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जाने-आलम को जानते हैं आप? अरे वही अपने वाजिद अली शाह

पुण्यतिथि विशेष: वाजिद अली शाह के साथ इतिहासकारों ने न्याय नहीं किया और उन्हें अय्याश के रूप में प्रदर्शित किया

Nazim Naqvi

‘जाने आलम’ यानी नवाब वाजिद अली शाह, वाजिद अली शाह यानी अवध, अवध यानी लखनऊ ये सारे शब्द एक-दूसरे से इस तरह जुड़े हुए हैं कि अलग करना मुश्किल है. ये आज के लखनऊ की बात नहीं, उस लखनऊ की है जिसके चश्मदीद गवाह मौलाना अब्दुल हलीम ‘शरर’ थे. और उनकी किताब ‘गुज़िश्ता-लखनऊ’ को उस लखनऊ की आखिरी किताब कहा जाता है.

इस किताब को पढ़ते हुए, आपको पता ही नहीं चलता और आप उस लखनऊ में पहुंच जाते हैं जहां रंगो-नूर की बेशुमार परछाइयां आंखों के सामने रक्स करने लगती हैं. और ये हाल तब होता है जबकि नफासतो-तहजीब और इश्को-इशरत की उस तिलिस्माती दुनिया को हम सिर्फ किताबों में पढ़ते हैं.


सोचिए कि उनका क्या हाल होगा जिन्होंने उन बहारों को, उस अदब को समझा और बरता होगा. जी हां, यही वो जमाना था जिसकी शामों का शामे अवध और जिसकी सुबहों को सुबहे बनारस कहा जाता था. यही अवध, जाने-आलम, वाजिद अली शाह का अवध था.

लखनऊ को समझने और महसूस करने के लिए मौलाना ‘शरर’ की किताब इस लिए भी अहम है क्योंकि उनकी शुरुआती जिंदगी का एक बड़ा हिस्सा ‘वाजिद अली शाह’ के साय में गुजरा, उनके वालिद अवध हुकूमत में मुलाजिम थे.

लखनऊ में मुर्गों की लड़ाई का एक दृश्य

जैसा कि लेखक पहले ही बयान कर चुका है कि वाजिद अली शाह और लखनऊ को अलग करना मुश्किल है, इसकी तस्दीक खुद शरर अपनी किताब में करते हैं. जब अंग्रेजों ने वाजिद अली शाह को लखनऊ छोड़ने का हुक्म देकर कलकत्ता भेजा तो ‘मटिया बुर्ज’ (कलकत्ता का वो इलाका जहां वो रहे) पूरा का पूरा लखनऊ में तब्दील हो गया.

'असली लखनऊ मिट गया था और उसकी चुनिंदा खासियतें, मटिया बुर्ज में चली गई थीं. वही चहल-पहल थी वही जबान थी वही शायरी थी वही अवाम थे. किसी को नजर ही न आता था कि हम बंगाल में हैं. वही पतंगबाजी वही मुर्गबाजियां, वही दास्तानगोई, वही ताजियादारी, वही इमामबाड़े और वही कर्बला थी.'

इतिहास में, नवाब वाजिद अली शाह को, अक्सर एक नाकारा-निकम्मा बादशाह कहकर याद किया जाता है, जिसे पतंगबाजी, कबूतरबाजी और रास-लीला रचाने से ही फुर्सत न थी, तो हुकूमत के काम कैसे देखता. लेकिन कुछ इतिहासकारों का मानना है कि अंग्रेजों द्वारा अगर ये अफवाहें न उड़ाई जातीं तो कंपनी-बहादुर के पास उन्हें गद्दी से उतारने का कोई बहाना न मिलता.

उस वक्त के हालात क्या थे? इसे समझने के लिए एक बार फिर ‘गुज़िश्ता लखनऊ’ के पन्नों को पलटना पड़ेगा. मौलाना लिखते हैं 'असिफुद्दौला के जमाने में तलवार गोया हाथों से छूट कर गिर पड़ी थी. शुजाउद्दौला के बाद, अवध की हुकूमत ने, किसी अहम लड़ाई में हिस्सा नहीं लिया. इसकी जरूरत भी नहीं रह गई थी.'

'ये सारे काम अंग्रेजी फौजें अंजाम दिया करती थीं. लिहाजा अब दरबार और उसके अमीरों और दरबारियों के लिए जिंदगी के दूसरे मैदान ही बचे थे. घर के दीवानखाने थे जहां मुसाहेबीन (नवाब के वफादार) जमा होकर जबानों की तलवारों के जौहर दिखाते थे. तवायफों के कोठे थे जहां तहजीबो-शयिस्तगी के साए में तफरीह की लज्जत हासिल की जाती थी.'

बड़ा इमामबाड़ा लखनऊ

लखनऊ की ये तस्वीर खींचते हुए मौलाना शरर, दरअसल इसके पीछे की वजह बताना चाहते हैं. वो लिखते है- 'मुर्गों और बटेरों की पलियां थीं, जहां बाजियां लगाकर, अजदाद (पुरखों) की जंगजूई की यादें ताजा करते थे, और दास्तानगो थे जो लफ्जों के फूलों से तिलिस्मी बाग लगाकर ख्यालों की ऐसी-ऐसी दुनियाएं जमीन पर बसा दिया करते थे, जिनमें चार घड़ी के लिए खोकर, अपनी दुनिया की तल्ख हकीकतों से लोग छुटकारा पाने की कोशिशें करते थे.'

चूंकि लखनऊ की नवाबी हुकूमत का अंत वाजिद अली शाह के काल में हुआ इसलिए इसका जिम्मेदार उन्हें ही माना जाता है. लेकिन सवाल पूछने वाले ये भी पूछ ही लेते हैं कि अगर वाजिद अली शाह नाच-गानों, रास-लीलाओं और ऐसे ही दूसरे कामों में लिप्त होने की वजह से हुकूमत खो बैठे तो उसी समय में पंजाब के सिख, दक्षिण के मराठे या बंगाल के नवाब या फिर खुद दिल्ली के मुगलों की हुकूमतें क्यों गईं, वो तो इतने रंगीन मिजाज न थे.

अब आइए उस असली बात पर, जिसपर अंग्रेजों ने और उनके मातहत इतिहासकारों ने जान-बूझ कर पर्दा डाला. दरअसल वाजिद अली शाह बहुत दूर-अंदेश बादशाह था. वो जानता था कि अंग्रेजों से दोस्ती नवाब शुजाउद्दौला के जमाने से चली आ रही थी. पहले उन्होंने अंग्रेजों को चुनौती दी. फिर मुंह की खाई. फिर सल्तनत न जब्त हो इसलिए एक दोस्ताना अहदनामे (संधि-पत्र) पर दस्तखत कर दिए और इसकी कीमत, उस जमाने में, पचास लाख रुपए देकर अदा की. फिर ये होता रहा कि जब किसी जंग में अंग्रेजों को पैसों की जरूरत होती तो अवध के खजाने खोल दिए जाते.

वाजिद अली शाह ये भांप चुके थे कि अंग्रेज हिंदुस्तान पर तबतक जीत हासिल नहीं कर सकते जब तक हिंदू-मुस्लिम एकता जिंदा है. हिंदुस्तान की दूसरी रियासतों और दिल्ली के मुगलिया दरबार का हाल उनके सामने था. इसलिए उन्होंने, जब तक उनके बस में रहा, गंगा-जमनी तहजीब के नाम पर, अवध के हिंदू-मुस्लिम अवाम को जोड़ने का काम करते रहे. जब वो कन्हैया बनकर नजीर की शायरी पर कत्थक के भाव बनाते तो देखने वाले मंत्र-मुग्ध हो जाते थे. दरबार सुभानाल्लाह... और वाह-वाह के नारों से गूंजने लगता.

यारों सुनो ! ये दधि के लुटैया का बालपन ।

और मधुपुरी नगर के बसैया का बालपन ।।

मोहन-सरूप निरत करैया का बालपन ।

बन-बन के ग्‍वाल गौएं चरैया का बालपन ।।

ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन ।

क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।

ये वो जमाना था कि मुसलमान कृष्ण कन्हैया के कसीदे लिख रहे थे तो हिंदू शायर रसूले-अकरम की शान में ऐसी-ऐसी नातें लिख रहे थे कि क्या कोई मुसलमान लिखेगा. यही वो जमाना भी था कि ये रिश्ते देखकर अंग्रेजी रेजीडेंट जनरल ओटरम को अपने ख्वाब चकनाचूर होते दिखाई दे रहे थे.

पूर्वज चाहे जो रहे हों, नस्ल उनकी कुछ भी हो लेकिन वाजिद अली शाह मन और आत्मा से पूरी तरह भारतीय थे. ‘गुज़िश्ता लखनऊ’ में लखनऊ के कैसरबाग कि तरफ जाती एक सड़क का जिक्र है, जिसपर एक बहुत घना, सायादार दरख्त था जिसके चारों तरफ संगे-मरमर का एक बहुत सुंदर चबूतरा बनाया गया था. 'यहां कैसरबाग के मेलों के दौरान जहां-पनाह जोगी बनके, गेरुए कपडे़ पहन के आते और धूनी रमा के बैठते'.

शतरंज के खिलाड़ी फिल्म में अमजद खान ने वाजिद अली शाह का रोल प्ले किया था.

जाहिर सी बात है कि एक लेख में वाजिद अली शाह के सारे रंग समेटना कूजे में समंदर भरने जैसा होगा. लेकिन वाजिद अली शाह, जिन्हें अवध की अवाम प्यार से जाने-आलम कहती थी, के साथ इतिहासकारों ने इंसाफ नहीं किया और उन्हें सिर्फ एक अय्याश नवाब के रंग में रंग दिया. उन्हें फिर से समझे जाने और फिर से लिखे जाने कि जरूरत है.

वो एक अच्छे शायर भी थे. उनके दिल के जज्बात समझने के लिए उनके दो शेर हाजिर हैं-

आईने से अब आंख मिलाई नहीं जाती,

कट जाय प गर्दन तो झुकाई नहीं जाती.

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क्या तुम ये दो रंगी जहां देख सकोगे,

इस दर पे फिरंगी के निशां देख सकोगे.