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आपातकाल: सुप्रीम कोर्ट में इंदिरा गांधी जीती थीं, राजनारायण हारे थे!

सुप्रीम कोर्ट में इंदिरा की जीत की चर्चा नहीं होती है

Pratima Sharma

आज की जेनरेशन के लिए इमरजेंसी एक दिलचस्प कहानी की तरह है. पाकिस्तान को जीतने वाली नायिका इंदिरा गांधी 5 साल बाद ही खलनायिका के कैरेक्टर में बदल जाती हैं. आज 25 जून है और इमरजेंसी को कई मुहावरों के साथ याद करने का रिवाजी दिन भी.

मैं और मेरी जेनरेशन के लोगों के लिए यह इतिहास है. इसके बारे में हम जो कुछ भी जानते हैं उसमें बहुत सी सुनी-सुनाई बातें हैं. और हर साल छपने वाले लेखों, बिपिन चंद्र, प्रशांत भूषण, कुलदीप नैय्यर की किताबों से उस आपातकाल के दौर को महसूस करते हैं. मैं सिर्फ उन बातों का जिक्र कर रही हूं जिनकी चर्चा सामान्य तौर पर नहीं होती और जो छिपी हुईं सी हैं.


चुनाव में भ्रष्टाचार का मामला साबित नहीं हुआ था

सबसे ज्यादा हमें यह बात चौंकाती है कि चुनाव में भ्रष्टाचार मामले में इंदिरा गांधी कोर्ट में केस जीत गईं थीं, हारी नहीं थीं. इस बात की चर्चा तो खूब होती है कि इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इंदिरा गांधी को चुनाव में भ्रष्टाचार का दोषी माना था. पर चार महीने बाद ही सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के फैसले को पलटते हुए इंदिरा गांधी को बरी कर दिया था, इसकी चर्चा कम ही होती है.

12 जून 1975 को इलाहाबाद हाई कोर्ट के जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा का फैसला आता है कि इंदिरा गांधी ने 1971 में रायबरेली का चुनाव भ्रष्ट तरीके से जीता था. और उनका चुनाव ही रद्द हो जाता है. इसी मामले में 7 नवंबर 1975 को सुप्रीम कोर्ट इंदिरा गांधी को बरी कर देती है. सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला पांच जजों की बेंच का था, जिसमें चीफ जस्टिस ए एन राय, जस्टिस एचआर खन्ना, जस्टिस केके मैथ्यू, जस्टिस एमएच बेग और जस्टिस वाई वी चंद्रचूड़ शामिल थे.

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गौर करने वाली बात है कि इन पांचों जजों ने एकराय से इंदिरा गांधी पर हाई कोर्ट के फैसले को बदला था. शक किया जा सकता है कि जगमोहन लाल सिन्हा के फैसले को पलटने वाले पांचों जज कहीं इंदिरा गांधी के प्रभाव में तो नहीं थे. पर ऐसा दिखता नहीं है. जस्टिस खन्ना, वह जज थे जिन्होंने इमरजेंसी के दौरान चर्चित मौलिक अधिकार से जुड़े एक केस में इंदिरा सरकार के खिलाफ राय रखी थी. जबकि उस बेंच के चार जजों ने सरकार के पक्ष में फैसला सुनाया था. यह जरूर है कि जस्टिस राय और जस्टिस बेग को अपने सीनियर जजों की अनदेखी करते हुए चीफ जस्टिस बनाया गया था. मगर यह भी देखिए की जनता पार्टी की सरकार इन्हीं जजों में से जस्टिस चंद्रचूड़ को चीफ जस्टिस बनाती है. वही जस्टिस चंद्रचूड़ जिनके समय में सुप्रीम कोर्ट ने संजय गांधी को जेल भेज दिया था. जस्टिस चंद्रचूड़ को न्यायपालिका की स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ने और इसके लिए इंदिरा सरकार से टकराव मोल लेने के लिए जाना जाता है.

हाई कोर्ट से अलग क्यों रहा सुप्रीम कोर्ट का फैसला

दरअसल हाई कोर्ट के फैसले और सुप्रीम कोर्ट के फैसले में जो फर्क आता है वो केस के तकनीकी पक्षों के कारण होता है. जिस गजटेड ऑफिसर यशपाल कपूर पर इल्जाम था कि सरकारी कर्मचारी रहते हुए इंदिरा गांधी का चुनाव देख रहे थे, उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया था. तकनीकी पेंच ये था कि उन्होंने इस्तीफा कब दिया था, उसे स्वीकार कब किया गया था, सरकारी गजट में इसे कब छापा गया था वगैरह वगैरह. हाई कोर्ट में यह मानकर केस लड़ा गया था कि 1970 के नवंबर-दिसंबर में जब कभी इंदिरा गांधी ने कहा था कि वह अपना चुनाव क्षेत्र नहीं बदलेंगी, तभी से उन्हें रायबरेली से उम्मीदवार मान लिया गया था. जबकि उस समय तो औपचारिक तौर पर चुनाव आयोग ने आम चुनाव का ऐलान भी नहीं किया था. तब यशपाल कपूर इंदिरा गांधी के ओएसडी (अफसर ऑन स्पेशल ड्यूटी) के तौर पर सरकारी कर्मचारी थे. हालांकि बाद में यह व्यवस्था बनी कि नॉमिनेशन की तारीख से उम्मीदवारी मानी जाएगी. जिन तकनीकी पहलुओं पर हाई कोर्ट ने इंदिरा गांधी को चुनाव में कदाचार का दोषी माना था उन्हीं आधारों पर सुप्रीम कोर्ट में वह बरी हो गईं थीं. वोटरों को पैसे देकर प्रभावित करने के भ्रष्टाचार के राज नारायण के आरोपों को तो हाई कोर्ट ने भी साफ-साफ खारिज कर दिया था.

हाई कोर्ट के फैसले से नहीं लगी थी इमरजेंसी!

कहा जाता है कि जस्टिस सिन्हा का फैसला आने के बाद इंदिरा गांधी का प्रधानमंत्री बने रहना संभव नहीं था और इसलिए उन्होंने इमरजेंसी लगा दी थी. पर इमरजेंसी से पहले ही 24 जून को सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के फैसले पर स्टे दे दिया था. इंदिरा गांधी की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस वी आर कृष्ण अय्यर ने व्यवस्था दी थी कि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट का आखिरी और पूर्ण फैसला जब तक नहीं आ जाता इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनी रह सकती हैं. संसद की कार्यवाहियों में भाग भी ले सकती हैं, सिर्फ सदन में किसी मुद्दे पर वोट नहीं कर सकतीं. यानी जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा द्वारा इंदिरा गांधी को दिए गए 20 दिनों के अल्टीमेटम के पूरे होने से पहले इमरजेंसी लगाने की मजबूरी संवैधानिक तौर पर तो नहीं दिखती. इमरजेंसी के पीछे के राजनीतिक कारण कहीं ज्यादा साफ दिखते हैं. 13 जून 1975 को गुजरात चुनाव का नतीजा आता है जिसमे कांग्रेस हार जाती है. और जिस मुखयमंत्री चिमनभाई पटेल को भ्रष्टाचार के आरोप में कांग्रेस ने एक साल पहले हटा दिया था, उसी के सपोर्ट से जनता मोर्चा 18 जून 1975 को वहां सरकार बना लेती है. पूरे देश में भ्रष्ट कांग्रेस सरकारों के खिलाफ आंदोलन तेज हो चला था. 25 जून 1975 को दिल्ली के रामलीला मैदान में जेपी सम्पूर्ण क्रांति का ऐलान करते हैं और वहीं गिरफ्तार कर लिए जाते हैं. सिंहासन खाली करो कि जनता आती है, दिनकर का यह पद आंदोलन का नारा बन गया था.

एक साथ दो इमरजेंसी!

1975 की इमरजेंसी पहले से चली आ रही इमरजेंसी पर ही थोपी गई थी. दरअसल देश में इमरजेंसी 1971 में पाकिस्तान युद्ध के समय से ही चली आ रही थी. पर उस समय की इमरजेंसी का कारण बाह्य आक्रमण था. जबकि 1975 में आंतरिक अशांति बताकर इमरजेंसी थोपी गई थी. यानी 1975-77 में देश दो-दो इमरजेंसी झेल रहा था. चीन से युद्ध के समय भी इमरजेंसी लगाई गई थी. नेहरू द्वारा 26 अक्टूबर 1962 को लगाई गई इमरजेंसी 10 जनवरी 1968 को इंदिरा गांधी ने ही वापस लिया था. इसके 3 साल बाद ही पाकिस्तान से युद्ध होने पर 3 दिसंबर 1971 को फिर से इमरजेंसी लगानी पड़ी थी.

चीन और पाकिस्तान से युद्ध के समय की इमरजेंसी से 1975 की इमरजेंसी बिलकुल अलग थी. क्यूंकि बाह्य आक्रमण के समय लगाई गई इमरजेंसी में देश के नागरिकों के मौलिक अधिकार खत्म नहीं होते. उस समय तो अपने नागरिकों के लिए देश लड़ रहा होता है. पर 1975 में इमरजेंसी लगाने के ऑर्डर के बाद लगातार दो दिन दो नए ऑर्डर इंदिरा गांधी सरकार ने जारी कर दिए. तब सही मायनों में लोगों को समझ आया कि ये आफत क्या है!

सबसे भयानक था अनुच्छेद 21, 22 को खत्म कर देना. इससे लोगों की आजादी खत्म कर दी गई थी और किसी को भी कभी भी हिरासत में लिया जा सकता था. 27 जून को प्रेस सेंसरशिप लागू कर दी गई थी. 28 जून को इंडियन एक्सप्रेस, स्टेट्समैन और नई दुनिया जैसे अखबारों ने सम्पादकीय की जगह ब्लैंक स्पेस छोड़ दिया था. बाद में सरकार ने ब्लैंक स्पेस पर भी पाबंदी लगा दी थी. सबसे दिलचस्प तरीका टाइम्स ऑफ इंडिया ने निकाला था. क्लासिफाइड विज्ञापन वाले स्टाइल में स्मृति शेष वाले पेज पर उसने जो छापा वह सिर्फ विरोध नहीं एक आइडिया भी था. देखें क्या विज्ञापन छपा था.

death of D. E. M. O’Cracy, mourned by

his wife T. Ruth, his son L. I. Bertie, and his

daughters Faith, Hope and Justice.

ये 3 गजट हैं जिसके द्वारा आपातकाल की घोषणा की गई, प्रेस पर सेंसरशिप लगा दी गई और मौलिक अधिकार तक छीन लिए गए थे