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डेमोक्रेसी इन इंडिया पार्ट 14: मराठी साहित्य मुखर है लेकिन मुस्लिम लेखक रूढ़िवादिता पर प्रहार नहीं कर रहे

उत्तर भारतीय राज्यों के बरक्स, मैंने देखा कि मराठी में मुस्लिम बुद्धिजीवियों का भी एक बेहद जीवंत तबका है

Tufail Ahmad

(संपादक की ओर से- भारत गणराज्य अपने 70 बरस पूरे करने जा रहा है. ऐसे वक्त में पूर्व बीबीसी पत्रकार तुफ़ैल अहमद ने शुरू किया है, भारत भ्रमण. इसमें वो ये पड़ताल करने की कोशिश कर रहे हैं कि देश में लोकतंत्र जमीनी स्तर पर कैसे काम कर रहा है. तुफैल अहमद को इसकी प्रेरणा फ्रेंच लेखक एलेक्सिस डे टॉकविल से मिली. जिन्होंने पूरे अमेरिका में घूमने के बाद 'डेमोक्रेसी इन अमेरिका' लिखी थी. तुफ़ैल अहमद इस वक्त वॉशिंगटन स्थित मिडिल ईस्ट मीडिया रिसर्च इंस्टीट्यूट में सीनियर फेलो हैं. वो भारत भ्रमण के अपने तजुर्बे पर आधारित इस सीरिज में भारत की सामाजिक हकीकत की पड़ताल करेंगे. वो ये जानने की कोशिश करेंगे भारत का समाज लोकतंत्र के वादे से किस तरह मुखातिब हो रहा है और इसका आम भारतीय नागरिक पर क्या असर पड़ रहा है. तुफ़ैल की सीरीज़, 'डेमोक्रेसी इन इंडिया' की ये चौदहवीं किस्त है. इस सीरीज के बाकी लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)

महाराष्ट्र, भारत के उन-गिने चुने राज्यों में से एक है जो बौद्धिक रूप से बेहद जिंदादिल है और जिसकी शानदार साहित्यिक परंपरा है. इसीलिए, मैंने मराठी साहित्य पर लोकतंत्र के प्रभाव और इसके राजनीतिक असर की पड़ताल करने की कोशिश की. इस संदर्भ में लोकतंत्र, तार्किक और लोकतांत्रिक विचारों का आंदोलन है. ये आम जनता और कमजोर तबके के लोगों को सशक्त करता है. उन्हें नागरिक होने के अधिकार देता है.


डॉक्टर प्रमोद मुंघाटे, आरटीएम यूनिवर्सिटी में मराठी साहित्य के प्रोफेसर हैं. उन्होंने बारहवीं सदी में मराठी विचारधारा में तरक्कीपसंद खयालात के उद्भव से लेकर 1940 के दशक तक उसके विकास तक का अध्ययन किया है. डॉक्टर मुंघाटे ने संत तुकाराम और महात्मा ज्योतिबा फुले के विचारों और लेखों का अध्ययन किया है. उन्होंने मुझसे कहा, 'भारत में धर्म से परे सोचने और लिखने वाले ज्योतिबा फुले पहले सुधारक थे. फुले ने ही भारत में पहली बार ये सोचा कि ब्राह्मणवाद का मकसद गरीबों का शोषण करना है'. उन्होंने अपनी बात के पक्ष में फुले कि किताबों जैसे गुलामगीरी का जिक्र किया, जिसमें बराबरी और लोकतांत्रिक अधिकारों का जिक्र है.

नागपुर में, मशहूर मराठी साहित्यकार लोकनाथ यशवंत ने मुझे बताया कि मराठी लेखक परंपरागत रूप से चांद और फूलों के बारे में लिखते थे. यशवंत ने कहा, 'मराठी साहित्य में ठोस तत्व की कमी है. भारत अगले दो हजार सालों तक साहित्य का नोबेल पुरस्कार नहीं जीत सकता. अगर हम कभी साहित्य का नोबेल जीत सके, तो वो दलित साहित्य की वजह से होगा'. हालांकि यशवंत ने ये भी कहा कि मराठी लेखकों की नई पीढ़ी जैसे नामदेव धसाल और गंगाधर पंतावने के रूप में ऐसे लेखक उभरे हैं, जिन्होंने अमेरिका में अश्वेतों के आंदोलन से प्रेरणा ली है. जो बाबासाहब डॉक्टर बी.आर. आम्बेडकर के आंदोलन और अफ्रीकी देशों में उपनिवेश विरोधी आंदोलनों से प्रभावित हैं.

आजादी के बाद 1970 के दशक तक लेखकों की पहली पीढ़ी ने समाज की कतार में खड़े आखिरी आदमी यानी शोषित तबके के बारे में लिखा. इसमें कोई दो राय नहीं कि आम्बेडकर ने मराठी लेखकों की कलम को नई धार दी. लेकिन हमें ये भी याद रखना होगा कि खुद आम्बेडकर की विचारधारा अमेरिकी लोकतंत्र और वहां के बौद्धिक आंदोलन के माहौल में तैयार हुई थी. अमेरिका में लोकतंत्र नीचे से पला-बढ़ा, जबकि भारत में लोकतंत्र को ऊपर से जनता पर थोपा गया. अब ये धीरे-धीरे आम भारतीय जनमानस में अपनी पैठ बना रहा है.

मुझसे बातचीत में लोकनाथ यशवंत ने आधुनिक मराठी साहित्य के लोकतांत्रिक मूल्यों पर व्याख्या नहीं दी. लेकिन, ये साफ है कि समाज के शोषित वर्ग के अधिकारों जैसे लोकतांत्रिक मूल्यों की बातें, मराठी साहित्य में संविधान लागू होने के साथ ही जगह बनाने लगी थीं. संविधान एक किताब भर नहीं है. ये विचारों का एक आंदोलन है. जब से ये लिखा जा रहा था और लागू किया जा रहा था, तभी से मराठी साहित्य भी लोकतांत्रिक मूल्यों को लेकर जागरूक हो रहा था. आजादी के बाद के मराठी लेखकों की 1990 के दशक के पहले की दूसरी पीढ़ी या 1990 के दशक के बाद की तीसरी पीढ़ी पर लोकतांत्रिक मूल्यों का असर साफ दिखता है.

लोकनाथ यशवंत कहते हैं, 'मराठी साहित्यकारों की तीनों पीढ़ियों ने दलितों के मुद्दे उठाए.' वो कहते हैं कि दूसरी पीढ़ी के साहित्यकारों ने ज्यादा बेहतर और तार्किक ढंग से शोषित वर्ग की बात रखी. तो, जहां मराठी लेखकों की पहली पीढ़ी के साहित्य पर धार्मिकता का असर ज्यादा था. वहीं, दूसरी पीढ़ी के साहित्यकारों की कलम से धर्म का रंग उतरने लगा था. दूसरी पीढ़ी के साहित्यकारों ने दलितों के मुद्दे उठाए. वो बौद्ध धर्म से काफी प्रभावित थे.

इन चर्चाओं के दौरान मैंने सोचा कि चांद और फूलों वाले मराठी साहित्य को लोकतंत्र ने खत्म कर दिया.

लोकनाथ यशवंत ने कहा कि आजादी के बाद के दौर में जब दलित स्कूल जाने लगे, मानवाधिकारों के बारे में जागरूक होने लगे, तो दलित लेखकों का नया वर्ग उभरने लगा. वो कहते हैं कि पहले तो सवर्ण, दलितों को घी तक नहीं खाने देते थे. लेकिन, अब दलित मुद्दों पर दलितों का लिखा हुआ साहित्य, गैर दलितों के लिखे साहित्य से एकदम अलग नजर आने लगा. इस तरह परंपरागत मराठी साहित्य की मौत हो गई.

डॉक्टर मुंघाटे कहते हैं कि 1940 के दशक तक मराठी साहित्य की कमान आम तौर पर समाज के ऊंचे दर्जे के पास थी. ये लोग अंग्रेजों के लिए काम किया करते थे. लेकिन भारत में लोकतंत्र लागू होने के साथ ही शिक्षा सबके लिए मुहैया हो गई. डॉक्टर मुंघाटे कहते हैं कि आजादी के बाद अनुसूचित जातियों-जनजातियों के लिए सरकार की कल्याणकारी योजनाएं भी मराठी लेखकों के साहित्य का एक विषय बन गईं. मराठी में दलित साहित्य ने पंडिती साहित्य से अलग पहचान बनानी शुरू कर दी.

डॉक्टर मुंघाटे कहते हैं, 'दलित लेखकों के उभरने के पीछे बड़ी वजह संविधान, बाबा साहेब आम्बेडकर के विचार और कांग्रेस की सरकारों का हर तबके के प्रति उदारवादी रवैया रहा'. उन्होंने कहा कि ऐसे लेखकों ने आत्मकथाएं लिखीं, कविताएं लिखीं. ये मराठी साहित्य में एक नया दौर था. क्योंकि इससे पहले आत्मकथाएं केवल बड़े और शोहरतमंद लोग लिखा करते थे. अब वो लोग भी आत्मकथाएं अच्छी साहित्य रचना वाली आत्मकथाएं लिख रहे थे जो मशहूर नहीं थे. इनका दूसरी भाषाओं में अनुवाद भी हो रहा था. जैसे कि नारायण सुर्वे, दया पवार, लक्ष्मण माने और नामदेव धसाल. ये सभी समाज के निचले तबके से आते थे.

वैसे, संविधान लागू होने के बाद के कुछ दशकों तक क्षेत्रीय साहित्य में हम लोकतांत्रिक विचारों के प्रति जागरूकता कम ही देखते हैं. मराठी के सिवा, दूसरी क्षेत्रीय भाषाओं के साहित्य में ये बदलाव अपवाद के तौर पर ही दिखते हैं. इसका नतीजा ये हुआ कि दबे-कुचले वर्ग के बीच में मराठी साहित्य की वजह से आई जागरूकता धीरे-धीरे दूसरी भाषाओं के साहित्य में भी प्रवाहित हुई.

यशवंत मनोहर की फेसबुक वॉल से साभार

यशवंत मनोहर, नागपुर के जाने-माने मराठी लेखक हैं. उन्होंने दलित साहित्य के बजाय इसे आम्बेडकर साहित्य का नाम दिया है. 1960-70 के दशक में मराठी में धार्मिक और जातीय शब्दों के इस्तेमाल के खिलाफ बगावत हो गई. मनोहर कहते हैं, 'ये सच है कि ये विरोध दूसरी भाषाओं में नहीं देखने को मिला. लेकिन दूसरी भाषाओं के लेखक, मराठी में हो रही इस बगावत के गवाह थे. वो देख रहे थे कि आम्बेडकर साहित्य या मराठी साहित्य की दुनिया में क्या हो रहा है. इस वजह से दूसरी क्षेत्रीय भाषाओं के लेखकों ने भी बाबासाहेब आम्बेडकर के विचारों से प्रेरणा लेनी शुरू कर दी'. मनोहर कहते हैं कि मराठी में इस विरोध के अगुवा आम्बेडकरवादी ही थे.

बाद के दशकों में, खास तौर से 1990 के बाद, आर्थिक सुधारों की वजह से मराठी साहित्य मे नई रौशनी आई. जैसे कि महिलाओं की आजादी, उदारीकरण के आर्थिक प्रभाव, भूमंडलीकरण के दुष्प्रभाव, वगैरह. सुजीत जाधव, नागपुर की आरटीएम यूनिवर्सिटी में रिसर्च स्कॉलर हैं. वो मराठी साहित्य में 1990 के बाद आए यथार्थवाद पर रिसर्च कर रहे हैं. जाधव कहते हैं, 'मराठी साहित्य अब केवल मनोरंजन का जरिया नहीं है. पहले मराठी लेखक महिलाओं और LGBT तबके के लोगों के मसले नहीं उठाते थे. लेकिन अब इन मुद्दों पर मराठी में लिखा जा रहा है'.

मैंने जाधव से पूछा कि आखिर ये कैसे मुमकिन हुआ? जाधव ने कहा, 'आज समाज में ज्यादा खुलापन है, आजादी है. पहले कोई भी इंसान परंपरा के खिलाफ नहीं बोल सकता था. पहले मराठी साहित्य में महिलाओं को मर्दों की जागीर के तौर पर पेश किया जाता था. लेकिन आज महिलाओं की अपनी आजाद शख्सियत मानी जाती है. मराठी साहित्य ने दिखाया है कि आज कैसे हर इंसान की अपनी आजाद शख्सियत है'. अपनी बात के समर्थन में सुजीत जाधव विरांगी मी!विमुक्त मी! नाम के उपन्यास की मिसाल देते हैं. ये उपन्यास अंजलि जोशी ने लिखा है जो LGBT समुदाय के अधिकारों की बात करता है. 1990 के दशक के बाद मराठी साहित्य में बार-बार ग्रामीण जीवन पर ग्लोबलाइजेशन के असर की बात करता है.

उत्तर भारतीय राज्यों के बरक्स, मैंने देखा कि मराठी में मुस्लिम बुद्धिजीवियों का भी एक बेहद जीवंत तबका है. नागपुर में यशवंत मनोहर ने मुझे एक किस्सा सुनाया. वो एक मुशायरे में गए थे. जहां उन्होंने पाकिस्तान में तालिबान के जुल्म की शिकार हुई बच्ची मलाला यूसुफजई पर अपनी नज्म सुनाई. मनोहर बताते हैं, 'एक उर्दू लेखक ने मुझसे पूछा कि आखिर हम क्यों नहीं मलाला यूसुफजई के बारे में नज्म लिख सके, मगर आप जैसे आम्बेडकरवादी ने मलाला पर कविता लिखने की सोची'.

किसी उर्दू लेखक का ये कहना बहुत अहम है. ये दिखाता है कि मुस्लिम लेखक अपने समाज में धार्मिक कट्टरपंथ के खिलाफ आवाज उठाने, उन्हें चुनौती देने में कमोबेश नाकाम रहे हैं.

नागपुर के डॉक्टर अकरम पठान ने मराठी में चार मुस्लिम साहित्यिक रचनाएं लिखी हैं. उनकी किताबें कई यूनिवर्सिटी के पाठ्यक्रम का हिस्सा हैं. पठान बताते हैं कि बीजापुर के सुल्तान आदिलशाह भारतीय इतिहास के पहले शासक हैं जिन्होंने मराठी को राजकीय भाषा घोषित किया था. वो बताते हैं कि 12वीं सदी के बाद से करीब 42 मुस्लिम संतों ने मराठी में साहित्यिक रचनाएं कीं. आजादी के बाद के दौर में मार्क्सवादी और आम्बेडकरवादी आंदोलनों से हामिद दलवाई जैसे मराठी लेखक पैदा हुए, जिन्होंने ट्रिपल तलाक जैसी सामाजिक बुराइयों के खिलाफ आंदोलन छेड़ा. डॉक्टर अकरम पठान, शहीद अमर शेख का जिक्र करते हैं, जो, मुंबई के महाराष्ट्र में ही रखने के लिए हुए आंदोलन संयुक्त महाराष्ट्र चारवाड के हीरो थे.

पठान कहते हैं कि 1970-80 के दशक में आम्बेडकरवादी आंदोलन से प्रभावित होकर मुस्लिम लेखकों ने सवाल पूछने शुरू किए कि दलितों की तरह हम क्यों नहीं अपने मसले उठा सकते? नतीजा ये हुआ कि 1990 में शोलापुर में पहला अखिल भारतीय मुस्लिम मराठी साहित्य सम्मेलन आयोजित किया गया. पठान कहते हैं कि इस वक्त एक हजार से ज्यादा मुस्लिम लेखक मराठी में रचनाएं लिख रहे हैं.

इनमें से कई ऐसे हैं जिनके रिसर्च पेपर अभी छपे नहीं हैं. अकरम पठान कहते हैं, 'ये लेखक मुस्लिम समुदाय के मुद्दे जैसे अशिक्षा, बेरोजगारी, बहुविवाह और बच्चों के अधिकार की बातें करते हैं. इनका साहित्य हमें तरक्कीपसंद समाज की तरफ ले चल रहा है. ये धार्मिक साहित्य नहीं है'.

अकरम पठान ने बताया कि अमर हबीब की किताबों में सियासी मसले जैसे मुस्लिम वोट बैंक की बातें हैं. वहीं, जावेद पाशा की किताबों में संवैधानिक अधिकारों को उठाया गया है. मुस्लिम लेखिकाएं जैसे जुल्फी शेख, फरजाना डांगे, हसीना मुल्ला, फातिमा मुजावर और नसीमा देशमुख भी मराठी में लिख रही हैं. इन सब के साहित्य की थीम स्त्रीवाद है.

शोलापुर में मैंने मुस्लिम बुद्धिजीवी इतिहास लिखने वाले सरफराज अहमद से बाद की. मैंने उनसे पूछा कि आखिर मराठी में लिखने वाले कितने मुस्लिम होंगे? उन्होंने कहा कि 1000 की तादाद कहना सही होगा. सरफराज का कहना था कि इस वक्त 200 मुस्लिम लेखक सक्रिय रूप से लिख रहे हैं. लेकिन वो ज्यादातर नज्में लिखते हैं. इस पूरी चर्चा में मैंने महसूस किया कि मुस्लिम लेखक धार्मिक कट्टरपंथ को चुनौती देने में नाकाम रहे हैं. मतलब साफ है कि अभी मुस्लिम समाज में लोकतांत्रिक जागरूकता गहराई तक पैठ बनाने में नाकाम रही है.

औरंगाबाद का मुस्लिम मराठी संस्कृति साहित्य मंडल मराठी में लिखने वाले करीब एक हजार मुस्लिम लेखकों, कवियों, नाटककारों और पत्रकारों का संगठन है. मैंने मंडल के अध्यक्ष डॉक्टर इकबाल मिन्ने से मुस्लिम समाज में लोकतांत्रिक जागरूकता की कमी की वजह जाननी चाही. डॉक्टर इकबाल ने कहा, 'मुस्लिमों का विरोध सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ है. मुस्लिम लेखक केवल मुसलमानों के मुद्दे नहीं उठा रहे हैं बल्कि वो आम्बेडकर, शिवाजी, जल संरक्षण और राजनीति के मसलों पर भी लिख रहे हैं'.

लेकिन, जब मैंने उनसे धार्मिक कट्टरपंथ को चुनौती देने में मुस्लिम साहित्यकारों की नाकामी की वजह पूछी, तो डॉक्टर इकबाल मिन्ने ने कहा, 'उलेमा से मुस्लिम साहित्यकारों का कोई टकराव नहीं है'. डॉक्टर इकबाल का ये बयान उस सवाल का जवाब है, जो उस उर्दू लेखक ने मुशायरे में यशवंत मनोहर से पूछा था.