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फैज़ अहमद फैज़: खून में उंगलियां डुबोकर लिखने वाले शायर

फैज़ की कविताओं में क्रांति की आवाजों के बीच जिस तरह से प्रेम को मिलाया गया है वो अपने आप में शायरी का एक नया स्कूल है

Animesh Mukharjee

तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात, तेरी आंखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है... मुझसे पहले सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग, के मिसरे से शुरू और खत्म होने वाली ये नज़्म बेहतरीन तरीके से फैज़ अहमद फैज़ की शायरी और उनके ज़िंदगी जीने के सलीक़े को बताती है.

फैज़ अहमद खान के नाम से पैदा हुए और फैज़ के नाम से दुनिया भर में मशहूर हुए इस शायर की जिंदगी किसी तिलिस्म से भरे उपन्यास की तरह ही रोमांच और उतार चढ़ाव से भरी रही. मगर फैज जीवन और शायरी दोनों में वस्ल की राहत (मिलन के सुख) के अलावा दुनिया जहान की तकलीफों को दूर करने की राहत तलाशते रहे.


छिपा हुआ इश्क़

फैज़ अपने बारे में बात करना पसंद नहीं करते थे. यहां तक की शायरी में जब अपनी बात कहने का मौका आया है तो उन्होंने हम शब्द का ही इस्तेमाल किया है. मगर वो शायर ही क्या जिसका दिल न टूटा हो. आजादी के पहले के हिंदुस्तान में 17 साल के फैज को इश्क हुआ. शहर था लाहौर. उसके तुरंत बाद वो अमृतसर आ गए. दोनों शहरों के बीच यूं तो कुछ ही देर का फासला है. मगर 18 की उम्र में जब फैज वापस लाहौर पहुंचे तो टूटे दिल के साथ लौटे.

फैज के दोस्तों ने लिखा है कि उन्होंने किसी को ‘उसके’ बारे में नहीं बताया. सिर्फ इतना जिक्र किया कि गरीब लड़की थी और उसकी शादी हो गई. इसके बाद उन्हें ब्रिटेन से आईं एलिस मिलीं. जिनके साथ निकाह रचाकर वो जीवन भर साथ रहे. शादी के बाद एलिस को अक्सर ये पूछा जाता कि क्या वो फैज की शायरी समझती हैं. एलिस कहतीं, शायरी का पता नहीं मगर वो शायर को समझती हैं.

शायर फैज को समझना बड़ा आसान है. फैज बराबरी वाले समाज की कल्पना करने वाले मार्क्सवादी शायर थे. फासीवाद और चरमपंथ के खिलाफ लड़ने का इतना जुनून था कि 1942 में अपनी लेक्चरर की नौकरी छोड़कर जर्मनी से लड़ने के लिए ब्रिटिश सेना में भर्ती हो गए. 1944 में लेफ्टिनेंट कर्नल बने. कलम थामने वाले हाथों को हथियार नहीं भाए तो 1947 में वापस लिखने पढ़ने की दुनिया में आ गए.

अगर फैज की शायरी को समझने की बात करें तो अली सरदार जाफरी लिखते हैं कि फैज के साथ उर्दू शायरी में एक नए स्कूल की शुरुआत होती है. सही बात है, उर्दू में तमाम शायर दिल टूटने के ग़म में तमाम तरह के शेर कहते रहते हैं. फैज की कविता क्रांति की बात करती है. दुष्यंत कुमार अगर विद्रोह के गज़लगो हैं तो फैज़ ऐसे इन्कलाबी शायर हैं जिनकी कविता में सर्वे भवंतु सुखिनः वाला समाज बनने के बाद प्रेम करने की उम्मीद रखी गई है. इसीलिए फैज़ कहते हैं, चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले, गुलों में रंगभरे बाद-ए-नौ-बहार चले. क्रांति की बातों में भी फैज़ सुकून भरे दिनों की तलाश में मास्को में लिखते हैं कि आपकी याद आती रही रात भर, चश्म-ए-नम मुस्कुराती रही रात भर.

रावलपिंडी केस और विद्रोह

फैज़ घोषित वामपंथी थे. रूस में उनकी कविताओं का अनुवाद हुआ. उन्हें नोबेल पुरस्कार के लिए नामित किया गया. मगर राजनीतिक विचारधारा उनकी परेशानियों का सबब बनीं. 1951 में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री लियाकत अली खान के तख्तापलट की साजिश सामने आई. रालवपिंडी के नाम से मशहूर इस केस में फैज का नाम भी आया. उन्हें जेल में डाल दिया गया. फैज खुद इसमें शामिल होने से इन्कार करते रहे मगर उनसे डायरी और कलम छीन ली गई. ऐसे में फैज जेल से रिहा होने वाले कैदियों को विदाई के समय मिलते और उनके जरिए एक-एक शेर जेल से बाहर आता. इसी दौर में फैज़ ने लिखा, मता-ए-लौहो कलम छिन गई तो क्या ग़म है, कि खून-ए-दिल में डुबो ली हैं उंगलियां मैंने.

चार साल बाद 1955 में फैज़ को बाइज्ज़त रिहा कर दिया गया. मगर इस बीच उनके लिए एक नई मुश्किल की शुरुआत हो चुकी थी. पाकिस्तान में वो दौर शुरू हो चुका था जिसमें कहा जाता था कि पाकिस्तान को अल्लाह, आर्मी और अमेरिका चलाते हैं. अमेरिका की सरपरस्ती वाले पाकिस्तान में रूस के लाड़ले फैज़ के लिए मुश्किलें बढ़ती रहीं. फैज़ भी खुलकर फिलिस्तीन के समर्थन में आए और यासिर अराफात के करीबी दोस्त बने.

इन सबके नतीजे में उन्हें पाकिस्तान से लंबे समय तक निर्वासन भी झेलना पड़ा. हालांकि इस दौर में फैज़ ने काफी कुछ लिखा मगर तेवर वैसे ही बरकरार रखे. फैज़ से जुड़ा हुआ एक किस्सा शबाना आज़मी सुनाती हैं. रूस में शबाना फैज़ से मिलने गईं. फैज़ ने अपने ताजा लिखे कुछ शेर शबाना को पढ़ने को दिए. शबाना ने डरते हुए कहा कि वो उर्दू समझ लेती हैं मगर पढ़ नहीं पाती. फैज़ नाराज हो गए. शबाना ने उन्हें इंप्रेस करने के लिए पहले मीर और फिर बहादुर शाह ज़फर का एक शेर सुनाया. फैज़ ने इसपर कहा कि मीर तक तो ठीक है, ज़फर को तो मैं शायर ही नहीं मानता. पता नहीं उनका ये गुस्सा शबाना आज़मी पर था या ज़फर के बादशाह होने पर मगर फैज़ ऐसे ही थे. अपनी शर्तों पर जीने वाले. लोगों ने उन्हें अपने हिसाब से समझा और इस्तेमाल किया. पिछले साल उनकी एक लाइन को फैशन कंपनी ने इस्तेमाल किया. हैदर और बुद्धा इन द ट्रैफिक जाम जैसी फिल्मों ने उनकी शायरी को अपने कथानक में पिरोया. ये कितना सही है और कितना गलत इसका फैसला कभी और करेंगे फिलहाल, ज़ोहरा सहगल की आवाज़ में फैज़ की एक नज़्म सुनते हैं.