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पुण्यतिथि विशेष: आए हैं 'मीर' काफिर होकर खुदा के घर में

मीर के बाद उर्दू साहित्य में अच्छे और बड़े शायरों की एक लम्बी फेहरिस्त है लेकिन इसके बावजूद मीर की चमक फीकी नहीं पड़ती

Nazim Naqvi

ढाई सौ साल पहले का कोई शायर आज भी अगर उसी तरह से जिंदा हो जैसे 'कल ही की तो बात है' जब लखनऊ में मीर ने अपनी आंखें बंद कीं, तो बरबस दिल चाहता है कि पता किया जाय कि आखिर क्या खास बात थी उसमें कि उसे भुला पाना शताब्दियों के बस की भी बात नहीं.

मीर जैसों का ज़िक्र करने में एक और बड़ी परेशानी जो सामने आ खड़ी होती है कि पिछले ढाई सौ बरसों में, जो हर युग का साथी रहा हो, जिसके बारे में इतना कुछ कहा गया हो, जाहिर है कि उसके बारे में कोई नई बात क्या की जाय. मीर खुदा-ए-सुखन (यानी जो कहन के खुदा हैं) हैं, ये बात भी नई नहीं है, मीर का लोहा ग़ालिब तक मानते हैं, ये भी सब जानते हैं-


रेख्ता (उर्दू) के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो ग़ालिब

सुनते हैं अगले ज़माने में कोई मीर भी था.

दरअसल मीर को इश्क का शायर कहा जाता है. कहते हैं कि मीर के वालिद ने अपने अंतिम समय में (जब मीर सिर्फ 11 बरस के थे) मीर से कहा था, 'बेटा इश्क इख्तियार कर कि दुनिया के इस कारखाने में उसी का कमाल है'. माना जा सकता है कि मीर पर अपने बाप की कही बात का ऐसा असर हुआ कि मीर अपनी आखिरी सांसों तक इश्क की इबादत करते रहे.

मीर ये इश्क भारी पत्थर है

कब ये तुझ नातवां (दुर्बल) से उठता है

इश्क ही इश्क है, नहीं है कुछ

इश्क बिन तुम कहो, कहीं है कुछ

मीर इस शेर में ये कहने की कोशिश करते हैं कि कामयाबी की पहली शर्त, इश्क है. इश्क के बगैर न दीन को कामयाब किया जा सकता है न दुनिया को. ऐसे ही इश्क के बारे मं वह एक जगह फिर कहते हैं-

इश्क है ताज़ाकार ताज़ा ख़याल

हर जगह इसकी एक नई है चाल

अपनी एक मसनवी (वो विधा जिसमें पूरी दास्तान काव्यात्मक लय के साथ कही जाती है) में मीर मुहब्बत का गुणगान कुछ इस तरह करते हैं-

मुहब्बत ने ज़ुल्मत से काढ़ा है नूर

न होती मुहब्बत, न होता जुहूर (प्रकटीकरण)

मुहब्बत ही इस कारखाने में है

मुहब्बत से सब कुछ ज़माने में है

जो खास बात मीर को पिछले ढाई सौ साल से जिंदा रखे हुए है वो ये कि मीर जिस जुबान में बात कह रहे थे, वो जुबान आज तक जिंदा है. इसमें उसकी सादगी का करिश्मा है. मीर बोल-चाल की जुबान में शायरी करते हैं. यानि बात सरलता से की जाय और सहजता से सुनी जाय. ये उस जमाने का चलन था, जब आम तौर पर पढ़ने-लिखने से ज्यादा जोर कहने और सुनने पर था, जिसे हम वाचिकी परंपरा भी कहते हैं. ढेरों शेर इस बात को साबित करने के लिए सुनाए जा सकते हैं. उदाहरण के लिए-

बेखुदी ले गई कहां हमको

देर से इंतज़ार है अपना

कुछ करो फ़िक्र मुझ दीवाने की

धूम है फिर बहार आने की

दिखाई दिए यूं कि बेखुद किया

मुझे आपसे ही जुदा कर चले

इश्क मीर की शायरी की आत्मा है, इसी से उनकी शख्सियत की तामीर हुई है. इसी एक विषय पर उनकी साधना ने उन्हें अजीम शायर बना दिया. दरअसल शायर दो तरह के ग़मों के बीच पिसता है. ग़में दौरां (ज़माने का ग़म) और ग़में जानां (महबूब का ग़म). मीर के यहां भी यही ग़म हैं, लेकिन वह इनका मुकाबला इश्क में डूब कर करते हैं.

मीर की शायरी में जो रूपक इस्तेमाल हुए हैं उनमें इतनी कशिश है कि पढ़ने या सुनने वाला हैरान रह जाता है. उनका एक मशहूर शेर –

नाजुकी उसके लब की क्या कहिए

पंखुड़ी एक गुलाब की सी है

इसमें अगर महबूब के होंठों को सीधे-सीधे गुलाब की पंखुड़ी कह दिया जाए तो शायद शेर में कोई बड़ी बात न होती लेकिन पंखुड़ी एक गुलाब 'की सी है' कहकर मीर इस शेर को, बड़ा शेर बना देते हैं. मीर खालिस हिंदुस्तान के शायर हैं. मिसाल के तौर पर उनका एक शेर-

मर्ग (मौत) एक मांदगी का वक्फा (क्षण) है

यानी आगे चलेंगे दम लेकर

मीर इस शेर के बहाने आवा-गमन के सिद्धांत का बखान करते हुए महसूस होते हैं. मीर का ये शेर यह भी साबित करता है कि जिस तरह की धार्मिक-कट्टरता आज दिखाई देती है, वह मीर के युग में नहीं थी. आज के जमाने में मीर ये शेर कहकर, सुरक्षित रह पाते, शायद नहीं. इससे भी और ज्यादा स्पष्टता से वह अपनी आस्था का बयान करते हैं जिसे आज के जमाने में कहना शायद मुमकिन नहीं-

मीर के दीन-ओ-मज़हब को क्या पूछे हो उनने तो

कश्का खेंचा, दैर में बैठे, कब का तर्क इस्लाम किया

उर्दू शायरी, हिंदुस्तानी तहजीब और दिल से दिल की इबादत, यही वो नायाब तोहफे हैं जिनके माध्यम से मीर पिछले ढाई सौ बरसों से अदब और साहित्य की सेवा कर रहे हैं. हर नौजवान शायर, मीर की पाठशाला में जाए बगैर, उसे समझे बगैर, शायरी तो कर सकता है, लेकिन शायरी में चमत्कार नहीं कर सकता. मीर को कथन का खुदा ऐसे ही नहीं कहा गया है. मीर के बाद उर्दू साहित्य में अच्छे और बड़े शायरों की एक लम्बी फेहरिस्त है लेकिन इसके बावजूद मीर की चमक फीकी नहीं पड़ती. इसीलिए उन्होंने बार-बार कहा-

मत सहल हमें जानों, फिरता है फलक बरसों

तब ख़ाक के परदे से इंसान निकलते हैं

बातें हमारी याद रहे फिर ऐसी न बातें सुनिएगा

पढ़ते किसू को सुनियेगा तो देर तलक सर धुनिएगा

या फिर-

मक्का गया, मदीना गया, कर्बला गया

जैसा गया था वैसा ही चल फिर के आ गया