बीच कोई स्थाई निवास बनाएंगे. इस संकट की घड़ी में उनका साथ गड़िया लोहार समुदाय के लोगों ने दिया था.

महाराणा के कंधे से कंधा मिलाकर मुगलों के साथ युद्ध लड़ने वाले गड़िया लोहार, हर मोर्चे पर अपनी निष्ठा साबित करते रहें. समय के साथ मुगल साम्राज्य का अंत हो गया. राजा, रजवाड़े, सल्तनत सब खत्म हो गए. अंग्रेज भी आकर चले गए, लेकिन गड़िया लोहार अपनी प्रतिज्ञा पर डटे रहें.

इतने गौरवशाली इतिहास वाले इस समुदाय की वर्तमान स्थिति क्या है

अगर बात दिल्ली की करें तो यहां गड़िया लोहारों की लगभग 90 बस्तियां हैं. इन्हीं में से एक बस्ती मदनगीर में स्थित है. दिल्ली के साकेत मेट्रो स्टेशन से करीब 4 किलोमीटर की दूरी पर बसी इस बस्ती में कई झुग्गियां हैं. झुग्गियों के ठीक सामने ही ये लोहार खुले आसमान में अपनी दुकान लगाए बैठे हैं.

गड़िया लोहारों की बस्ती, फोटो आभार -शुभम सिंह

लोहे के इन सामानों को खरीदने वाले की कोई लंबी कतार नहीं लगी. बस एक महिला खड़ी है, जिसे लोहे का तवा चाहिए.

'ये तवा कितने की होगी भईया, उसने पूछा?

300 रुपए.

दाम सुनकर महिला थोड़ी बिदकी फिर सामान्य मोलभाव का असफल प्रयास करने लगी.

और अंतत: दिन भर में आया यह दूसरा ग्राहक भी बिना कुछ खरीदे वापस लौट गया.

सुबह से भरी दोपहरी तक बोहनी की आस में बैठे लोहार संतोष बताते हैं ,' रोज ऐसे ही होता है भईया. किसी दिन सौ दो सौ कमा लेते हैं तो कभी कभी पूरा दिन निकल जाता है और कुछ कमाई नहीं होती. यहां तक की सामान की लागत निकालना भी मुश्किल हो गया है. अब सारे काम मशीन से होने लगे हैं. ऐसे में जो सामान आपको 20 रुपया सस्ता मिल जाएगा, वही सामान आप 20 रुपया महंगा क्यों खरीदेंगे? ये औद्योगिकरण का दंश है!

औद्योगिकरण की क्रांति ने गड़िया लोहारों के रोजगार पर तो अपना असर छोड़ा ही .साथ में उनसे उनका चलता-फिरता आवास यानी बैलगाड़ी भी छीन लिया.

गड़िया लोहारों की बैलगाड़ी, फोटो साभार- शुभम सिंह

ऐसे में देश की आजादी के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू द्वारा कसम तुड़वाने की हर संभव प्रयास के बावजूद अपनी बातों पर अड़ा रहने वाला यह समाज,  मशीनीकरण की मार से ठप पड़े अपने पारंपरिक व्यवसाय के बाद एक बेहतर जीवन की आश और रोजगार की नई संभावनाओं की तलाश में एक स्थाई बसेरा ढ़ूंढ़ने पर मजबूर हो गया.

वर्तमान दौर में अन्य समाज के लोगों की तरह ही गड़िया लोहारों का समाज भी आवास, शिक्षा और रोजगार जैसी मूलभूत सुविधाओं के लिए संघर्ष कर रहा है.

मालवीय नगर के हौज रानी गांव में सड़क किनारे बसी गड़िया लोहारों की बस्ती में रहने वाली चालीस वर्षीय रीमा कहती हैं , ' क्या बताएं दिक्कत तो बहुत है, लेकिन सबसे बड़ी समस्या शौचालय की है. शौच के लिए पीछे कब्रिस्तान जाना पड़ता है.

कब्रिस्तान,फोटो आभार-शुभम सिंह

कब्रिस्तान!

हां, सरकार ने कुछ महीने पहले ही सड़क के सामने शौचालय बनवाया था, लेकिन वो ज्यादातर समय बंद पड़ा रहता है. रात में कब्रिस्तान की तरफ जाने में भी डर लगता है,पीछे से सांप निकल जाए या कोई आदमी अपनी नज़र गड़ा ले, कोई भरोसा नहीं. लेकिन क्या करें? इन सब के बावजूद हमारे पास कोई अन्य साधन नहीं है.

हौजरानी गांव स्थित सरकारी शौचालय पर लगा हुआ ताला, फोटो- शुभम सिंह

यह विश्वास कर पाना मुश्किल है कि ये स्थिति देश की राजधानी दिल्ली के सबसे रियाहिसी इलाकों में से एक दक्षिण दिल्ली की है. जहां बगल में मैक्स अस्पताल का पार्किंग लॉट है और थोड़े ही दूर चलने पर साकेत मॉल.

सरकार एक ओर जहां इन्हें मूलभूत सुविधाएं देने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठा रही वहीं प्रशासन का बर्ताव भी इनके प्रति निराश करने वाला है.

बीते 4 अगस्त यानी शनिवार को गीता कालोनी में रहने वाले गड़िया समुदाय के लोगों को अज्ञात नोटिस प्राप्त होती है कि अगले 48 घंटे में ब्लाक न. 14(जहां गड़िया लोहारों का बसेरा है) के आसपास के सड़क एवं नालों को हटा दिया जाएगा इसलिए समय रहते ही झुग्गियों को खाली कर दिया जाए.

अतिक्रमण हटाने संबंधित नोटिस की कॉपी

अतिक्रमण हटाने की इस नोटिस को लेकर सर्वोच्च न्यायलय के अधिवक्ता कमलेश मिश्रा गीता कालोनी थाने पहुंचते हैं. कमलेश बताते हैं, 'एसएचओ ने कहा कि वकील साहब आप यह किन गड़िया लोहारों के चक्कर में पड़ गए हैं. यह लोग यहां सालों से अवैध कब्जा जमाए हैं. यह सब भी रोहिंग्या वगैरह की तरह हैं.' इस तरह से गीता कॉलोनी के एसएचओ ने शिकायत दर्ज करने से मना कर दिया.

फिर कमलेश ने 100 नंबर की मदद लेकर किसी तरह शिकायत दर्ज कराई और अतिक्रमण रोकवाने के लिए उसके अगले दिन हाईकोर्ट में डुसिब और डीडीए के खिलाफ याचिका दायर कर दिया. कोर्ट ने अतिक्रमण को लेकर आई नोटिस पर रोक लगा दी है लेकिन गड़िया लोहारों को ऐसी मुश्किलों को सामना  कब तक करना पड़ेगा, कोई भरोसा नहीं.

गड़िया लोहारों के लिए आवंटित सरकारी आवासों का क्या हुआ?

इसका हाल जानने के लिए हम दिल्ली के मंगोलपुरी इलाके में गए, जहां 'गड़िया लोहार पुनर्वास योजना' के तहत तत्कालीन केंद्रीय शहरी विकास राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) श्री बंडारू दत्तात्रेय और केंद्रीय श्रम मंत्री डॉ साहिब सिंह वर्मा की अध्यक्षता  में 34 गड़िया परिवारों के लिए ' नीचे दुकान और ऊपर मकान ' मॉडल की तर्ज पर आवास का उद्घाटन किया गया था. लेकिन उद्घाटन के लगभग पन्द्रह साल बीत जाने के बाद भी उन्हें उनका हक नहीं मिला.

ताले लगे इन अवासों के बाहर ही एक झुग्गी बनाकर रह रहे गड़िया लोहार अनिल का कहना है, '3 अक्टूबर 2003 को इस प्लाट का उद्धघाटन हुआ और 2004 में इसे हमें देने का वादा किया गया. लेकिन उस समय किसी कारणवश हमें इन प्लॉटों की चाभी नहीं मिली सकी. इस तरह के प्लॉट हमें तीन जगहों पर अलॉट किए गए थे, उनमें प्रीतमपुरा, बुद्ध विहार और मंगोलपुरी है. यह पूछने पर कि आपने इन अावासों को पाने का कोई प्रयास नहीं किया.

सरकार द्वारा गाड़िया लोहारों को आवंटित किए गए आवास पर ताला लगा है. फोटो- शुभम सिंह

अनिल आगे बताते है, 'हमने अपने निगम पार्षद से बात की. उन्होंने आशवासन दिया कि तुम्हारे नाम पर अलॉट है और हम इसकी फाइल निकलवाएंगे लेकिन आज इतने वर्ष बीत जाने के बाद भी कुछ नहीं हुआ. फिर हमने और चक्कर लगाएं. हमसे दस्तावेज मांगे गए. हमनें वह भी दिया.पहचान पत्तर भी दिया. आधार कार्ड से लेकर वोटर कार्ड तक सबकुछ लेकर गए लेकिन आज तक कोई सुनवाई नहीं हुई.'

तो ऐसी क्या वजह है कि गड़िया लोहारोंं को इतने वर्षों  बाद भी आवास नहीं दिए जा रहें ? इसका जवाब जानने के लिए हमने डीडीए को फोन और मेल से संपर्क किया लेकिन उधर से कोई जवाब प्राप्त नहीं हुआ.

हालांकि, सरकार  गड़िया लोहारों की जिंदगी बेहतर बनाने का दावा तो करती है लेकिन उन दावों की जमीनी हकीकत शायद कुछ और है.

जमीनी स्तर तक पहुंचने की बजाए हवा हो गईं सरकारी योजनाएं

गड़िया लोहारों को मूलभूत सुविधाएं देने के साथ ही सामाजिक रूप से उन्हें आगे ले जाने का दावा सरकार द्वारा किया जा रहा है. भारत सरकार के सामाजिक न्याय और आधारशिला मंत्रालय के अंतर्गत आने वाले नेशनल बैकवर्ड क्लासेज फ़ाइनेन्स एण्ड डेवलपमेंट कॉरपोरेशन (एनबीसीएफडीसी) द्वारा गुड़गाव में महिलाओं को 'सेल्फ एम्प्लॉयड टेलर कोर्स फॉर यंग वुमन' योजना के तहत प्रशिक्षण दिया जा रहा है. प्रशिक्षण प्राप्त करने वाली महिलाओं को सिलाई, कढ़ाई और बुनाई के अलावा ब्यूटीशियन का कोर्स कराया जा रहा है.

इस योजना को लेकर गड़िया लोहार समुदाय से आने वाले और अपने समाज के मुद्दों को सामने रखने वाले दीपक बताते हैं, ' हम दिल्ली में कई सालों से काम कर रहे हैं लेकिन हमारे लिए यहां इस तरह की कोई योजना नहीं चलाई जा रही है. अन्य राज्यों में  हमारे समाज के लिए कोई योजना चल रही हो तो उसके बारे में हमें नहीं पता'

सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए किए जा रहे सरकारी प्रयासों का लाभ गड़िया समाज को मिल नहीं रहा और न ही इनके समाज के लिए चलाई जा रही विशेष योजना का फायदा इन तक पहुँच पा रहा.

एक उम्मीद जगाता मालवीय मिशन योजना!

सरकार की अनदेखी के बीच मालवीय मिशन योजना गड़िया लोहारों की जिंदगी को पटरी पर लाने का एक छोटा प्रयास कर रही है. बीएचयू के अल्यूमनाई के एक समूह ने साल 2015 में विशेषत गड़िया लोहारों के लिए इस मिशन की शुरुआत की. उनका मकसद इस समुदाय में शिक्षा का बीज बोना था. ऐसे में इस मिशन के तहत सबसे ज्यादा ध्यान उन बच्चों पर दिया गया जो स्कूल नहीं जाते थे. इसके लिए दिल्ली में कुल 32 सेंटर खोले गए हैं.

मालवीय मिशन के सचिव शक्ति सुमन बताते हैं, 'मौजूदा वक्त में  गड़िया समुदाय के 750 बच्चे हमारे द्वारा चलाए जा रहे इस योजना के तहत लाभान्वित हो रहे हैं. इन बच्चों को पढ़ाने वाले ज्यादातर लोग गड़िया समुदाय के ही होते हैं. इससे इनके पारंपरिक व्यवसाय से इतर इन्हें रोजगार का एक दूसरा साधन भी प्राप्त हो जाता है. इन शिक्षकों को हर महीने प्रशिक्षण देने का काम हम ही करते हैं.'