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‘दरबार’ में रहकर ‘दरबार’ की पोल खोलने वाला दरबारी

रागदरबारी व्यवस्था पर व्यंग्य था इस वजह से श्रीलाल शुक्ल ने इसे प्रकाशित करने के लिए बकायदा प्रशासन से अनुमति मांगी थी

Piyush Raj

बात अगर हिंदी उपन्यासों की हो जिन चंद उपन्यासों के नाम हमारे दिमाग में आते हैं उनमें रागदरबारी भी एक है. श्रीलाल शुक्ल ने वैसे कई उपन्यास और रचनाएं लिखीं हैं लेकिन रागदरबारी उनका सबसे सफल उपन्यास रहा. यह उपन्यास अपने व्यंग्य के साथ स्वतंत्रता के बाद आजाद भारत की असली तस्वीर पेश करता है.

श्रीलाल शुक्ल खुद एक प्रशासनिक अधिकारी थे और प्रशासन में रहते हुए उन्होंने यह उपन्यास लिखा था. इस उपन्यास में व्यवस्था की खामियों को जिस तरह दिखाया गया है वह अद्भुत है. आजाद भारत का ग्रामीण समाज किस करवट मोड़ ले रहा था या यूं कहें पूरा भारत किस दिशा में जा रहा था यह रागदरबारी को पढ़कर बड़ी आसानी से समझा जा सकता है. एक प्रशासनिक अधिकारी या कहें कि एक दरबारी द्वारा खुद उस दरबार पर व्यंग्य है जिसका वह हिस्सा था.


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रागदरबारी के लिए मांगी थी प्रकाशन की अनुमति

श्रीलाल शुक्ल ने जब रागदरबारी लिखकर पूरा किया उस वक्त वो प्रशासनिक अधिकारी थे. चूंकि रागदरबारी व्यवस्था पर व्यंग्य था इस वजह से उन्होंने इसे प्रकाशित करने के लिए बकायदा प्रशासन से अनुमति मांगी थी. हालांकि इससे पहले उनकी कई रचनाएं प्रकाशित हो चुकी थीं और इसके लिए उन्होंने कोई अनुमति नहीं ली थी. कई दिनों तक जब उनके पत्र का जवाब नहीं मिला तो पहले उन्होंने नौकरी छोड़ने का मन बना लिया फिर यूपी सरकार को उन्होंने एक व्यंग्यात्मक पत्र लिखा. इसका असर यह हुआ कि उन्हें रागदरबारी को प्रकाशित करवाने की अनुमति मिल गई.

रागदरबारी जैसा उपन्यास लिखकर व्यवस्था की धज्जियां उड़ाने वाला यह लेखक बाद में खुद व्यवस्था के शीर्ष पर भी पहुंचा. जब वीपी सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे तब श्रीलाल शुक्ल उनके सचिव थे. लेकिन श्रीलाल शुक्ल ने लिखना कभी बंद नहीं किया. प्रशासन और व्यवस्था के शीर्ष पर पहुंचकर उसी व्यवस्था की कलई खोलते रचनाएं लिखना बहुत ही साहस का काम होता है. यह इस वजह से भी साहस का काम है क्योंकि व्यवस्था पर व्यंग्य करना ऐसे व्यक्ति के लिए खुद के ऊपर भी किया गया व्यंग्य माना जाता है. अपने ऊपर व्यंग्य करने का साहस बहुत ही कम साहित्यकारों ने किया है.

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शिक्षा व्यवस्था पर किया गया व्यंग्य आज भी मौजूं है 

रागदरबारी में श्रीलाल शुक्ल ने सबसे अधिक करारा व्यंग्य हमारी शिक्षा-व्यवस्था पर किया है. हमारी शिक्षा-प्रणाली में अंग्रेजी को कुछ अधिक ही महत्व दिया जाता है. रागदरबारी में एक जगह श्रीलाल शुक्ल लिखते हैं कि ‘हृदय परिवर्तन के लिए रौब की जरूरत होती है और रौब के लिए अंग्रेजी की.’ इसी तरह हमारे विश्वविद्यालयों में होने वाले शोध की हालत पर वे लिखते हैं- ‘कहा तो घास खोद रहा हूं अंग्रेजी में इसे ही रिसर्च कहते हैं.’

इस तरह के कई वाक्य रागदरबारी में हमें मिलते हैं जो आज भी प्रासंगिक और सटीक बैठते हैं. श्रीलाल शुक्ल ने मुख्यतः ग्रामीण समाज में होने वाली हलचलों को अपनी रचनाओं के केंद्र में रखा है. उनकी एक ऐसी ही एक और रचना है- ‘विश्रामपुर का संत’.

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यह उपन्यास विनोबा भावे के भूदान आंदोलन को केंद्र में रखकर लिखा गया है. भूमि सुधार एक ऐसी प्रक्रिया थी जिसने ग्रामीण भारत को स्वतंत्रता के बाद गहराई से प्रभावित किया था. यह भी एक विडंबना है कि रेणु और नागार्जुन को छोड़कर ग्रामीण भारत में होने वाले इस बड़े बदलाव पर बहुत कम ही साहित्यकारों ने ध्यान दिया था. श्रीलाल शुक्ल ने भले ही 1998 में इस विषय पर उपन्यास लिखा लेकिन यह भूदान की उन कमियों को उजागर करता है जिस पर पहले के रचनाकारों ने ही नहीं बल्कि भूमि सुधार पर रिसर्च करने वालों ने भी ठीक से ध्यान नहीं दिया था.

श्रीलाल शुक्ल ने करीब 25 किताबें लिखीं. उन्हें साहित्य अकादमी और ज्ञानपीठ सहित कई प्रतिष्ठित पुरस्कार मिले लेकिन जो जगह श्रीलाल शुक्ल ने पाठकों के दिलों में जो जगह बनाई है वो किसी भी पुरस्कार से कहीं ऊपर है.