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पुण्यतिथि विशेष: अगर संजय गांधी होते तो कैसी होती भारतीय राजनीति?

संजय गांधी की असमय मृत्यु न हुई होती, तो कुछ चीजें जल्दी, तो कुछ कभी नहीं हुई होतीं

Rajendra Dhodapkar

इतिहास की गति का कुछ खास लोगों के जन्म मरण से क्या रिश्ता होता है , यह बड़ा पेचीदा और अनसुलझा सवाल है. खासकर जिन लोगों की असमय मौत हो जाती है , उनके बारे में यह सवाल अक्सर उठता है कि अगर वे ज्यादा लंबी उम्र पाते तो इतिहास में क्या परिवर्तन होता.

आधुनिक भारत के इतिहास में दो ऐसे लोग हैं, जो असमय चले गए और यह लगता है कि अगर वे ज्यादा जिंदा रहते तो भारत शायद वैसा नहीं होता जैसा अब है. हालांकि, दोनों बिल्कुल अलग-अलग किस्म के लोग थे और उनका असर भी बिल्कुल अलग अलग होता. पहले थे लालबहादुर शास्त्री और दूसरे संजय गांधी.


शास्त्री जी की मृत्यु तब हुई जब उनकी लोकप्रियता अपने उरूज पर थी. वे एक दुर्लभ किस्म के व्यक्ति थे, वे निहायत शरीफ, विनम्र और ईमानदार व्यक्ति थे, साथ ही में बहुत कुशल राजनेता भी थे, जो हर कठिन राजनैतिक समस्या सुलझाने के लिए जवाहरलाल नेहरू के सबसे विश्वसनीय व्यक्ति भी थे. साथ ही वे आर्थिक उदारीकरण के समर्थक थे. लोकप्रिय और शक्तिशाली शास्त्री के नेतृत्व में भारत कौन सी दिशा पकड़ता, इस पर लंबी चर्चा की जा सकती है, लेकिन फिलहाल हमारी चर्चा का विषय संजय गांधी हैं जिनकी आज बरसी है.

तस्वीर: अपने बेटों राजीव गांधी और संजय गांधी के साथ इंदिरा गांधी

कुछ-कुछ मामलों में इंदिरा के अक्स थे संजय

शास्त्री जी की असमय मौत की वजह से इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं और उनके उत्तराधिकारी के तौर पर संजय गांधी एक संविधानेतर सत्ता केंद्र की तरह उभरे. संजय की मौत सिर्फ 32 साल की उम्र में हुई, लेकिन तब तक उन्होंने दिखा दिया था कि उनमें राजनीति को समझने और उसे मनमुताबिक मोड़ने की जबर्दस्त प्रतिभा है. उन्होंने भारतीय राजनीति के सभी बने-बनाए समीकरणों को तोड़कर सफलता हासिल की थी, यह उनकी प्रतिभा का कमाल है. इसलिए यह माना जा सकता है कि अगर वे जिंदा रहते तो भारत आज वही न होता जो अब है.

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संजय गांधी के दौर में कांग्रेस ने उनके नाना के दौर की कांग्रेस के तमाम तौर-तरीकों से मुक्ति पा ली या संजय ने उसे जबर्दस्ती ऐसा कर दिया. नेहरू लोकतंत्र की संस्थाओं और परंपराओं, मर्यादाओं में यकीन रखने वाले व्यक्ति थे.

संविधान के इतर था संजय का तंत्र

संजय ने शुरुआत ही संविधानेतर सत्ता की तरह की, जिसके आगे तमाम संवैधानिक संस्थाओं और उनमें संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों को झुकना पड़ा. वास्तविकता यह है कि संजय का यकीन संविधान और लोकतंत्र में भी खास नहीं था, इसलिए जानकारों का मानना है कि उनके हाथ में राज होता तो वे भारत का राजनैतिक तंत्र ही बदल डालते.

अपनी मां की स्थिति के अलावा संजय ने उसी माध्यम का इस्तेमाल किया जिसका इस्तेमाल सभी एकाधिकारवादी नेता करते हैं. उन्होंने 'लुंपेन' युवाओं की एक फौज यूथ कांग्रेस या एनएसयूआई के नाम पर इकट्ठा की. ये युवा अमूमन अपने-अपने समाजों में बहुत इज्जतदार नहीं थे. संजय गांधी ने इन्हें ताकत और रसूख दिया, जिसकी वजह से ये उनके प्रति एकदम वफादार हो गए. देखते-देखते ये युवा नेता कांग्रेस के परंपरागत नेतृत्व से ज्यादा महत्वपूर्ण हो गए. इन्होंने कांग्रेस का चेहरा बदल डाला.

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ये युवा संजय गांधी की सत्ता को समाज और राजनीति में आक्रामक रूप से प्रचारित-प्रसारित करते रहे. इसके अलावा अपने कुछ वफादार नौकरशाहों के जरिए संजय ने प्रशासन पर अपनी पकड़ बना ली. इस प्रक्रिया में सरकार, प्रशासन और कांग्रेस पार्टी में कई पुराने रिश्ते और रिवाज हमेशा के लिए टूट गए.

बस संजय गांधी ही चला सकते थे ये तंत्र

लेकिन इस नए ढांचे के केंद्र में सिर्फ संजय गांधी थे और वे ही इसे चला सकते थे. कांग्रेस का पुराना ढांचा इस प्रक्रिया में टूट-फूट चुका था. कांग्रेस में तब तक काफी सारे ईमानदार, वफादार और समर्पित कार्यकर्ता होते थे, जो पार्टी के सिद्धांतों में यकीन रखते थे. तब तक पार्टी में ऐसे लोग भी थे जिन्होंने बड़े-बड़े पदों पर रहकर भी कोई निजी संपत्ति नहीं बनाई. संजय गांधी के दौर में ऐसे लोग बहुत कम रह गए.

लोगों को याद होगा कि उस दौर में जब यूथ कांग्रेस का अधिवेशन होता था, तो दहशत का माहौल बन जाता था. जिस शहर में यह अधिवेशन होता था, वहां जाने वाली रेलगाड़ियों के रूट पर स्टेशनों पर लूटपाट, मारपीट, रेलगाड़ियों में महिलाओं की बेइज्जती और अराजकता की खबरें अखबारों में छाई रहती थीं. इसका एक नतीजा यह भी हुआ कि गंभीर और पढ़े-लिखे लोग कांग्रेस से कट गए.

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इसका नतीजा कांग्रेस को भुगतना पड़ा. इसका प्रमाण यह है कि इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सहानुभूति लहर में भले ही कांग्रेस को लोकसभा में तीन-चौथाई बहुमत मिल गया हो लेकिन उसके बाद आजतक कांग्रेस को अपने बूते बहुमत नहीं मिला.

कुछ चीजें जल्दी, तो कुछ कभी नहीं हुई होतीं

यह कहना मुश्किल है कि अगर संजय गांधी जिंदा होते तो भारतीय राजनीति कैसी होती. यह कहा जा सकता है कि उनके प्रभाव में आर्थिक उदारीकरण पहले हो जाता क्योंकि समाजवाद में उनका यकीन नहीं था, लेकिन इस उदारीकरण में क्रॉनी कैपिटलिज्म ज्यादा होता क्योंकि संजय का नियम कानूनों में भी यकीन नहीं था. यह भी मुमकिन है कि देरसवेर जनता संजय गांधी की शैली के खिलाफ विद्रोह कर उठती.

संजय की विमान दुर्घटना में मौत के बाद इंदिरा गांधी ने राजीव गांधी को अपना उत्तराधिकारी चुना. इंदिरा गांधी की हत्या की वजह से राजनीति में आने के कुछ समय बाद ही राजीव प्रधानमंत्री बन गए.

शालीन राजीव गांधी का संजय गांधी की शैली और उनके अंदाज के लोगों से तालमेल नहीं बैठा. इसलिए संजय के लोग और यूथ कांग्रेस जैसे संगठन अपनी ताकत और आक्रामकता खोने लगे. पुरानी कांग्रेस पहले ही टूट फूट चुकी थी, नए समर्पित लोग आ नहीं रहे थे. चूंकि कांग्रेस का पुराना पुण्य इतना ज्यादा था इसलिए क्षरित होते हुए भी वह लगभग अब तक सबसे बड़ी पार्टी बनी रही.

लेकिन कांग्रेस की आज की समस्याओं की जड़ें हम इंदिरा गांधी, संजय गांधी के दौर में ढूंढ सकते हैं. साथ ही हम यह भी देख सकते हैं कि संजय गांधी की जिन बातों की हम आलोचना करते हैं वे सिर्फ उनमें ही नहीं थीं. वे सारी प्रवृत्तियां काफी हद तक आज भी तमाम पार्टियों और नेताओं में दिखाई देती हैं, उन लोगों में भी जिनकी राजनैतिक शुरुआत संजय गांधी, इंदिरा गांधी का विरोध करने से हुई है.