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कैफी आज़मी: 11 साल की छोटी उम्र में लिख डाली थी पहली गज़ल

अदब की दुनिया के सिरमौर कैफी आजमी की पुण्यतिथि पर विशेष

Shivendra Kumar Singh

ये कैफी की जन्मशताब्दी का साल है और आज उनकी पुण्यतिथि. कैफी पर लिखने की शुरुआत कहां से की जाए, इस सवाल का जवाब खोजना बड़ा मुश्किल है. चलिए उसी किस्से से शुरुआत करते हैं जो बड़ा मशहूर है. कैफी 11 बरस के थे. उन्होंने एक गजल लिखी और एक महफिल में सुना आए. एक जमींदार के बेटे से, वो भी जिसकी उम्र जुमा-जुमा 11 बरस थी उससे ऐसी शायरी की उम्मीद किसी को नहीं थी.

कहते हैं कि कानाफूसी शुरू हो गई कि कैफी ने ये गजल किसी और से लिखवाई है. बाद में घरवालों की गवाही पर लोगों को मालूम हुआ कि वो गजल वाकई कैफी की ही लिखी हुई थी. ये कैफी साहब की कलम का हुनर ही था कि बाद में इस गजल को बेगम अख्तर ने आवाज दी. हालांकि सच ये है कि इस किस्से से कैफी साहब के परिचय का एक फीसदी हिस्सा भी पूरा नहीं होता.


उनके असल परिचय के लिए सौ बरस पहले जाना होगा. ये समझना होगा कि जमींदार पिता के साथ ऐशो आराम की जिंदगी को छोड़ने का मतलब क्या होता है. सिर्फ चालीस रुपए जेब में हों तो भी जिंदादिली करोड़ों की कैसे रखी जा सकती है. पहले आप उस गजल को पढ़िए और फिर आपको कैफी की जिंदगी के कुछ अनसुने किस्से सुनाएंगे.

इतना तो ज़िन्दगी में किसी की ख़लल पड़े

हँसने से हो सुकून ना रोने से कल पड़े

जिस तरह हंस रहा हूं मैं पी-पी के अश्क-ए-ग़म

यूं दूसरा हंसे तो कलेजा निकल पड़े

एक तुम के तुम को फ़िक्र-ए-नशेब-ओ-फ़राज़ है

एक हम के चल पड़े तो बहरहाल चल पड़े

मुद्दत के बाद उस ने जो की लुत्फ़ की निगाह

जी ख़ुश तो हो गया मगर आंसू निकल पड़े

साक़ी सभी को है ग़म-ए-तश्नालबी मगर

मय है उसी के नाम पे जिस के उबल पड़े

14 जनवरी 1918 को कैफी आजमी का जन्म उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ के पास एक छोटे से गांव मिजवां में हुआ. असली नाम था अतहर हुसैन रिजवी. मिजवां के बारे में शबाना आजमी खुद कहती हैं, 'एक बार मैं आजमगढ़ के उस गांव में गई जहां अब्बा का जन्म हुआ था. 1980 के आस पास की बात है. मैं मिजवां गई थी. आजमगढ़ के उस गांव में पहुंचकर मैं हैरान हो गई. उस गांव में बिजली पानी जैसी बुनियादी सहूलियतें तक नहीं थी. वहां जाकर मैंने सोचा कि अब्बा ने वहां से निकलकर पूरी दुनिया में अपनी पहचान बनाई थी'.

खैर, कैफी जब 19 बरस के थे तब उन्होंने कम्यूनिस्ट पार्टी ज्वाइन कर ली. कैफी उनके पेपर के लिए लिखने लगे. चालीस रुपए जेब में होने के बाद भी कैफी कभी परेशान नहीं होते थे. तमाम शायर उनके दोस्त थे. फिराक गोरखपुरी, जोश मलीहाबादी, फैज अहमद फैज, साहिर लुधियानवी, मजरूह साहब के अलावा मदन मोहन, बेगम अख्तर, एसडी बर्मन जैसे बड़े नामों से कैफी का याराना था.

फाकामस्ती में भी मौजमस्ती थी. कैफी साहब अपनी पूरी कमाई कम्यूनिस्ट पार्टी को दे देते थे. वो अपने लिए वो सिर्फ 40 रुपए रखते थे. शबाना और बाबा की पैदाइश के बाद घर चलाने के लिए शौकत आजमी ने ऑल इंडिया रेडियो में काम किया. फिर उन्होंने पृथ्वी थिएटर ज्वाइन किया. एक बार तो शौकत आजमी को कहीं ‘टूअर’ पर जाना था. मुफलिसी का आलम ये था कि उनकी चप्पल टूट गई थी. उस रोज उन्होंने नाराज होकर कैफी से कहा कि वो पैसों की किल्लत की बात सुन-सुनकर तंग आ गई हैं. कैफी ने परेशान होने या उन्हें कोई जवाब देने की बजाए, उनकी चप्पल ली. उसे अपनी आस्तीन में छुपाकर ले गए और थोड़ी देर में जब वापस लौटे तो उनके हाथ में मरम्मत की हुई चप्पल के साथ-साथ पचास रुपए भी थे. बेगम खुश हो गई और टूअर पर चली गईं. जब उन्होंने अपना कार्यक्रम खत्म करने के बाद आयोजकों से पैसा मांगा तो आयोजकों ने कहा कि वो पैसा तो कैफी साहब उनसे पहले ही लेकर जा चुके हैं. दरअसल, ये कैफी साहब की बदमाशी थी. जो पैसे उन्होंने अपनी बेगम को दिए थे दरअसल वो उन्हीं के कार्यक्रम का पेमेंट था.

ये वो दौर था जब मुंबई के फिल्मकारों को अच्छे शायरों की तलाश रहती थी जो उनके लिए लिखें. ऐसी ही तलाश में उनके पास चेतन आनंद पहुंचे. उन दिनों चेतन आनंद की कुछ फिल्में कुछ खास नहीं चल रही थीं. वो चाहते थे कि कैफी साहब उनकी फिल्म के लिखें. कैफी साहब ने कहा कि क्यों मेरे से लिखवा रहे हैं? हम दोनों के सितारे गर्दिश में हैं. चेतन आनंद ने कहा- कैफी साहब, क्या मालूम इसके बाद ही हम दोनों के सितारे बदल जाएं. ऐसे ‘हकीकत’ फिल्म बनी.

फिल्मी गाने लिखने के लिए कैफी साहब के लिखने का अंदाज भी खास था. वो आखिरी समय तक गाने को टालते रहते थे. यहां तक कि जिस दिन उनके गाने की ‘डेडलाइन’ होती थी उस दिन उन्हें गाना लिखने के अलावा बाकी सारे काम याद आते थे. लिखने की टेबल की सफाई से लेकर दोस्तों के खतों का जवाब देने तक. लेकिन सच ये है कि इस दौरान उनके अंदर गाना ही चल रहा होता था.

आप कैफी की रेंज सोचिए. वो प्रेम भरे गीत लिखते थे. क्रांतिकारी गीत लिखते थे. सरहद पर तैनात जवानों का जोश भरने वाले गाने लिखते थे. उनकी कलम से निकले गीतों को याद कीजिए- होके मजबूर तुझे उसने बुलाया होगा से लेकर देखी जमाने की यारी बिछड़े सभी बारी-बारी. इसके अलावा वक्त ने किया क्या हसीं सितम, या दिल की सुनो दुनिया वालों, जरा सी आहट होती है तो ये दिल सोचता है, ये नयन डरे डरे, मिलो ना तुम तो हम घबराए, ये दुनिया ये महफिल मेरे काम की नहीं. ये तय कर पाना मुश्किल हो जाता है कि कोई एक शायर कैसे इतने अलग अलग फलक की रचनाएं गढ़ सकता है. खालिस शायरी पर भी उनकी तमाम किताबें हैं. ‘औरत’ ‘मकान’ जैसी कविताएं हैं जो उनकी इस बात को दर्शाती हैं कि कविता समाज को बदलने का माध्यम होनी चाहिए. ये कैफी का ही जादू है-

मैं ढूंढता हूं जिसे वो जहां नहीं मिलता

नई ज़मीं नया आसमां नहीं मिलता

नई ज़मीं नया आसमां भी मिल जाये

नये बशर का कहीं कुछ निशां नहीं मिलता

वो तेग़ मिल गई जिस से हुआ है क़त्ल मेरा

किसी के हाथ का उस पर निशाँ नहीं मिलता

वो मेरा गांव है वो मेरे गांव के चूल्हे

कि जिन में शोले तो शोले का धुआं नहीं मिलता

जो इक ख़ुदा नहीं मिलता तो इतना मातम क्यूं

यहां तो कोई मेरा हमज़बां नहीं मिलता

खड़ा हूं कब से मैं चेहरों के एक जंगल में

तुम्हारे चेहरे का कुछ भी यहां नहीं मिलता.

और ये भी कैफी का ही जादू है कि वो बड़ी ही सादगी से लिख देते हैं- कोई ये कैसे बताए कि वो तन्हा क्यों है, वो जो अपना था वो और किसी का क्यों है. शबाना आजमी कहती हैं- 'इतनी सीधी तरह से कम शब्दों में इतना खूबसूरत गाना हिंदी फिल्मों में मैंने नहीं सुना है. अब्बा कमाल थे'.

अपने अब्बा को कमाल बताने वाली ये वही शबाना आजमी हैं जो बचपन में ये नहीं समझ पाती थीं कि उनके अब्बा हमेशा घर पर ही क्यों रहते हैं और कुर्ता पायजामा ही क्यों पहनते हैं. हां, शबाना ये जरूर कहती हैं कि उन्हें अब्बा ने कभी डांटा नहीं. गंगा जमुनी तहजीब सिखाई. बचपन में होली दीवाली क्रिसमस सब मनाना सिखाया. उन्होंने ही जीवन का बड़ा सच सिखाया. वो सच था- ब्लैक इस ब्यूटीफुल टू. ये सच शबाना ने उस दिन सीखा था जब उनके अब्बा उनके लिए एक काली गुड़िया लाए थे. शबाना छोटी थीं उन्हें भी नीली आंखों और भूरे बाल वाली गुड़िया चाहिए थी. जिस रोज कैफी साहब ने उन्हें समझाया था ‘ब्लैक इस ब्यूटीफुल टू’. इसी सीख में शायद कैफी साहब की शख्सियत का सच भी है.