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जल्द आने वाली है दिलीप कुमार की आत्मकथा, पढ़िए उसके कुछ दिलचस्प किस्से

वाणी प्रकाशन जल्द ही दिलीप कुमार की आत्मकथा 'वजूद और परछाईं' प्रकाशित करने वाला है

FP Staff

दिलीप कुमार हिंदी सिनेमा की सबसे सम्मानित शख्सियतों में से एक हैं. वो उन गिने-चुने लोगों में से हैं जिनकी शोहरत और इज्जत हिंदुस्तान और पाकिस्तान दोनों मुल्कों में बराबर फैली है. वाणी प्रकाशन से जल्द ही उनकी आत्मकथा 'वजूद और परछाईं' प्रकाशित होने वाली है. पढ़ें दिलीप साहब की आत्मकथा के कुछ हिस्से. 

मैं खूब पढ़ाकू बच्चों में नहीं था लेकिन मेरे अंदर रुचि थी और मुझे चीजों को देखने-परखने में दिलचस्पी थी. अंतर्मुखी होने के कारण मुझे अकेला रहना पसंद था, अपनी चीजों के साथ. मैंने अपने रिश्ते के भाइयों तथा बाकी बच्चों को अकेला छोड़ दिया, नहीं चाहता था कि उनके साथ बेकार की बहसबाजी में पडूं.


मुझे याद है कि मैं दादा से यह पूछा करता था कि घर के सामने जो नदी थी वह हमेशा बहती क्यों रहती थी और इसमें पानी कहां से आता था और कहां जाता था. वे हंसते थे और मुझे अपने चौड़े कंधे पर उठाकर नदी तक ले जाते थे और वहां खड़े होकर पानी को घूरते रहते थे. मैं जवाब का इंतजार करता था जो कभी नहीं आया. मुझे समझ में आ गया कि उनके पास मेरे लिए कोई जवाब नहीं था.

मैंने एक बार सुना कि वे आगाजी से कह रहे थे कि मैं उनसे ऐसे-ऐसे सवाल पूछता था जिनके जवाब दे पाना उनके लिए मुश्किल था और यह कि काश उनके पास कोई जवाब होता. उन्होंने आगाजी से खुशी-खुशी यह भी बताया कि मैं घर के बाकी बच्चों की तरह नहीं था जिनको किसी बात पर हैरत नहीं होती थी और न ही वे मुश्किल सवाल पूछते थे.

गर्मियों के दिनों में मुझे दोपहर में खुली जगहों में घूमना बहुत पसंद था, जब दादी लजीज खाना खाकर अपने कमरे में आराम करती थी. उन दिनों बिजली का पंखा नहीं होता था. उन दिनों हाथ से चलाये जाने वाले पंखे आते थे जिनके ऊपर कपड़े लिपटे होते थे, घर के नौकरों को पता था कि छत पर लगे पंखे को कैसे हिलाते हैं. वे जब रस्सी खींचते थे तो पंखा हिलकर हवा काटने लगता था. यह मेहनत का काम था लेकिन जिन लोगों को यह काम दिया जाता था वे इसको करने में पूरी तरह माहिर होते थे.

दोपहर में हम सभी बच्चों को सुला दिया जाता था क्योंकि खाली सड़कों पर घूमने की सलाह नहीं दी जाती थी. मैं सोने का बहाना करता था, और कभी-कभी जब मैं देखता कि पंखा वाला और बाकी सभी गहरी नींद में हैं तो मैं चोरी छिपे सड़क पर निकल आता था.

सड़कें संकरी होती थीं, और कुछ घुमावदार भी. मैं उनके बीच से जगह बनाकर खुली जगहों की तरफ़ जाता था जहां बेरी के पेड़ थे जिनको कोई नहीं खाता था. हमसे यही कहा जाता था कि बेरी अच्छा नहीं होता है इसलिए उनको चिड़ियों एवं कीड़ों के लिए छोड़ दिया जाना चाहिए. लेकिन जिज्ञासु होने के कारण मैं एक पेड़ के ऊपर चढ़ गया और बेरी तोड़ने लगा. मैंने बेरियों को कुर्ते की जेब में रखना शुरू किया ही था कि मैंने कुछ लोगों की आवाज़ सुनी जिनमें से एक-दूसरे का पीछा कर रहे थे. जो पीछा कर रहा था उसको तो मैं पहचान गया जबकि मैं पेड़ की डाल पर सांस थामे बैठा रहा.

मैंने जिस आदमी को पहचाना उसका नाम गनी था जो मेरे परिवार के बाग की देखभाल करता था. वह लम्बा-तगड़ा इंसान था. जिस तरह से वे बहस कर रहे थे ऐसा लग रहा था जैसे गनी ने उस आदमी को उनमें से किसी गोदाम में ताक-झांक करते देख लिया था जहां ड्राई फ्रूट को रखा जाता था. मैं इस बात से डरा हुआ था कि अगर गनी ने ऊपर पेड़ की तरफ देखा और मुझे वहां देख लिया तो वह आगाजी को शिकायत कर देगा कि मैं क्या शरारत कर रहा था.

सौभाग्य से, दोनों में सुलह हो गयी और उस आदमी ने गनी से माफी मांगी. मैंने राहत की सांस ली और भागकर घर आ गया, इस बात से ख़ुश कि मेरी किस्मत अच्छी रही जो मैं बच गया.

मेरे सारे भाई गनी से बहुत डरते थे. ज़्यादातर वक्त जब मैं उससे बाग में मिलता तो वह मेरे साथ बहुत दोस्ताना व्यवहार किया करता था, उसे एक कंधे पर मुझे बिठाकर दूसरे कंधे पर ताजा तोड़े गये बादाम और अंगूर की बड़ी सी टोकरी को लटकाकर चलना पसंद था. दादी अंगूरों को किस्सा ख्वानी बाजार के चौक पर भिजवा देती थीं कि वह उन गरीबों को दे दिये जाएं जो खाना मांगते रहते हैं. ग़रीबों को भोजन के रूप में अंगूर देने का बड़ा मज़ेदार तरीका था.

वह आदमी जो रोटी और नान बनाता था वह बड़े नान के बीच में चाकू से चीरा लगाकर थैला बना देता था और उसमें मुट्ठी भर अंगूर डालकर उसको फिर बंद कर देता था. इस तरह का हर नान भूखे गरीब लोगों के लिए बहुत सेहतमंद होता था....

( वजूद और परछाईं नाम की दिलीप कुमार की आत्मकथा को आप जल्द पढ़ पाएंगे. वाणी प्रकाशन ने इस आत्मकथा के कुछ हिस्से फ़र्स्टपोस्ट से साझा किए हैं )