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पुण्यतिथि विशेष ए.के. हंगल: ‘फ्रीडम फाइटर’ से एक्टर तक...

अगर ए.के. हंगल अपनी आत्मकथा में खुद को 'मैं एक हरफनमौला' कहते हैं तो ये एक सच्ची बात है

Nazim Naqvi

क्या आदमी द्वारा अपने ही लिए निर्मित की गई जेलें, शरीर के साथ-साथ विचारों को भी कैद कर सकती हैं? जिस पर जवाब दिए जाने की नहीं, सोचने की जरुरत है.

हिंदुस्तान पाकिस्तान का विभाजन हो चुका था. बड़ी तादाद में दोनों ही तरफ हिंदू-मुसलमान मारे जा चुके थे. उससे भी बड़ी तादाद में पाकिस्तान के हिंदू, हिंदुस्तान और हिंदुस्तान के मुसलमान, पाकिस्तान जा चुके थे. लेकिन कराची में रह रहे कुछ हिंदू-कामरेड ऐसे भी थे जो अचानक आ गई शरणार्थियों के पुनर्वास की इस समस्या में इतने ज्यादा जूझे हुए थे कि विभाजन में वो किस तरफ के हो गए हैं, ये सोचने का भी वक्त उनके पास नहीं था.


काफी कुछ बदल चुका था. कराची के गली मुहल्लों में नए-नए चेहरे दिखाई देने लगे थे. इस दौर के बारे में एके हंगल लिखते हैं- 'इस हकीकत के बावजूद कि हमारे ज्यादातर कॉमरेड गैर-मुस्लिम थे, शहर के मुस्लिम हम पर भरोसा करते थे. और तो और, हिंदुस्तान से आने वाले मुस्लिम भी. एक मुस्लिम मुल्क में हिंदू कम्युनिस्टों के लिए यह कोई छोटी उपलब्धि नहीं थी. इस भरोसे का दूसरा कारण ये था कि हमने तब तक पाकिस्तान की आजादी को लेकर सवाल उठाने शुरू नहीं किए थे. लेकिन ये दिन जल्दी आने वाला था.'

कहां जाए कश्मीर

वो दिन आया. ये हिंदू कामरेड पाकिस्तानियों को घूम-घूम कर बताने लगे कि मुल्क कि आजादी, असली आजादी नहीं है. लोगों के मूड के खिलाफ जाने की ये कोशिश रंग लाई. ये साबित करने के लिए कि उनकी आजादी ‘असली आजादी’ है, पाकिस्तान सरकार ने पांच हिंदू-कॉमरेडों को पकड़ कर जेल में ठूंस दिया जिसमें ए.के. हंगल भी थे, और अब जेल के कुछ छोटे मोटे अफसरों के बीच हंगल साहब बैठे थे और उनसे ये सवाल पूछा जा रहा था कि 'हंगल साहब आपकी क्या राय है- कश्मीर को पाकिस्तान में जाना चाहिए या हिंदुस्तान में?'

हंगल साहब ने कूटनीतिक जवाब दिया 'ये तो कश्मीरियों पर निर्भर करता है.'

'ये कोई जवाब नहीं हुआ. आपकी अपनी राय क्या है?' वो मेरी टांग खींचते हुए बोले.

'मेरी राय? ये सवाल तो जिन्ना साहब से किया जाना चाहिए. आप उन्हीं से पूछिए.'

'क्या मतलब?'

'मौजूदा हालात के लिए वे खुद ही जिम्मेदार हैं. एक मशहूर वकील होते हुए उन्हें मालूम होना चाहिए था कि जिस डॉक्यूमेंट पर वो दस्तखत कर रहे हैं उसका क्या नतीजा हो सकता है. इस डॉक्यूमेंट पर दस्तखत करके वो कश्मीर के राजा को, कश्मीर की किस्मत का फैसला करने का, हक दे चुके हैं. तो अब कश्मीर हिंदुस्तान में मिल गया है. इस डॉक्यूमेंट पर नेहरु के भी दस्तखत हैं. जबकि होना ये चाहिए था कि हुकूमत वाली रियासतों का फैसला वहां के लोगों पर छोड़ दिया जाता.'

'वो सारे लोग मेरी बात सुनकर सन्न रह गए. जाहिर था कि उन्हें कश्मीर के मसले के पीछे की घटनाओं की जानकारी नहीं थी, जिसकी वजह से ये प्रदेश आज भी – मुश्किलों का सामना कर रहा है.'

जवान ए.के. हंगल

अमीर खानदान के होते हुए भी दर्जी के रूप में शुरू की जिंदगी

ये खुद हंगल साहब का बयान है. हालांकि लेखक की एक, कुछ घंटों की, मुलाकात हंगल साहब से 98-99 में उनके मुंबई वाले उसी दो कमरे वाले किराए के मकान में हो चुकी है जिसमें वो चार दशक से ज्यादा समय तक रहे और 26 अगस्त 2012 में अंतिम सांस ली. लेकिन ये बातें उन्होंने अपनी आत्म-कथा 'मैं एक हरफनमौला' में लिखी हैं.

हंगल साहब जिंदगी भर ‘इप्टा’ से जुड़े रहे और विभाजन के बाद इप्टा को दुबारा खड़ा करने में उनकी भूमिका संस्थापक जैसी रही है. अगर वो खुद को हरफनमौला कहते हैं तो ये एक सच्ची बात है. वो एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी भी हैं (वो वाले नहीं जिन्होंने सरकार से रियायतें पाने के लिए जेल के झूठे कागज बनवाए थे), जजों और डिप्टी-कमिश्नरों के खानदान से होने के बावजूद उन्होंने एक दर्जी के रूप में अपनी जिंदगी की शुरुआत की- बावजूद इसके कि ब्रिटिश सरकार उन्हें पिता की तरह एक प्रतिष्ठित पद देने के लिए तैयार थी.

लेकिन अंग्रेजों की नौकरी वो कैसे कर सकता था जिसने बचपन में, पेशावर के ‘किस्साख्वानी बाजार में अंग्रेजों द्वारा किया गया वो कत्ले-आम देखा था जो जलियांवाला बाग से किसी भी तरह कम नहीं था और जिसके खून के छींटों से उसकी कमीज तर हो गई थी. ये अलग बात है कि घर लौटने पर उस बच्चे ने तारीफ की जगह बाप से चांटे खाए थे.

पिता की वजह से पैदा हुआ थिएटर का शौक

हंगल साहब बहुत अच्छी बांसुरी भी बजाते थे, चित्रकार भी थे, थिएटर का शौक तो पिता से मिला था. और फिर बाद में फिल्मों में उनकी यादगार एक्टिंग.

उनका शोले का वो मशहूर डायलॉग 'इतना सन्नाटा क्यों है भइ...' तो इतना मशहूर हुआ था कि आज भी दोस्तों की किसी बैठक में खामोशी छा जाने पर कोई इसे दोहराता है और रौनक फिर लौट आती है.

जवानी के दिनों में अपने परिवार के साथ ए.के.हंगल

हंगल साहब कब पैदा हुए ये उन्हें मालूम नहीं था. वो खुद लिखते हैं कि 'जब अपना पासपोर्ट बनाने के सिलसिले से मुझे अपने जन्मदिन की सही तारीख बताने की जरुरत पड़ी तो मैंने अपने बुजुर्गों, रिश्तेदारों से पूछकर इसका पता लगाया.'

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चलिए बात निकल ही आई है तो बताते चलें कि एक कश्मीरी पंडित परिवार में 14 फरवरी 1914 को उनकी पैदाइश हुई जो सियालकोट (अब पाकिस्तान) का वासी था.

ए.के. हंगल उसी सियालकोट की पैदावार हैं जिस जमीन पर इकबाल और फैज़ अहमद फैज़ पैदा हुए. लेकिन छः सात वर्ष की उम्र में वो पेशावर, पिता के पास चले गए और उसी ‘किस्साख्वानी बाजार’ में पले-बढ़े जो राजकपूर और दिलीपकुमार का जन्मस्थान था.

हंगल साहब के पिता को थिएटर का बड़ा शौक था और वो जब भी पेशावर में कोई फारसी थिएटर ग्रुप आता तो बेटे को साथ जरूर ले जाते. 'पिता जी को इतना शौक था कि पेशावर के एक थिएटर ग्रुप को बनाने में उनकी भी भूमिका रही. वो मां की साड़ियां तक थिएटर को दान कर देते थे. एक बार तो एक कलाकार ने एक सीन के दौरान साड़ी को फाड़ ही डाला. मैं हक्का-बक्का रह गया, क्योंकि मैं आसानी से पहचान सकता था कि ये मेरी मां की लाल साड़ी है.'

जब ए.के. हंगल के घर पड़ा इनकम टैक्स का छापा

हंगल साहब ने कोई 200 फिल्मों में चरित्र अभिनेता के तौर पर काम किया. उन्हें इस बात का भी सुकून था कि छोटे-छोटे रोल करने के बावजूद उनकी प्रतिभा और अनुभव को बड़े-बड़े कलाकारों और निर्माता-निर्देशकों ने पूरा सम्मान दिया. लेकिन उनका पहला प्यार मरते दम तक थिएटर ही रहा.

उनकी शोहरत और उनके सादा जीवन कैसा था इसके बारे में वो खुद एक जगह लिखते हैं– 'मुझे सौदेबाजी के दांव-पेंच कभी नहीं आए.' लोग समझते थे कि हंगल साहब काफी मालदार आदमी हैं लेकिन हकीकत तो कुछ और ही है.

'एक बार कई बड़े फिल्मी सितारों के साथ-साथ मेरे घर भी इनकम-टैक्स की रेड पड़ी. मेरे घर की हालत देखने के बाद भी उनका शक दूर न हुआ. उन्होंने मेरे बैंक का लाकर खोलकर देखा. उसमें भी उन्हें थोड़े से जेवरों के सिवा कुछ न मिला. इनकम टैक्स अफसर को अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था. ‘आप इतने मशहूर एक्टर हैं. क्या आपके पास बस इतना सा ही सोना है?’

प्रगतिशील विचारधारा वालों को, थिएटर और सिनेमा में अपना भविष्य देखने वालों को ए.के. हंगल की आत्म-कथा जरूर पढनी चाहिए. ताकि आज के बाजारवाद में फंसकर जीवन के मूल्यों को खो देने वाले ये जान सकें कि वो सच्ची मुस्कराहट कैसे पाई जा सकती है जो उम्रभर हंगल साहब के चेहरे पर छाई रही. और आज भी उनके चाहने वालों की याददाश्त में समाई हुई है.