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विद्रोह के 50 वर्ष: ‘भूख से तनी हुई मुट्ठी का नाम नक्सलबाड़ी है’

इस 25 मई को नक्सलबाड़ी विद्रोह के 50 वर्ष पूरे हो रहे हैं

Piyush Raj

‘नक्सली’ और ‘नक्सलबाड़ी’ का नाम सुनते ही हममें से कई लोगों के जेहन में एके 47 लिए किसी खूंखार आदमी की तस्वीर आती है. सीआरपीएफ के जवानों के साथ आए दिन नक्सलियों के झड़प की खबर कौंध जाती है.

लेकिन आज नक्सलवादियों की जो तस्वीर हमारे सामने है क्या उसका कोई दूसरा पहलू भी है? आखिर इस नक्सलबाड़ी का इतिहास क्या है, जो आज देश के सबसे बड़े आंतरिक खतरे के रूप में देखा जा रहा है? क्या नक्सलबाड़ी आंदोलन से अपने आप को जोड़कर देखने वाले सभी लोग हथियार लेकर ही घूम रहे हैं?


यूं शुरू हुआ 'बसंत का वज्रनाद'?

इस 25 मई को नक्सलबाड़ी विद्रोह के 50 वर्ष हो रहे हैं. आज जिस रूप में नक्सलवाद या माओवाद को देखा जाता है, इसकी शुरुआत बिल्कुल अलग परिस्थितियों में हुई थी. 60 के दशक में पूरा देश भूमि सुधार की असफलता, युद्ध, अकाल, भूखमरी, भ्रष्टाचार और बेरोजगारी जैसी समस्याओं से जूझ रहा था. आजादी के बाद देखे गए सपने टूट रहे थे.

1964 में किसानों और देश की समस्याओं से निपटने के तरीके को लेकर भारत की कम्युनिस्ट पार्टी यानी सीपीआई से टूट कर सीपीएम बन बन चुकी.

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कम्युनिस्ट पार्टी की विभाजन की मूल वजह सत्ताधारी कांग्रेस से संबंध के साथ-साथ किसानों से जुड़ी समस्याओं पर आंदोलन खड़ा करने के स्वरूप को लेकर भी था. लेकिन नई पार्टी सीपीएम के भीतर भी यह विवाद बना रहा.

25 मई, 1967 को पश्चिम बंगाल के दार्जलिंग जिले के नक्सलबाड़ी गांव में किसानों ने सीपीएम के स्थानीय नेताओं के नेतृत्व में जमींदारों और राज्य सरकार के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह शुरू कर दिया.

इस नक्सलबाड़ी नामक जगह के नाम पर ही इस आंदोलन को 'नक्सलबाड़ी का विद्रोह' कहा गया और इसमें भाग लेने वाले लोगों को 'नक्सली'.

उस वक्त सीपीएम पश्चिम बंगाल सरकार में शामिल थी और उसने इस आंदोलन को अपना समर्थन देने से मना कर दिया. इस वजह से सीपीएम के भीतर फूट पड़ गई. चारू मजूमदार, कानू सान्याल, सरोज दत्त और जंगल संथाल जैसे स्थानीय नेताओं ने इस सशस्त्र विद्रोह का समर्थन किया. चीन के अखबार ने इसे ‘बसंत का वज्रनाद’ कहा.

अपने साथियों के साथ बीच में लूंगी पहने हुए चारू मजूमदार (तस्वीर: भाकपा माले की वेबसाइट से साभार)

कुछ यूं शुरू हुई पार्टी?

नक्सलबाड़ी आंदोलन से प्रेरित होकर भारत के कई हिस्सों में इस तरह के आंदोलन शुरू हो गए. सीपीएम के भीतर और बाहर इस तरह के आंदोलन का नेतृत्व कर रहे कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं ने आंदोलन को गति देने के लिए 13 नवंबर, 1968 को कोलकाता में ‘ऑल इंडिया कोआर्डिनेशन कमिटी ऑफ कम्युनिस्ट रिवोल्यूशनरीज’ (एआईसीसीआर) का गठन किया.

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इस संगठन के सिद्धांतों को चारू मजूमदार गढ़ रहे थे और संगठन का संयोजन सुशीतल राय चौधरी कर रहे थे. 22 अप्रैल, 1969 को कोलकाता में एआईसीसीआर की जगह सीपीआई (एमएल) पार्टी का गठन किया गया. इस पार्टी की पहली कांफ्रेंस मई, 1970 में हुआ जिसमें चारू मजूमदार को महासचिव चुना गया.

इसी दौरान सशस्त्र आंदोलन का नेतृत्व करने वाला एक और ग्रुप ‘दक्षिण देश’ ग्रुप था. इस ग्रुप का नेतृत्व कनाई चटर्जी कर रहे थे. इसी ग्रुप ने अक्टूबर 1969 में एमसीसी यानी ‘माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर’ नामक पार्टी बनाई. इस पार्टी का सीपीआई (एमएल) से कोई नाता नहीं था.

युवाओं के बीच आजादी के बाद का सबसे लोकप्रिय आंदोलन 

1970 तक नक्सल आंदोलन अपने चरम पर पहुंच चुका था. कृषि भूमि की हदबंदी, भूमिहीन किसानों की मजदूरी और बंटाईदारों के अधिकार इस आंदोलन के मुख्य उद्देश्य थे. 1970 के बाद भयंकर सरकारी दमन और 1972 में चारू मजूमदार की पुलिस हिरासत में मौत के बाद इस आंदोलन में बिखराव आ गया.

लेकिन इस आंदोलन ने उस वक्त किसानों के साथ-साथ युवाओं को बड़ी तेजी से अपनी और खींचा था. उस वक्त के साहित्यकारों के बीच नक्सल आंदोलन प्रमुख विषय था. कई कविताएं, कहानियां और उपन्यास इस आंदोलन पर लिखे गए.

महाश्वेता देवी का प्रसिद्ध उपन्यास ‘हजार चौरासी की मां’ नक्सलवादी आंदोलन पर ही लिखा गया है. गोविंद निहलानी ने इस उपन्यास पर इसी नाम की फिल्म भी बनाई है.

1974 के बाद नक्सलबाड़ी आंदोलन से जुड़े अलग-अलग दलों ने अपने आपको फिर से पुनर्गठित करने का प्रयास किया.

कौन हैं आज के माओवादी?

आज भी सशस्त्र आंदोलन को बदलाव का एकमात्र जरिया मानने वाली पार्टियों का जैसे पीपुल्स वार ग्रुप, पार्टी यूनिटी और एमसीसी जैसे दलों का अलग-अलग समय में विलय हुआ.

इसके विलय से ही 2004 में सीपीआई (माओवादी) के गठन की घोषणा हुई. आज की माओवादी और नक्सली कार्रवाइयों का इसी पार्टी से संबंध है. आदिवासी इलाकों में इसी पार्टी के प्रभाव क्षेत्र को ‘रेड कॉरिडोर’ के नाम से जाना जाता है.

दूसरी तरफ सीपीआई (एमएल) का एक गुट ऐसा भी था, जिसने भूमिगत या सशस्त्र आंदोलन के साथ-साथ धरना-प्रदर्शन, घेराव, रैली जैसे जनआंदोलनों को भी अपनाया. इस ग्रुप को सीपीआई (एमएल)-लिबरेशन के नाम से जाना जाता है. इस ग्रुप का मुख्य प्रभाव बिहार में है.

इस पार्टी में भूमिहीन मजदूरों के साथ-साथ सामंती और जातीय उत्पीड़न को भी अपने आंदोलन का विषय बनाया. जिसकी वजह से बिहार में लंबे समय तक हिंसक टकराव होते रहे.

नक्सलबाड़ी का एक रूप यह भी है 

इसके महासचिव विनोद मिश्र ने जनता के बीच प्रचार के लिए खुले आंदोलन को प्रेरित किया क्योंकि भूमिगत आंदोलन करते हुए जनता के बीच पार्टी के उद्देश्यों के बारे में बताने में काफी मुश्किल होती थी. लिबरेशन ने अप्रैल, 1982 में आईपीएफ की स्थापना की और आईपीएफ ने चुनावों में भी भागीदारी की.

आईपीएफ को संसद, विधानसभा और पंचायत चुनावों में सीमित सफलता भी मिली. हालांकि इस दौरान लिबरेशन भूमिगत ही रहा. आईपीएफ के सफल प्रयोग के बाद 1992 में भाकपा (माले)-लिबरेशन ने खुले रूप में काम करना शुरू किया और आईपीएफ को भंग कर दिया गया.

लिबरेशन आजकल चुनावों में भागीदारी करती है और फिलहाल बिहार विधानसभा में इसके तीन विधायक और झारखंड विधानसभा में एक विधायक हैं. आइसा नामक छात्र संगठन लिबरेशन से ही संबद्ध है.

लिबरेशन की तरह भाकपा (माले) नामक कई अन्य धड़े भी चुनावों और आंदोलनों में शिरकत करते हैं. इस दलों का वर्तमान नक्सली या माओवादी हिंसा से दूर-दूर का नाता नहीं है.

हिन्दी के प्रसिद्ध कवि धूमिल ने अपनी एक कविता में लिखा है:

‘एक ही संविधान के नीचे

भूख से रिरियाती हुई फैली हथेली का नाम

‘दया’ है

और भूख में

तनी हुई मुट्ठी का नाम

‘नक्सलबाड़ी’ है’

यह जरूरी नहीं की इस तनी हुई मुट्ठी में हमेशा बंदूक ही हो. अपने हक के लिए नारा बुलंद करते वक्त भी हम अपनी मुट्ठियां आज भी भींच लेते हैं. नक्सलबाड़ी आंदोलन का जन्म ‘अराजक हत्याओं’ के लिए नहीं हुआ था बल्कि गरीबों के हक के लिए हुआ था. इस आंदोलन से आज शांतिपूर्ण तरीके से आंदोलन करने वाले दल और लोग भी प्रेरणा लेते हैं.

(यह लेख नक्सलबाड़ी विद्रोह पर लिखे गए विभिन्न शोधग्रंथों और किताबों पर आधारित है)