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मारवाड़ की 'महारानी सा' जो समय के 3 कालखंडों की गवाह रहीं

25 साल की उम्र में विधवा हो जाने के बावजूद शालीन और संयत जीवन ने कृष्णाकुमारी को पूरे मारवाड़ की 'महारानी सा' बनाए रखा

Mahendra Saini

16 दिसंबर 1946 को सरदार पटेल ने कहा था कि रियासतों के स्वतंत्र अस्तित्व को मिटाए बिना लोकतंत्रीय शासन की स्थापना नहीं हो सकती. लेकिन 3 जुलाई 2018 को जोधपुर के पूर्व राजघराने की कृष्णा कुमारी के अंतिम दर्शन के लिए उमड़ी भीड़ को देख कर तथ्य कुछ अलग ही नजर आते हैं. ऐसा लगता है कि रियासतों का स्वतंत्र अस्तित्व भले ही मिट गया हो लेकिन आज भी लोगों के बीच सम्मान लोकतंत्र में नए 'राजा' बने नेताओं से ज्यादा पुराने राजपरिवारों का ही है.

मारवाड़ राजघराने की आखिरी राजमाता कृष्णा कुमारी ने 92 साल की उम्र में अंतिम सांस ली. उम्मेद भवन पैलेस में उनके शरीर को अंतिम दर्शन के लिए रखा गया. यहां बीजेपी और कांग्रेस के बड़े नेताओं समेत आम जनता भी भारी संख्या में उमड़ी. आमतौर पर किसी राजघराने के लिए जनता में इतना सम्मान कम ही देखने को मिलता है.


ये सम्मान इसके बावजूद है कि 1947 में जोधपुर राजा और कृष्णाकुमारी के पति हनवंत सिंह पर पाकिस्तान में मिलने की इच्छा के आरोप लगाए जाते हैं. हालांकि राजमाता पर 'द रॉयल ब्लू' लिखने वाले अयोध्या प्रसाद गौड़ ऐसे कई किस्सों को हकीकत से ज्यादा फसाना ही करार देते हैं

महारानी नहीं मारवाड़ की बहू बनकर रहीं कृष्णा कुमारी

पश्चिमी राजस्थान की जनता में कृष्णा कुमारी के लिए इतना ज्यादा सम्मान इसलिए नहीं था कि वे राजमाता थी. सम्मान इसलिए था कि कभी उन्होंने आम जनता को ये दर्शाया ही नहीं कि वे राजघराने से हैं. एकदम जमीन से जुड़ी हुई, तड़क-भड़क विहीन रहन-सहन और मदद के लिए हमेशा तैयार रहने वाले स्वभाव के कारण वे राजशाही खत्म होने के बावजूद जोधपुर की जनता की हरदिल अजीज बनी रहीं.

फोटो यूट्यूब से

ऐसा नहीं है कि राजघराने से होने के कारण उनकी जिंदगी में कोई गम ही नहीं थे. उन्हें नजदीक से जानने वालों का कहना है कि उन्होंने जितने तूफानों को सहा, उतने में और कोई इंसान कभी का जिंदगी से हार मान चुका होता. लेकिन वे डटी रहीं. जिंदगी में विपरीत परिस्थितियों के बीच सामंजस्य बनाने और जिंदादिली उनकी जिंदगी से सीखी जा सकती है.

यही वजह है कि 1971 में जब वे लोकसभा चुनाव के लिए मैदान में उतरी तो बाकी उम्मीदवारों की हवा खिसक गई. जनता ने उनकी इस बात को पूरा सम्मान दिया कि 'समय बदलता है, संबंध नहीं'

3 कालखंडों की गवाह रहीं कृष्णा कुमारी

राजमाता की जिंदगी इतिहास के 3 कालखंडों की गवाह रही है. पहला कालखंड, जब वे शादी कर गुजरात की छोटी रियासत ध्रंगधरा से देश की सबसे बड़ी रियासतों में से एक मारवाड़ यानी जोधपुर पहुंचीं. एक छोटी रियासत की राजकुमारी से बड़ी रियासत की महारानी बनने के दौरान मुश्किलें कम नहीं आईं. उनके जीवनीकार अयोध्या प्रसाद गौड़ के मुताबिक समस्याएं बहुत ज्यादा थी मसलन भाषा की समस्या. कृष्णा कुमारी गुजराती बोलती थीं जबकि जोधपुर की भाषा मारवाड़ी थी. वे अंग्रेजी कम जानती थीं जबकि मारवाड़ राजघराने में उनके दूर-दूर के रिश्तेदार भी कान्वेंट स्कूलों में पढ़े हुए थे और अंग्रेजी बोलने में गर्व महसूस करते थे.

दिन में ऐसा कोई मौका नहीं जाता था जब उनका इसलिए मजाक नहीं बनाया गया हो कि उन्हें अंग्रेजी नहीं आती, कि उन्हें यूरोपियन ढंग का सलीका नहीं आता, कि उनका व्यक्तित्व एकदम देसी है. तत्कालीन राजा उम्मेद सिंह और राजमाता यानी उनकी सास से केवल इसलिए शिकायत लगाई जाती कि कृष्णा कुमारी नौकर-नौकरानियों से इतना अपनापन क्यों जताती हैं!

हालांकि ऐसे समय मे उन्हें पति हनवंत सिंह और ससुर उम्मेद सिंह का पूरा सहयोग मिला. उम्मेद सिंह ने उन्हें पर्दा प्रथा जैसीे कई पारंपरिक रीतिरिवाजों से आजाद कर दिया. पति हनवंत सिंह ने उनके व्यक्तित्व को निखारने में काफी मदद की. खुद कृष्णा कुमारी बताती थीं कि कई बार हनवंत सिंह अंग्रेज परिचारिकाओं का उदाहरण देते हुए कहते थे कि जब वे टूटी फूटी हिंदी बोलते नहीं शर्मातीं तो आप क्यों अंग्रेजी की गलतियों से डरती हैं.

इतिहास का दूसरा कालखंड, जो उन्होंने जिया, वो समय किसी भी विवाहित स्त्री के लिए सबसे ज्यादा मुश्किल भरा होता है. शादी के कुछ साल के अंदर ही हनवंत सिंह उनकी 2 सौतन ले आए. इनमें एक वही अंग्रेज नर्स थी, जो कृष्णाकुमारी की बीमारी के दौरान सहायता के लिए रखी गई थी. दूसरी वो थीं, जिन पर श्याम बेनेगल ने हिंदी फिल्म ज़ुबैदा बनाई.

जुबैदा को भी स्वीकार लिया कृष्णा कुमारी ने

फोटो यूट्यूब से

500 साल पहले जोधपुर के राजा मालदेव से शादी की रात ही किसी बात पर पत्नी उमादे रूठ गई थीं. जिंदगी भर उमादे मारवाड़ में रहकर भी मालदेव से दोबारा नहीं मिलीं. इतिहास में उमादे को रूठी रानी के तौर पर पहचाना जाता है. लेकिन कमोबेश ऐसे ही हालात होने के बावजूद कृष्णाकुमारी रूठी रानी नहीं बनीं.

1943 में महज 17 साल की उम्र में शादी कर आई कृष्णा कुमारी की जिंदगी में भी पति से नाराज होने के बहुत कारण मौजूद थे. 2 सौतन आईं. हालांकि पहली तो इंग्लैंड लौट गई लेकिन दूसरी यानी ज़ुबैदा बेगम को हनवंत सिंह ने ताजिंदगी साथ रखा. यहां तक कि जब राजपरिवार ने इस रिश्ते को नहीं स्वीकारा, हनवंत सिंह उम्मेद भवन पैलेस छोड़कर मेहरानगढ़ किले में रहने लगे, तब भी वे शांत बनी रहीं.

कृष्णाकुमारी की शादी के महज 8 साल बाद 1952 में चुनाव प्रचार के दौरान हनवंत सिंह और ज़ुबैदा प्लेन क्रैश में मारे गए. तब भी कृष्णाकुमारी हनवंत-ज़ुबैदा के बेटे टूटू बन्ना को लेकर ज्यादा फिक्रमंद थी. तब टूटू बन्ना की उम्र बमुश्किल एक डेढ़ साल थी. टूटू बन्ना को उन्होंने अपने बेटे गज सिंह की तरह ही पाला. यहां तक कि एकबार जब ज़ुबैदा की मां कृष्णाकुमारी पर सौतेली मां का आरोप लगाकर अपने नाती को लेने आईं तो वो भी हैरान रह गई. क्योंकि ये बच्चा इतनी अच्छी तरह से रह रहा था, जितना कि वो खुद भी अपने नाती के लिए नहीं कर सकती थीं.

ज़ुबैदा बेगम की पहली शादी से पैदा हुए बेटे खालिद मोहम्मद पत्रकार, फ़िल्म समीक्षक और निर्देशक हैं. 2001 में आई फिल्म ज़ुबैदा की पटकथा उन्होंने ही लिखी थी. राजपरिवार से जुड़े रहे खुमान सिंह राठौड़ का कहना है कि खालिद मोहम्मद के साथ भी कृष्णा कुमारी ने कभी बैर नहीं रखा.

बहरहाल, अपनी जिंदगी के तीसरे कालखंड में कृष्णाकुमारी ने करीब 65 साल का लंबा वैधव्य झेला. इस दौरान रियासतों का विलय, राजशाही से लोकतंत्र का संक्रमणकाल और चुनावी राजनीति में कांग्रेसियों की राजपरिवार के खिलाफ पैंतरेबाजी दिखी. लेकिन 25 साल की उम्र में विधवा हो जाने के बावजूद शालीन और संयत जीवन ने कृष्णाकुमारी को पूरे मारवाड़ की 'महारानी सा' बनाए रखा.

( लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं. )