view all

रसगुल्ले पर बैन लगाने वाला ये बंगाली मुख्यमंत्री तानाशाह हरगिज नहीं था...

पश्चिम बंगाल के तीसरे मुख्यमंत्री प्रफुल्ल चंद्र सेन की पुण्यतिथि पर विशेष

Arun Tiwari

साल 1965 में पश्चिम बंगाल सरकार ने रसगुल्ला प्रेमी बंगालियों पर एक अजीबोगरीब तरीके से बैन लगाया था. जिस रसगुल्ले को बंगाल के पर्याय के तौर पर देश के दूसरे राज्यों में पहचाना जाता है वही रसगुल्ला अब राज्य में प्रतबंधित हो गया था. और रसगुल्ले पर बैन लगाने वाले नेता थे बंगाल के दूसरे मुख्यमंत्री गांधीवादी नेता प्रफुल्ल चंद्र सेन. सहसा सुनने में ये निर्णय तो बेहद तानाशाही भरा प्रतीत होता था लेकिन इस निर्णय के पीछे प्रफुल्ल चंद्र सेन की मंशा पढ़ने के बाद शायद आपको अंदाजा लग जाएगा कि बंगाल में रसगुल्ले जैसे मशहूर आहार पर रोक लगाने वाला नेता कितना सहृदय और दयालु था. दरअसल प्रफुल्ल चंद्र सेन ने राज्य में तब डेयरी प्रोडक्ट्स की कमी को देखते हुए यह निर्णय लिया था. उनका मानना था कि अगर छेने के रसगुल्लों पर बैन लगा दिया गया तो दूध मांओं और नवजात शिशुओं के लिए प्रचुरता से मिल पाएगा. बंगाल मिठाइयों के लिए भले ही मशहूर रहा हो लेकिन डेयरी प्रोडक्ट्स के मामले में उसकी हालत कभी भी बहुत उम्दा नहीं रही. साठ के दशक के हालात तो और भी बदतर थे और तब ( 1962-67 ) प्रफुल्ल चंद्र सेन राज्य के मुख्यमंत्री हुआ करते थे.

खैर पक्के गांधीवादी विचारों वाले प्रफुल्ल चंद्र सेन नहीं माने. वो जानते थे कि इसके दुष्परिणाम सत्ता गंवाकर भी चुकाने पड़ सकते हैं. और यही हुआ भी. इसे पश्चिम बंगाल के इतिहास में रसगुल्ला क्रांति के तौर पर भी याद किया जाता है. तब बंगाल में वामपंथी विचारधारा अपनी जड़े मजबूत कर रही थी. वामपंथी पार्टियों के तरफ से इस प्रतिबंध के विरोध में राज्यभर में विरोध प्रदर्शन हुए. तब बंगाल प्रफुल्ल चंद्र घोष के बाद पश्चिम बंगाल कांग्रेस के सबसे मजबूत नेता रहे अजोय घोष ने कांग्रेस पार्टी तोड़ डाली और 1967 में हुए विधानसभा चुनाव में अजोय घोष ने कम्युनिस्ट पार्टी के साथ मिलकर सरकार बना दी. हालांकि प्रफुल्ल चंद्र सेन ने भले ही अपने एक अलोकप्रिय निर्णय की वजह से सरकार खो दी थी लेकिन आज जब हम करीब पचास सालों बाद उन्हें याद कर रहे हैं तो उस रसगुल्ला बैन के निर्णय की मूलात्मा को मानवीय निगाहों से देखना ही चाहिए. और भारतीय राजनीति के उस विद्रूप को भी समझना चाहिए कि अलोकप्रिय निर्णय कई बार कितने महत्वपूर्ण होते हैं.


पश्चिम बंगाल की वर्तमान मुख्यमंत्री ममता बनर्जी प्रफुल्ल चंद्र सेन को अपना मार्गदर्शक मानती हैं. ममता ने अपनी किताब माई अनफॉरगटेबल मेमोरीज में लिखा है, ‘ ऐसे कई लोग हैं जिन्होंने नेपथ्य में रहकर और कई बार मेरी अनभिज्ञता में मेरी बहुत मदद की है लेकिन प्रफुल्ल दा से ज्यादा नहीं.’ 1984 में जब ममता बनर्जी ने जाधवपुर सीट से दिग्गज वामपंथी नेता सोमनाथ बनर्जी के विरुद्ध चुनाव लड़ा था तो प्रफुल्ल चंद्र सेन ने रिक्शे पर निकल कर ममता के लिए प्रचार किया था. ममता ने उस मदद को भावुकता के साथ अपनी किताब में याद किया है.

गांधीवाद से प्रभावित

10 अप्रैल 1897 को बंगाल के खुल्ना ( वर्तमान में बांग्लादेश का एक जिला ) में जन्में प्रफुल्ल चंद्र सेन का ज्यादातर बचपन बिहार में गुजरा. देवघर से स्कूली पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने ग्रेजुएशन कलकत्ता के स्कॉटिश चर्च कॉलेज से की. ग्रेजुएशन के बाद प्रफुल्ल चंद्र आगे का करियर बनाने के लिए इंग्लैंड जाना चाहते थे लेकिन 1920 में महात्मा गांधी के एक भाषण ने उनका भविष्य बदल दिया. इसके बाद तो देश से बाहर जाने के ख्वाब को उन्होंने अधूरा ही छोड़ दिया और असहयोग आंदोलन के प्रभाव में हुगली जिले के आराम बाग में गांधीवाद का प्रसार शुरू किया. आजादी की लड़ाई में करीब दस साल अलग-अलग जेलों में गुजारे.

आजादी के बाद दूसरे मुख्यमंत्री बिधान चंद्र रॉय की सरकार में राज्य के कृषि मंत्री बने. कृषि मंत्री रहने के दौरान उन्होंने राज्य में अन्न की दिक्कत को बहुत करीब से देखा और समझा था. 1942 में बंगाल में भीषण अकाल की भयावह यादें राज्य को सालों तक सालती रही थीं. 1962 में जब प्रफुल्ल चंद्र सेन राज्य के मुख्यमंत्री बने. खाद्य सप्लाई के सुधार को लेकर उन्होंने कई बड़े फैसले लिए. 2017 में उनकी जन्मतिथि पर उन्हें याद करते हुए ममता बनर्जी ने कहा था कि प्रफुल्ल दा ने राज्य में अन्न की राशनिंग का काम शुरू किया जो थोड़े बहुत बदलावों के साथ आज भी राज्य में जारी है.

1965 में रसगुल्ले पर बैन लगाने के बाद प्रफुल्ल चंद्र सेन बहुत अलोकप्रिय हुए. 1967 में जिन अजोय मुखर्जी ने प्रफुल्ल चंद्र सेन को आराम बाग विधानसभा सीट से हराया था उनकी जीत के सूत्रधार रहे छात्रनेता नारायण चंद्र घोष ने भी प्रफुल्ल दा को बेहद भावुकता से याद किया था. नारायण चंद्र घोष ने प्रफुल्ल दा की जन्मशती पर कहा था, ‘ हमें प्रफुल्ल चंद्र सेन की जिंदगी से सीखना चाहिए. कैसे सेन्हाती (बंगाल की एक जगह) का रहने वाला एक आदमी आराम बाग का गांधी बन गया. सेन का समर्पण हमारे लिए शिक्षा की तरह है.’

प्रफुल्ल चंद्र सेन आजीवन महात्मा गांधी के विचारों से प्रभावित रहे.

67 की हार प्रफुल्ल चंद्र सेन की राजनीति में ढलान की तरह आई. आजीवन कुंवारे रहे प्रफुल्ल चंद्र धीरे-धीरे अगले कुछ सालों में राजनीति में गौण होते गए. बड़े ओहदों पर सालों गुजारने के बाद भी अपने अंत समय में उन्होंने कोई सरकारी लाभ नहीं लिया. 25 सितंबर 1990 को लंबी बीमारी के बाद उनका निधन हो गया लेकिन उन्होंने न खुद और न ही अपने परिवार के किसी सदस्य को लाभ लेने दिया. जिस गांधीवाद की वजह से उन्होंने युवावस्था में इंग्लैंड जाने का रास्ता छोड़ा था उस पथ से वो कभी डिगे नहीं.