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ईद-ए-मिलाद 2017: हज़रत मुहम्मद को सलाम करते थे शायर जगन्नाथ आज़ाद

आज हज़रत मोहम्मद का जन्मदिन है. अखबार लिख रहे हैं कि मुसलमानों का त्योहार है, जगह-जगह देखा ये मुसलमानों का त्यौहार है. क्या सच में ये मुसलामानों का त्योहार है?

Saqib Salim

आज हम जिस देश में जी रहे हैं, वहां ये सोचना भी पाप लगता है कि कोई मुसलमान किसी हिंदू देवी या देवता की भक्ति में दो शब्द भी कह सकता है या फिर कोई हिंदू हज़रत मुहम्मद से अपना लगाव जगजाहिर कर सकता है. अगर ऐसा होता है तो या तो ये ‘खबर’ कहलाती है क्योंकि 120 करोड़ की आबादी वाले इस देश में ये इक्का-दुक्का ही होता है या फिर ऐसा करने वालों के खिलाफ फतवे आ जाते हैं या कोई सेना खड़ी हो जाती है.

जो लोग धर्म के नाम पर नफरतें फैलाने का ये कारोबार करते हैं उनकी हर दलील 1947 पर जाकर खत्म हो जाती है. उनका मानना है कि देश का बंटवारा इस बात का सबूत है कि हिंदू-मुस्लिम एकता असलियत में मुमकिन नहीं है. ऐसा कहने वाले या तो इस भारत की मिट्टी और उस पर बसने वालों का इतिहास जानते ही नहीं हैं या फिर वो मानना नहीं चाहते. आखिर मान भी कैसे लें, धर्म के नाम पर नफरतें फैलाकर ही तो इनके घर के चूल्हे जलते हैं.


आज हज़रत मोहम्मद का जन्मदिन है. अखबार लिख रहे हैं कि मुसलमानों का त्योहार है, जगह-जगह देखा ये मुसलमानों का त्यौहार है. क्या सच में ये मुसलामानों का त्योहार है? क्या सच में आप का एक इंसान से इसलिए कोई नाता नहीं क्योंकि वो आप की तरह परमात्मा को नहीं मानता? मैं पहले भी दशहरा, जन्माष्टमी, दिवाली और मुहर्रम के अवसर पर ये लिखता रहा हूं कि आज से 50-60 बरस पहले तक, हिंदू और मुसलमान त्योहार को किसी धर्म से न जोड़कर समाज से जोड़ते थे.

मुसलमान शायर इक़बाल भगवान राम को ईमाम-ए-हिंद कहकर कविता लिख सकते थे और हफ़ीज़ जालंधरी श्री कृष्ण की भक्ति में नज़्म लिख रहे थे. दूसरी ओर सरोजिनी नायडु मुहर्रम पर ईमाम हुसैन की याद में एक मार्मिक कविता लिखती थीं.

जगन्नाथ आज़ाद.

जगन्नाथ आज़ाद उर्दू साहित्य का एक माना हुआ नाम हैं जिनका निधन 2004 में हुआ था. यहां मैं हज़रत मुहम्मद पर उनके द्वारा लिखी कविता का खास कारण से जिक्र करना चाहूंगा. एक तो ये कि वो साहित्य का बहुत बड़ा नाम थे, दूसरा कि वो हिंदू थे, तीसरा कि वे बंटवारे के समय अपना घर-नौकरी सब कुछ छोड़कर आए थे, जिसका दर्द उनकी कविताओं और लेख में हमेशा दिखता रहा. ऐसे में उनके मन भी हज़रत मुहम्मद का सम्मान आज के समाज को समझाने के लिये है कि नफरतें हमेशा से नहीं थी बल्कि राजनीतिज्ञों ने पैदा की हैं.

जगन्नाथ आज़ाद की इस कविता का शीर्षक ‘सलाम’ है. यहां वे लिखते हैं;

सलाम उस ज़ात-ए-अक़दस पर सलाम उस फ़क्र-ए-दौरां पर

हज़ारों जिसके एहसानात हैं दुनिया-ए-इम्काँ पर,

(नमन उस पवित्र आत्मा को नमन उस युगपुरुष को

आने वाला समय जिसका सदा कृतज्ञ रहेगा)

सलाम उस पर जो हामी बन के आया ग़म नसीबों का

रहा जो बेकसों का सहारा मुशफ़िक ग़रीबों का

(नमन उसको जो दबे कुचलों का साथ देने आया,

उसने बेसहारों को सहारा दिया और दरिद्रों से मित्रता की)

सलाम उस पर जो आया रहमत-उल-आलमीन बन कर

(नमन उसको जो विश्व के लिये दया की प्रतिमूर्ति बन कर आया)

क्या आप आज के समय में ऐसा सोचते हैं कि हम ये शब्द एक हिंदू धर्म के अनुयायी से लिखा देखेंगे? आज तो हमने अपने महापुरुषों को मंदिर और मस्जिद में बांट लिया है. हज़रत मुहम्मद बस मुसलमानों को सीख देते हैं और राम केवल हिंदुओं को, नानक सिखों को सही बात बतलाते हैं, तो ईसा मसीह इसाईयों को. परन्तु जगन्नाथ के लिए ऐसा नहीं था. महात्मा को महात्मा कहने में धर्म आड़े नहीं आता.

वे हज़रत मुहम्मद को एक समाज सुधारक के रूप में देखते हैं. उनके अनुसार;

सलाम उस पर के जिसने बे-ज़बानों को ज़बां बख्शी

सलाम उस पर के जिसने नातवानों को तवां बख्शी

(नमन उसको जिसने असहाय की बात की

नमन उसको जिसने कमज़ोर को ताक़त दी)

जगन्नाथ के अनुसार हज़रत मुहमद ने न सिर्फ़ दीन-दुखी की मदद की बल्कि लोगों को ज्ञान अर्जन की ओर भी प्रोत्साहित किया.

सलाम उस पर जलायी शम-ए-इरफ़ान उस ने सीनों में

(नमन उसको जिसने दिलों में बौद्धिक प्रकाश उज्जवल किया)

सलाम उस पर बनाया जिसने दीवानों को फ़रज़ाना

(नमन उसको जिसने कमअक़लों को बुद्धि दे दी)

जगन्नाथ उन्हें सामाजिक न्याय और समाजवाद के जनक के रूप में भी देखते हैं;

बड़े छोटे में जिसने अखुव्वत के एक बिना डाली

(जिसने अमीर ग़रीब में भाईचारे की नींव डाली)

ज़माने से तमीज़-ए-बंदा-ओ-आक़ा मिटा डाली

(जिसने समाज से मालिक और नौकर का भेद खत्म कर दिया)

इस कविता की ये पंक्तियां ये समझने के लिए काफी हैं कि जगन्नाथ किस हद तक हज़रत मुहम्मद के व्यक्तित्व से प्रभावित थे. उनके लिए वो मुस्लिम पैगंबर होने से पहले एक समाज सुधारक और महात्मा थे जिन्होंने समाज में फैली बुराइयों को मिटाने की कोशिश की थी. जरूरी नहीं कि उनके बताए तरीके से जगन्नाथ अपने भगवान को मानते पर इस से इनकार कैसा कि वो एक महान आत्मा थे.

इसीलिए जगन्नाथ आज़ाद ये कहते हुए कविता का अंत करते हैं;

सलाम आज़ाद का आज़ाद की रंगीं बयानी का

(नमन आज़ाद का आज़ाद की काव्य-कला का)...

(लेखक एक स्वतन्त्र टिप्पणीकार हैं और इतिहास का अध्यन करते हैं)