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दूरदर्शन के 58 साल: क्या फिर कोई शो आएगा, जिसे देखने के लिए सड़कों पर सन्नाटा होगा

आज दूरदर्शन की 58वीं वर्षगांठ पर कुछ लिखने के लिए उठी कलम जो शब्द उगल रही है, वो पुण्यतिथि का आभास देते हैं. लेकिन यकीन जानिए ये वो कलम है जिसे दूरदर्शन का जीते जी यूं मर जाना गवारा नहीं है

Nazim Naqvi

सादा जीवन उच्च विचार वाले देश का क्या हाल हो गया है, इसे देखना है तो दूरदर्शन से मिलिए. देश की मिलेनियल संतानों (जो इंटरनेट-युग में पैदा हुई हैं) को समझाने के लिए, मनोरंजन को अगर एक परिवार की संज्ञा दी जाए तो, दूरदर्शन इस परिवार के दादा जी का नाम है. इसी क्रम में और पीछे जाएंगे तो नौटंकी पर-दादा कहलाएगी.

90 के दशक में बाजारवाद आया तो मनोरंजन की दुकानें (प्राइवेट टी.वी चैनलों के सन्दर्भ में) भी आ गईं, जैसे कभी मेलों-ठेलों के जमाने में, ग्रामीण-भारत को चकाचौंध करने के लिए चलते-फिरते सिनेमा-घर आ जाते थे. दुकानें आईं तो 'मुझे देखिए-मुझे देखिए' की होड़ शुरू हो गई. आपकी जेब से कुछ नहीं जा रहा था, आपको बस देखना भर था, तो आपको भी देखने में कोई हर्ज नहीं हुआ.


नतीजा ये हुआ कि ये दुकानें उद्द्योग में बदल गयीं, जिसे 'इंटरटेनमेंट-इंडस्ट्री' कहा जाता है, और इसका सालाना टर्न-ओवर (फिक्की रिपोर्ट-2016) करीब 62 हजार करोड़ का हो चुका है. ये आंकड़ा ये बताने के लिए काफी है कि अब आप इसके आदी हो चुके है. इनके कैमरों के सामने अगर किसी को थप्पड़ पड़ जाए तो फिर सारा दिन वो थप्पड़ खाता रहता है, अगर थप्पड़ खाने वाला कोई शख्सियत है तो हो सकता है की हफ्ते भर थप्पड़ खाता रहे.

यही हाल धारावाहिक दिखाने वालों का है, जहां परिवार के किरदार सोते समय भी पूरे श्रृंगार में रहते हैं. ट्रेंड के नाम पर आप ये सजा इस लिए भुगत रहे हैं कि आप उपभोक्ता हैं.

इस माहौल में 58 बरस के हो चुके दूरदर्शन (15 सितंबर 1959) की सालगिरह मनाना या उसे याद करना इस सवाल के आगे मौन हो जाता कि क्यों याद करें उसे? उस दूरदर्शन को जिसे 'सड़क-छाप' की तर्ज पर 'दूरदर्शन-छाप' कहा जाता है. ऋषि कपूर ने अपने एक इंटरव्यू में मनोरंजन की अहमियत बताते हुए कहा, 'अगर आपकी फिल्म में मनोरंजन नहीं है तो बेहतर होगा कि आप अपनी फिल्म दूरदर्शन के लिए बनाएं'. ऐसे में भला कोई दूरदर्शन को क्यों याद करे?

ये बात जरूर है कि दूरदर्शन आज जिस हाल में पहुंचा है उसमें खुद उसका भी बहुत बड़ा हाथ है. जिस जमाने में उसका सितारा बुलंदी पर था तो वो सिर्फ इसलिए कि मुकाबले में कोई और नहीं था दर्शक उसकी हर चीज माफ कर देता था. इसके अलावा सरकारी बाबुओं ने 'राष्ट्रीय-प्रसारण' की सीमाओं का पालन इतनी सख्ती से किया जैसे धार्मिक रीति-रिवाजों में किसी बदलाव के खिलाफ मौलवी और पंडे करते हैं, और वैसे ही फीका नजर आने लगा जैसे मजहबी रीति-रिवाज, जिन्हें मजबूरी या भय में अदा किया जाता है.

आज का दूरदर्शन कौन देखता है, किसी को नहीं पता, लेकिन सरकारी बजट से दूरदर्शन के पालन-पोषण का खर्चा नियम से निकलता रहता है. खुद दूरदर्शन के लोग मानते हैं कि मंडी-हाउस में तो सिर्फ फाइलों पर हस्ताक्षर होते हैं, असली पिक्चर तो बंगाली मार्किट के जलपान-स्थलों पर रस-मलाई खाते-खाते बनती है.

लेकिन इन सारी सच्चाइयों के बावजूद यही दूरदर्शन है जिसने किसी समय में हमारे समाज को शिक्षित किया. मालगुडी डेज, विक्रम और बेताल, भारत एक खोज, सुरभि, अलिफ-लैला, चंद्रकांता, शक्तिमान, हमलोग, तमस, मिर्जा गालिब, देख भाई देख जैसे धारावाहिक फिर कभी नहीं बन सके जो दूरदर्शन की देन थे.

इन सबसे ऊपर, रामायण और महाभारत जैसे धारावाहिक जिनके प्रसारण पर शहरों की सड़कों पर सन्नाटा फैल जाता था. जिनके दर्शकों का ये हाल था कि टीवी सेट के बगल में अगरबत्ती सुलगा दी जाती थी कि प्रभु दर्शन पर माहौल में भी सुगंध घुली रहे. कुल मिलाकर जो शोहरत दूरदर्शन के इन कार्यक्रमों को मिली, उनका मुकाबला बेहतर तकनीक के साथ बनने वाले प्रोग्राम कर भी नहीं सकते.

ऊपर जिन धारावहिकों का झरोखा पेश करने की कोशिश की गई है वह तो महज हिंदी या हिंदुस्तानी जुबान के प्रसारण की बानगी थी. दूरदर्शन को तो पूरे भारत के जनमानस के लिए मनोरंजन मुहैय्या कराना था. और 1984 के बाद से उसने धीरे-धीरे ये काम अंजाम दिया. आज भी उन भाषाओं में, जो बाजारवाद का मुकाबला नहीं कर सकतीं, दूरदर्शन ही अकेला माध्यम है. भारत को एक सुर में जोड़ने वाले 'मिले सुर मेरा तुम्हारा' या 'मेरा भारत महान' कैंपेन का वह शेर 'उसके फरोग-ए-हुस्न से झमके है सबमें नूर, शम्मे-हरम हो या हो दिया सोमनाथ का' हिंदुस्तान की सांझी विरासत की परवरिश, इसी दूरदर्शन के जरिए कर रहा था.

आज दूरदर्शन अपने 64 राष्ट्रीय नेटवर्क केंद्रों, और 24 क्षेत्रीय भाषाओं के केंद्रों की बदौलत भारत के गांव-गांव तक फैला हुआ है. लेकिन इसकी सबसे बड़ी मुश्किल अपने साख बचने की है. जिसके बारे में चिंता इसलिए नहीं होती क्योंकि ये लाल-फीता शाही और अनाथालय की तरह चलने वाली व्यवस्था का आदी हो चुका है और वर्षों से हो रही तमाम आलोचनाओं के बावजूद, अपनी मद-मस्त चाल में चल रहा है. इन्तहा तो ये है कि समय-समय पर इसमें परिवर्तन लाने के लिए जो अधिकारी या मीडिया प्रोफेशनल इस बीड़े को उठाने की कोशिश भी करते हैं, थोड़े समय के बाद या तो वह खुद इसी रंग में ढल जाते हैं, या इसे छोड़कर भाग खड़े होते हैं.

धारावाहिक मिर्जा गालिब में नसीरुद्दीन शाह ने बेहतरीन अदाकारी की थी

आज दूरदर्शन की 58वीं वर्षगांठ पर कुछ लिखने के लिए उठी कलम जो शब्द उगल रही है, वो पुण्यतिथि का आभास देते हैं. लेकिन यकीन जानिए ये वो कलम है जिसे दूरदर्शन का जीते जी यूं मर जाना गवारा नहीं है. और उसे अब भी उम्मीद है कि एक दिन दूरदर्शन के वो दिन फिर लौटेंगे जब उसके कार्यक्रमों को देखने के लिए सड़कों पर सन्नाटा पसर जाता था. ये उन लोगों का दर्द है जिन्होंने वह वाक्य इसी दूरदर्शन की वजह से सुना था कि जब इंदिरा गाँधी ने स्पेस में गए राकेश शर्मा से लाइव-टेलीकास्ट में पूछा था 'आपको वहां से अपना भारत कैसा दिख रहा है' और उनका जवाब था, 'सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा'.