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दिल्ली वालों को ग़ालिब का नाम लेने पर शर्मिंदा होना चाहिए

जिस शहर में ग़ालिब का नाम लिखे झोले रखना फैशन हो वहां मिर्ज़ा साहब का स्मारक बेहद खराब हालत में है

Animesh Mukharjee

होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा में मेरे आगे, मिर्ज़ा ग़ालिब ने ये शेर किसी भी वजह से कहा होता. आज की तारीख में कहते तो अपने नाम से चल रहे तमाम उर्दू ‘लिट फेस्ट’ और अपने घर की हालत देख कर कहते. दिल्ली शहर में साहित्य, कल्चर, उर्दू ज़बां और गंगा जमुनी तहजीब के तमाम कार्यक्रम होते हैं. उसी शहर के बीच में बनी ग़ालिब की हवेली पर जाना किसी भी साहित्यप्रेमी के लिए शर्मिंदा होने का कारण होना चाहिए.

चावड़ी बाज़ार मेट्रो स्टेशन से कुछ दूर बल्लीमारान की गली कासिमजान में ग़ालिब की हवेली है. हवेली क्या कहें कुल जमा डेढ़ कमरे बचे हैं. जिन्हें हवेली कह कर रस्म अदायगी की जा रही है.


धरोहर में हीटर की फैक्ट्री

ग़ालिब आगरा से आने के बाद कई साल इसी हवेली में रहे. 1857 के गदर के बाद उजड़ी दिल्ली और मिर्ज़ा साहब की किसी औलाद के न बचने के चलते ये हवेली दुनिया की नजरों से ओझल हो गई. समय के साथ इसमें मंडी लगने लगी. हीटर की फैक्ट्री खुल गई और पीसीओ बन गया. 1999 में दिल्ली सरकार ने हवेली को अपने संरक्षण में लिया. शीला दीक्षित सरकार ने इसे सुरक्षित करने के प्रयास किए. हवेली के दो कमरों और बीच के आंगन को ही संरक्षण में लिया जा सका. इसके अलावा बाकी का हिस्सा निजी संपत्ति की तरह माना जाता है.

हद दर्जे की लापरवाही

मिर्ज़ा ग़ालिब के समय क्या पीसीओ था जो उनके स्मारक के दरवाजे पर पीसीओ का स्केच लगा है

ग़ालिब की हवेली को ऐतिहासिक धरोहर में गिना जाता है. हिंदुस्तान में ही संभव है कि किसी धरोहर में लोगों के घर का रास्ता हो और उसमें पीसीओ भी खुला हो. हवेली को ग़ालिब से जोड़ने का काम किस तरह से किया गया है वो हवेली में लगे तमाम बोर्ड से समझ आता है. दरवाजों और पर्दों के जरिए हवेली को पुराना लुक देने की कोशिश की गई है. हवेली के दरवाजे पर एक बोर्ड लगा है, जिसमें गालिब की हवेली का स्केच बना हुआ है. किसी अनाड़ी के कंप्यूटर सॉफ्टवेयर से बनाए स्केच में ग़ालिब के ज़माने का पीसीओ भी बना हुआ है. अंदर जो बोर्ड लगे हुए हैं उनमें लिखे कई शेर गलत हैं, कुछ में वर्तनी की गलतियां हैं. बरसात के समय बीच के आंगन में पानी भर जाता है.

गुलज़ार का हिस्सा

अशार गलत लिखे हैं, उन्हें सुधारने की किसी को सुध नहीं

गुलज़ार अपने एक गीत में लिखते हैं बल्लीमारां से दरीबे तलक, तेरी मेरी कहानी दिल्ली में. मिर्ज़ा ग़ालिब पर सीरियल बनाने के दौरान उन्होंने ग़ालिब पर खासी रिसर्च भी की. हवेली के एक कोने में गुलज़ार का ये ग़ालिब प्रेम दिखता है. उनका भेंट किया हुआ एक सीने तक का स्टैच्यू उस कमरे में है. इसके साथ ही कमरे की सजावट बाकी हवेली से अलग नज़र आती है.

ग़ालिब किसी इमारत या चारदीवारी के मोहताज नहीं. उनकी लोकप्रियता या शायरी में उनका योगदान सबको पता है मगर उनकी हवेली का हाल बताता है कि हम अपनी विरासतों को कैसे देखते हैं. ग़ालिब ही क्यों गोस्वामी तुलसीदास का घर भी काशी में है. राम के नाम पर किए जा रहे तमाम दावों और वादों के बीच कितनी बार आपने उसके बारे सुना है? जहां तक मिर्ज़ा ग़ालिब की बात है, उनसे इस मुद्दे पर पूछा जाता तो शायद कहते, कोई बतलाओ कि हम बतलाएं क्या. जाते जाते गुलज़ार का लिखा ग़ालिब की हवेली का पता पढ़ते जाइए.

बल्लीमारान के मोहल्ले की वो पेचीदा दलीलों की सी गलियां

सामने टाल के नुक्कड़ पर बटेरों के कसीदे

गुड़गुड़ाती हुई पान की पीकों में वो दाद , वो वाह वाह

चंद दरवाज़ों पर लटके हुए बोशीदा से कुछ टाट के परदे 

एक बकरी के मिमयाने की आवाज़

और धुंधलाई हुई शाम के बेनूर अंधेरे ऐसे दीवारों से मुंह जोड़ के चलते हैं यहां 

चूड़ीवालां के कटड़े की बड़ी बी जैसे अपनी बुझती हुई आंखों से दरवाज़े टटोले 

इसी बेनूर अंधेरी सी गली कासिम से एक तरतीब चरागों की शुरू होती है

एक कुराने सुखन का सफा खुलता है 

असदल्ला खां ग़ालिब का पता मिलता है.