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परंपरा और प्रगति के संगम का नाम है फिराक गोरखपुरी

फिराक गोरखपुरी की शायरी क्लासिकी परपराओं का एक संग्रह है

Nazim Naqvi

पिछले दिनों 22 फरवरी को उर्दू के एक बहुत अज़ीम शायर की बरसी थी. नाम था जोश मलीहाबादी. जोश विभाजन के बाद पाकिस्तान चले गए थे लेकिन बहुत कुछ यहीं छोड़ गए थे, उन्हीं में उनका वह दोस्त भी था जिसे दुनिया फिराक गोरखपुरी के नाम से जानती है. इस दोस्ती का ज़िक्र इसलिए कि दोनों करीब एक ही समय-काल में इस दुनिया में आए (फिराक जोश से दो साल बड़े थे) और लगभग एक ही साथ दुनिया से रुखसत हुए.

जोश पाकिस्तान में बीमार पड़े और फिराक हिंदुस्तान में. जब जोश के इन्तेकाल की खबर आई तो फिराक दिल्ली के एम्स में एडमिट थे. खबर सुनी तो


एक शेर कहा-

काफी दिनों जिया हूं किसी दोस्त के बगैर

अब तुम भी साथ छोड़ने को कह रहे हो खैर

शेर तो कह दिया मगर देर तक जिंदा नहीं रह पाए और सिर्फ नौ दिन बाद 3 मार्च को वो भी पीछे-पीछे चल दिए. लेकिन जाने से पहले उर्दू-अदब को संस्कृत-साहित्य की सृजन-शक्ति से मालामाल कर गए. संस्कृत के एक श्लोक को देखिए-

येषां न विद्या, न तपो, न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्म:

ते मर्त्यलोके भूवि भारभूतः मनुष्यरूपेण म्रिगाश्वरन्ति

जो विद्या के लिए प्रयत्न नहीं करते, न तप करते हैं, न दान देते हैं, न ज्ञान के लिए यत्न करते हैं, न शील हैं और न ही जिनमें और कोई गुण हैं, न धर्म है (सही आचरण है), ऐसे लोग मृत्युलोक में इस धरती पर बोझ ही हैं, मनुष्य रुप में वे वास्तव में जानवर ही हैं.

देखिए इस एहसास की झलक फिराक के यहां किस तरह से उजागर होती है. उर्दू साहित्य में इससे पहले ये भाव कभी नहीं आया था-

फिजा की ओट में मुर्दों की गुनगुनाहट है

ये रात मौत की बेरंग मुस्कराहट है

फिराक गोरखपुरी की शायरी क्लासिकी परपराओं का एक संग्रह है. उनके कहने में उर्दू के बड़े उस्ताद शायरों की आवाजें भी मिलती हैं और यह कहना गलत नहीं होगा कि वह इस परंपरा के आखिरी बड़े शायर हैं. दूसरी ओर उन्हें आधुनिक ग़ज़ल का पहला शायर भी कहा जाता है. रवायत या परंपरा से इतना गहरा रिश्ता रखते हुए आधुनिकता को गले लगाना बड़ा मुश्किल काम था लेकिन फिराक ने हंसते-बोलते इस काम को बखूबी अंजाम दिया.

आए थे हंसते-बोलते मैखाने में फिराक

जब पी चुके शराब तो संजीदा हो गए

संजीदा शब्द की संजीदगी को फिराक ने जिस तरह बरता और बरतकर शराब जैसी शय को जो गंभीरता दी, यही लहजा उन्हें बड़े शायर की फेहरिस्त में खड़ा कर देता है. यह वह शायर है जो अपनी शख्सियत से जुदा है क्योंकि इसी शराब के बारे में कभी उन्होंने ये भी कहा, 'साहब! शराब बहुत बदमजा चीज है... वह लोग परले दर्जे के झूठे होते हैं जो शायरी और शराब में रिश्ता जोड़ते हैं, मैं तो सिर्फ नींद के लिए पीता हूं.' मगर कहते हैं कि एक दौर ऐसा भी गुजरा जब वो देसी शराब में न जाने क्या अला-बला मिलाकर पीने लगे थे, उसकी तेजी को बढ़ने के लिए.

थी यूं तो शामे-हिज्र मगर पिछली रात को

वह दर्द उठा फिराक कि मैं मुस्कुरा दिया

फिराक उदासियों का जश्न मनाते हैं आंसुओं को जगमगाते हैं और इसी के साथ एक ना-तमाम इश्क की दास्तान भी सुनाते हैं-

हमसे क्या हो सका मुहब्बत में

खैर तुमने तो बे-वफाई की

उर्दू साहित्य में फिराक उस शख्सियत का नाम है जो अपनी शर्तों पर जिया. कहते हैं इस जीने में उन्हें कई परेशानियों का सामना भी करना पड़ा. परिवार होते हुए अकेले रहने पर मजबूर हुए. एक मुसलसल तन्हाई उनका मुकद्दर बन गई जिसका इजहार वो इस तरह करते हैं-

न कोई वादा न कोई यकीं न कोई उमीद

मगर हमें तो तेरा इंतजार करना था

उर्दू के एक मशहूर आलोचक और साहित्यकार प्रो. शमीम हनफी, जो उनके शागिर्द भी रहे, कहते हैं, 'फिराक साहब की बातों से अंदाजा होता था कि गए दिनों में उन्हें अध्ययन का भरपूर शौक रहा होगा. फलसफा (दर्शन-शास्त्र), तारीख (इतिहास), नफसियात (मनो-विज्ञान) और अदब (साहित्य), वो चार धुरियों हैं जिनकी मदद से फिराक साहब अपनी पहचान और अपनी दुनिया को समझने का काम लेते थे. ये चारों माध्यम उनके लिए कुछ ऐसे थे गोया वह आते-जाते मौसमों या दृश्यों का जुलूस देख रहे हों. जब जी चाह इसमें शामिल हो गए और जिस घड़ी तबियत जरा उकताई, मुंह दूसरी तरफ फेर लिया.'

मैं देर तक तुझे यूं भी न रोकता लेकिन

तू जिस तरह से उठा है उसी का शिकवा है

मजनूं गोरखपुरी जो उनके मुंह लगे दोस्त भी थे और साहित्य में अपना एक मुकाम रखते थे, फिराक साहब की ज़हानत का तजकिरा करते हुए कहते थे, 'फिराक साहब किसी किताब के मूल तक, किताब पर बस एक सरसरी नजर डालने के बाद ही पहुंच जाते थे. अपने काम का जुमला (वाक्य) या खयाल उचका और आगे बढ़ गए. फिराक साहब बोलते तो ठहर-ठहर के थे मगर सोचते बहुत तेज थे.'

तुझे तो हाथ लगाया है बारहा मैंने

तेरे खयाल को छूते हुए मैं डरता हूं

किसी शख्सियत को समझने की कोशिश में, जबकि वो खुद दुनिया में मौजूद न हो, उसकी कुछ अदाएं बहुत काम आती हैं. कुछ इसी तरह, कहते हैं कि फिराक साहब बहुत व्यवहारी नहीं थे. अगर किसी से कोई सवाल कर लिया और अपनी बात का जवाब पाने या उसे समझने में एक दो मिनट से ज्यादा का वक्त लगा तो वह एकदम उखड़ जाते थे- 'साहब! आप आदमी हैं या मिट्टी का ढेर... इतनी देर में तो कौमों की तकदीरें बदल जाती हैं... बड़े से बड़े फैसले हो जाते हैं और आप हैं कि बुत बने बैठे हैं... साहब सोचना भी दिखाई देता है मगर आपके चेहरे पर वो लकीर ही नजर नहीं आ रही है...'

तुम मुखातिब भी हो करीब भी हो

तुमको देखें कि तुमसे बात करें

इलाहाबाद में उनकी प्रोफेसरी के ज़माने में शमीम हनफी साहब, जो विद्यार्थी थे, उनके संपर्क में खूब रहते थे. उन्हीं दिनों की याद में वो लिखते हैं ‘यूनिवर्सिटी से वापस आकर दिन का खाना, फिर बस दो काम. कोई भूला भटका आ गया तो फिर वही बातें, बातें बातें... अगर कोई न आया और कहीं न जाना हुआ तो छड़ी लेकर लॉन में निकल गए और सूखे पत्ते बटोरने लगे. जब ढेर इकठ्ठा हो जाता तो उसे आग लगाते और लीन होकर धीरे-धीरे उठते लहराते शोलों पर नजरें जमाकर बैठ जाते. ऐसा लगता जैसे शमशान घाट का कोई मंजर हो. पता नहीं इसका राज़ क्या था मगर उन्हें ये आदत बहुत पसंद भी थी और उनकी रोजमर्रा की जिंदगी में शामिल भी थी.'

एक मुद्दत से तेरी याद भी आई न हमें

और हम भूल गए हों तुझे ऐसा भी नहीं

फिराक को इश्क और मुहब्बत का शायर कहा जाता है. लेकिन इस शायर की जिंदगी में इसी चीज की कमी बार-बार झलकती है. उनकी खूबी भी यही थी कि उन्होंने इस महरूमी को ही अपनी ताकत बना लिया. उनका एक शेर है-

जरा विसाल के बाद आईना तो देख ए दोस्त

तेरे जमाल की दोशीजगी निखर आई

'तेरे जमाल की दोशीजगी' यानी तेरे हुस्न के कुंवारेपन पर देख कैसा निखार आ गया है. यह किसी कल्पना की बात नहीं है बल्कि देखे हुए को दिखाने की चाहत है जो फिराक साहब की शायरी में अपने भरपूर यौवन के साथ दिखलाई देती है.

कोई समझे तो एक बात कहूं

इश्क तौफीक है गुनाह नहीं

फिराक की शायरी कमियां भी खूब निकाली गईं और उन्हें सराहा भी खूब गया मगर फिराक इन सबसे बेपरवाह अपनी घन-गरज के साथ आगे बढ़ते रहे. उर्दू में बड़े शायरों की एक लंबी फेहरिस्त है लेकिन अदब का अध्ययन करने वाले इतना जरूर कहते हैं कि मीर और गालिब के बाद अगर कोई तीसरा नाम लिया जा सकता है तो उर्दू शायरी में वह नाम फिराक का है. फिराक को खुद भी इस बात का अंदाजा था इसलिए वो कहते थे-

आने वाली नस्लें तुम पर रश्क (गर्व) करेंगी हमअस्रो (समकालीन)

जब उनको ये खयाल आएगा, तुमने फिराक को देखा था.